Kaveri Bamje’s column – Cinema that brings the dark realities of society to the screen | कावेरी बामजेई का कॉलम: समाज की स्याह सच्चाइयों को परदे पर लाने वाला सिनेमा

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5 घंटे पहले
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कावेरी बामजेई पत्रकार और लेखिका
जब सेंसर बोर्ड ने “धड़क-2′ के निर्माताओं से आग्रह किया कि वे प्रखर राजनीतिक आशयों वाली कविता “ठाकुर का कुआं’ को अपनी फिल्म से निकाल दें, तो वो इससे हताश नहीं हुए। उन्होंने एक और सशक्त कविता खोज निकाली, जिसे शैलेंद्र ने लिखा था और 1959 की फिल्म “कल हमारा है’ में प्रयुक्त किया गया था।
कविता के शब्द थे : “सच है डूबा-सा है दिल जब तक अन्धेरा है इस रात के उस पार लेकिन फिर सवेरा है हर समन्दर का कहीं पर तो किनारा है आज अपना हो न हो पर कल हमारा है!’ ये ना केवल सशक्त शब्द थे, बल्कि उस महान गीतकार के प्रति आदरांजलि भी थी, जिन्हें राज कपूर के निकटतम सहयोगी होने के बावजूद अपनी दलित पहचान को छिपाने पर मजबूर होना पड़ा था!
“धड़क-2′ ऐसे ही अप्रत्याशित क्षणों से भरी है और स्पष्टता और साहस के साथ समाज में अंदरूनी तौर पर बदलाव लाने की एक बेहतरीन मिसाल है। शाजिया इकबाल द्वारा निर्देशित यह फिल्म दिल से निकली पुकार है, जो आज के भारत में पहचान की राजनीति की कुछ सबसे कठोर सच्चाइयों को दर्शाती है- रोहित वेमुला की आत्महत्या से लेकर युवाओं के आदर्श के रूप में बीआर आम्बेडकर के पुनरुत्थान तक। यह आत्महत्या करार दी जाने वाली ऑनर किलिंग की घटनाओं पर भी रोशनी डालती है।
मुख्यधारा की अधिकतर बॉलीवुड फिल्मों के विपरीत समाज में जाति और जेंडर की कशमकश कोई ऐसी कृत्रिम चीज नहीं है, जिसका इस्तेमाल प्रेम-संबंधों की कहानियों में महज कुछ टकराव पैदा करने के लिए किया जाता हो। बल्कि 2025 में भी समाज में आपकी स्थिति इससे तय होती है कि आपका जन्म किस वर्ग में हुआ है। और जहां शिक्षा सामाजिक गतिशीलता में हमारी मदद जरूर करती है, लेकिन आजादी के 78 साल बाद भी यह पूरी तरह से स्वीकार्य नहीं हुई है।
फिल्म में एक ऊंची जाति का व्यक्ति कहता है- “ये लोग रोटी-बेटी का रिश्ता रखना चाहते हैं।’ यहां पर “ये लोग’ कहकर जिन्हें अपने से भिन्न और पृथक बताया जा रहा है, वे निचली जाति के लोग हैं, जिन्हें आज भी समाज में अपनी जगह नहीं पता है। और उनके लिए शादियां किसी युद्ध से कम नहीं।
“ये लोग’ अपने गांवों को स्वेच्छा से छोड़कर शरणार्थी बन जाते हैं, क्योंकि उनका कुछ भी अपना नहीं है- न गलियां, न खेत, न पानी। “आपकी इमारतें ऊंची हैं पर आपकी सोच बहुत छोटी,’ नायक उस लड़की के परिवार से कहता है, जिससे वह प्यार करता है। वो सही है। मानसिकताएं भूगोल से बंधी नहीं होतीं।
सबसे संकीर्ण मानसिकताएं सबसे अमीर जिप-कोड में पाई जा सकती हैं और सबसे गरीब परिवारों में अकसर सबसे प्रगतिशील विचार होते हैं- उस युवक के पिता की तरह, जो गांव के मेलों में महिला नर्तकी के रूप में नृत्य करते हैं क्योंकि वे ऐसा करना चाहते हैं, और क्योंकि उन्होंने इसके लिए संघर्ष किया है।
तमिल फिल्म “पेरियाराम पेरुमल’ पर आधारित “धड़क-2′ हमारे रिश्तों में प्यार की वापसी, द्वेष के त्याग और सामाजिक रूप से उस उपयोगी सिनेमा के पुनरागमन की अपील है, जो अपने दर्शकों से कुछ कहना चाहता है। वो उन्हें केवल खूबसूरत लोकेशंस ही नहीं परोसना चाहता। यह गुरुदत्त का जन्म-शताब्दी वर्ष है, जो अपनी प्रेम कहानियों में भी देश के हालात पर टिप्पणी किया करते थे। “मिस्टर एंड मिसेज 55′ को ही ले लीजिए, जिसमें गुरुदत्त ने एक कार्टूनिस्ट की भूमिका निभाई थी।
अपने समझौतावादी अंत के बावजूद यह फिल्म हिंदू कोड बिल और समाज में महिलाओं की स्थिति पर बात करती थी। “धड़क-2′ में लैंगिक समानता को महत्व दिया गया है, लेकिन फिल्म के असली नायक बाबासाहेब आम्बेडकर हैं, और उनका “शिक्षित बनो, आंदोलन करो और संगठित होओ’ का संदेश आज समाज के हर वंचित वर्ग में गूंजता है।
- “धड़क-2′ में लैंगिक समानता को महत्व दिया गया है, लेकिन फिल्म के असली नायक बाबासाहेब आम्बेडकर हैं, और उनका “शिक्षित बनो, आंदोलन करो और संगठित होओ’ का संदेश आज समाज के हर वंचित वर्ग में गूंजता है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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