N. Raghuraman’s column – It’s time to pay attention to even a small thing like a milk packet | एन. रघुरामन का कॉलम: दूध के पैकेट जैसी छोटी-सी चीज पर भी गौर करने का समय आ गया है

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5 घंटे पहले
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
पिछले करीब एक माह से सुबह की कॉफी बनाना मेरी जिम्मेदारी थी, क्योंकि मोतियाबिंद की सर्जरी के बाद पत्नी का किचन स्टोव के पास आना मना था। लेकिन बीते इस समय में वह कभी भी यह पूछना नहीं भूलीं कि ‘क्या आपने दूध की थैलियों को उनकी तय जगह पर रख दिया है?’ यह प्लास्टिक को इकट्ठा करने का अलग बैग है, जो एसी यूनिट के पीछे रखा रहता है।
रिसाइकल कचरा इकट्ठा करने वाले को यह हम देते हैं, जो कि कॉलोनी में महीने में एक बार आता है। मैं ‘हां’ कहता हूं और उन्हें कॉफी का कप देता हूं। एक महीने में मैंने देखा कि धीरे-धीरे इस प्लास्टिक की थैली की ऊंचाई बढ़ने लगी और अंतत: ये एसी यूनिट के पार निकल गई। और तब मुझे एहसास हुआ कि किसी एक घर से कितना अधिक प्लास्टिक निकल सकता है। इसमें सर्वाधिक दूध की थैलियां थीं। इसी ने मुझे दूध की थैलियों को लेकर कुछ तथ्य खोजने के लिए बाध्य किया।
दूध की जिन थैलियों को हम इस्तेमाल के बाद फेंक देते हैं, वे प्लास्टिक की होती हैं और मिट्टी में नष्ट होने में बहुत वक्त लेती हैं। ये समय 20 से 500 वर्षों तक हो सकता है। प्लास्टिक ऐसा पदार्थ है, जिसका प्राकृतिक तरीके से क्षरण नहीं होता।
ना ही ये जैविक पदार्थों की भांति अपघटित होता है। बल्कि यह सूर्य के प्रकाश के संपर्क में आने पर माइक्रोप्लास्टिक में बंट जाता है। पर पूरी तरह गायब नहीं होता। अगर न्यूनतम आंकड़ों का अनुमान लगाएं, तो भी भारत में प्रति दिन ऐसी 20 करोड़ दूध के पैकेट की खपत होती है।
1946 में शुरू हुआ अमूल बड़े दुग्ध उत्पादक के नाते बड़ी संख्या में दूध की थैलियों का उपयोग करता है। सटीक आंकड़े भिन्न हैं, पर रिपोर्ट बताती हैं कि अमूल प्रतिदिन प्लास्टिक से बनी 2.6 करोड़ दूध की थैलियां बेचता है। मतलब, साल भर में करीब 949 करोड़ थैलियां। इसके अलावा कंपनी दही, छाछ जैसे अन्य दुग्ध उत्पाद भी प्लास्टिक की थैलियों में बेचती है, जिससे रोजाना काफी प्लास्टिक कचरा पैदा होता है।
वर्ष 2020 में पंजाब विधानसभा में बताया गया कि पंजाब राज्य सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ द्वारा 1973 में शुरू किए गए ‘मिल्कफैड’ ने 2018-19 में दूध और अन्य डेयरी उत्पादों की पैकेजिंग में 80 करोड़ प्लास्टिक थैलियां काम में लीं। आज हम 2025 में हैं और अभी दूध की खपत करने वाले युवाओं के लिहाज से बड़ी आबादी वाले उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, ओडिशा और झारखंड जैसे राज्यों के संघों की बात तो की ही नहीं है।
मुझे सोमवार को यह सब याद आया, जब मैंने जाना कि कैसे बेंगलुरु में नंदिनी मिल्क सप्लाई करने वाला कर्नाटक मिल्क फेडरेशन (केएमएफ) अपने लोकप्रिय ब्रांड के लिए इको-फ्रेंडली पैकेजिंग शुरू करने जा रहा है। पायलट प्रोजेक्ट के तहत, वे रोजाना प्राकृतिक रूप से अपघटित हो सकने वाली 2 लाख थैलियों के उपयोग से बायोडिग्रेडेबल पैकेजिंग की ओर बढ़ रहे हैं।
वे रोज लगभग 50 लाख लीटर दूध, 16 लाख लीटर दही बेच रहे हैं। नष्ट होने में कई सौ वर्ष लेने वाली पारंपरिक पॉलिथीन थैलियों के विपरीत ये इको फ्रेंडली विकल्प 90 दिन के भीतर प्राकृतिक रूप से विघटित हो जाते हैं।
यहां तक कि इनको रासायनिक उर्वरक में भी बदला जा सकता है। केएमएफ की एक अन्य शाखा बेंगलोर मिल्क यूनियन लिमिटेड (बामूल) द्वारा हाल ही लॉन्च पायलट प्रोग्राम की सफलता के बाद अब ये नई पहल इसी वीकेंड शुरू होगी।
ये परीक्षण उनके एक डेयरी फार्म में शुरू किया गया। वर्तमान में इसे चुनिंदा क्षेत्र में लागू किया जा रहा है, जिसमें इसे सकारात्मक प्रतिक्रिया, रिसाव की शिकायत नहीं होने और दूध की गुणवत्ता से समझौता नहीं होने के पैमानों पर परखा जा चुका है। चूंकि ग्राहक संतुष्टि बेहतर थी, इसलिए वे नए इलाकों को कवर कर रहे हैं। जाहिर है कि जल्द ही राज्यभर में इसे शुरू किया जा सकता है।
फंडा यह है कि समय आ गया है, प्लास्टिक की थैलियों में दूध ले रहे हम भारतीयों को उस मिट्टी और समुद्र को बचाने के लिए कोई री-साइकिलिंग योजना अपनानी पड़ेगी, जो हम हमारी पीढ़ियों के लिए छोड़कर जा रहे हैं। अपनी पसंद का कोई भी तरीका अपनाएं, जब तक कि हमारे शहर बायोडिग्रेडेबल थैलियों पर ना आ जाएं, पर कृपया इन्हें कचरे में ना फेंके।
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