Sanjay Kumar’s column – There is no bias in removing names from the voter list | संजय कुमार का कॉलम: मतदाता-सूची से नाम हटाने में कोई पक्षपात नहीं दिखता

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3 घंटे पहले
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संजय कुमार, प्रोफेसर व राजनीतिक टिप्पणीकार
मतदाता-सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण को लेकर जैसी घबराहट जताई जा रही है, क्या वह गैर-जरूरी है? बिहार में पुनरीक्षण का पहला चरण ही पूरा हुआ है। आयोग द्वारा प्रकाशित मसौदा-सर्वेक्षण और कुछ विवरण कम से कम इस बात का तो संकेत देते हैं कि यह प्रक्रिया निष्पक्ष थी।
अधिक और कम नाम हटाने वाले जिलों की राजनीतिक-सामाजिक प्रोफाइल अलग नहीं है। प्रारंभिक आंकड़ों में कोई पक्षपात नहीं दिखता।चुनाव आयोग और रिपोर्टों के अनुसार 60 लाख से ज्यादा मतदाताओं के नाम हटाए गए हैं, क्योंकि मतदाता-सूची में पंजीकृत 7.8 करोड़ मतदाताओं में से 7.24 करोड़ ने गणना फॉर्म भरा था।
आयोग ने नाम हटाने के कारणों का भी उल्लेख किया है, जैसे मृत्यु हो जाना, अस्थायी या स्थायी रूप से बाहर होने के कारण पते पर न मिलना या दो अलग-अलग जगहों पर पंजीकृत होना। जिन जिलों में नाम हटाने का अनुपात अधिक रहा, वे हैं गोपालगंज, मधुबनी, पूर्वी चम्पारण, समस्तीपुर, पटना, मुजफ्फरपुर, सारण, वैशाली, गया और दरभंगा।
इसके विपरीत, जिन जिलों में नाम हटाने का अनुपात सबसे कम रहा, वे हैं शिवहर, जमुई, मुंगेर, खगरिया, बक्सर, लखीसराय, जहानाबाद, कैमूर, अरवल और शेखपुरा। इन तमाम जिलों का सामाजिक और राजनीतिक विश्लेषण वोटरों के नाम हटाने में किसी विशेष पूर्वग्रह का प्रमाण नहीं देता है।
क्या अधिक नाम हटाने वाले जिले किसी पार्टी के गढ़ हैं और कम नाम हटाने वाले जिले किसी अन्य दल के? 2020 के विधानसभा चुनाव नतीजों का विश्लेषण ऐसी किसी बात का संकेत नहीं देता। सबसे अधिक नाम हटाने वाले दस जिलों में 2020 के चुनाव के दौरान 57.4% मतदान हुआ, जबकि सबसे कम नाम हटाने वाले दस जिलों में 57.1%।
शेष में मतदान 57.6% रहा। सबसे ज्यादा नाम हटाने वाले जिलों में एनडीए को 38.9% और सबसे कम नाम हटाने वालों में 31.7% वोट मिले। बाकी में 37.2% मिले। इसी तरह, सबसे ज्यादा नाम हटाने वाले जिलों में महागठबंधन को 37.6% और सबसे कम नाम हटाने वालों में 35.5% वोट मिले। बाकी में 37.4% मिले।पुनरीक्षण प्रक्रिया की यह कहकर आलोचना की जा रही है कि नाम हटाने में पक्षपात हो सकता है।
आशंकाएं थीं कि यह प्रक्रिया हाशिए पर पड़े समुदायों, विशेष रूप से मुसलमानों, दलितों और अन्य अल्पसंख्यक जाति समूहों के मतदाताओं के नाम हटा सकती है। हालांकि हमें यह तब तक पता नहीं चलेगा, जब तक उन सभी के नामों की सूची न हो, जिनके नाम हटाए गए हैं। लेकिन जिलों की सामाजिक संरचना के विश्लेषण से भी टारगेटेड रूप से नाम हटाने का सबूत नहीं दिखता।
जिन जिलों में सबसे ज्यादा मतदाता हटाए गए हैं, वहां के आंकड़ों में विभिन्न समुदायों का प्रतिनिधित्व है। कुछ जिलों में मुसलमान व दलित वोटर महत्वपूर्ण अनुपात में दिखाई देते हैं, वहीं कुछ अन्य में सवर्ण, यादव और शहरी आबादी। नाम हटाने की प्रक्रिया के किसी एक समूह तक सीमित होने की सम्भावना नहीं दिखती।
पटना, गया, दरभंगा, मुजफ्फरपुर और समस्तीपुर जैसे जिलों में- जहां सबसे ज्यादा नाम मतदाता-सूची से हटाए गए हैं- सामाजिक प्रोफाइल मिली-जुली है। पटना में जहां दलितों की संख्या 16% है, वहीं शहरी मतदाताओं की संख्या 43% और सवर्णों की संख्या 21% है।
गया में दलितों की संख्या 30% और यादवों की 20% है। मुसलमानों की संख्या सिर्फ 11% है। दरभंगा में भी- जहां नाम हटाने की संख्या अपेक्षाकृत ज्यादा है- मुसलमानों (22%) और दलितों (16%) के अलावा 19% सवर्ण मतदाता हैं।
हालांकि हमें उन लोगों की जाति का पता नहीं चलेगा, जिनके नाम हटाए गए हैं, लेकिन जिले की सामाजिक प्रोफाइल का प्रारंभिक विश्लेषण इस तर्क को जरूर कमजोर करता है कि हाशिए के समूहों को टारगेट किया जा रहा है।इसी प्रकार, यदि सारण, वैशाली और गया जैसे जिलों में यादवों की बड़ी आबादी (20% या उससे अधिक) है और उनमें बहुत वोटरों के नाम काटे गए हैं, तो जहानाबाद, जमुई, मधेपुरा, बांका या भोजपुर जैसे जिले भी हैं, जिनमें अधिक यादव वोटर होने के बावजूद बहुत कम नाम काटे गए।
वहीं सारण, मुजफ्फरपुर या दरभंगा जैसे जिलों में सवर्ण आबादी अधिक होने के बावजूद बहुत वोटरों के नाम कटे हैं। यह बात भी सामने आ रही है कि जिन जिलों में अधिक नाम काटे गए हैं, वे अपेक्षाकृत गरीब जिले हैं। क्या इन जिलों से बिहार से लोगों के पलायन का कोई पैटर्न है?
अररिया (43%), किशनगंज (68%), पूर्णिया (38%), कटिहार (44%) में मुस्लिम आबादी बहुत है, लेकिन इन जिलों से वोटरों के नाम हटाने की संख्या बहुत कम है। आरोप सही होते तो इनमें नाम हटाने का प्रतिशत भी अधिक होता।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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