Wednesday 08/ 10/ 2025 

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Palki Sharma’s column- When Trump closed the doors for us, Russia opened them | पलकी शर्मा का कॉलम: ट्रम्प ने हमारे लिए दरवाजे बंद किए थे तो रूस ने खोल दिए

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8 घंटे पहले

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पलकी शर्मा मैनेजिंग एडिटर FirstPost - Dainik Bhaskar

पलकी शर्मा मैनेजिंग एडिटर FirstPost

नई दोस्तियों में उत्साह होता है, लेकिन पुरानी दोस्तियों में सुकून! भारत को यह बात अब समझ आ रही है, लेकिन कड़वे अनुभवों के बाद। डोनाल्ड ट्रम्प के फिर से राष्ट्रपति बनने को लेकर जो खुशी थी, उसमें अब खटास पड़ गई है। जिस व्यक्ति ने कभी भारत के साथ ‘स्वाभाविक गठबंधन’ का वादा किया था, वही टैरिफ को लेकर धौंस जमाने वाले बन गए हैं।

भारतीय निर्यातों पर 50 प्रतिशत टैरिफ लगाने के पीछे ट्रम्प का ख्याल था कि इससे भारत झुक जाएगा। लेकिन इससे बिल्कुल उलट हकीकत सामने आई है : भारत अपने विकल्पों को टटोल कर रहा है और रूस इसमें सबसे बड़ा ‘विनर’ बनकर उभर रहा है।

विदेश मंत्री जयशंकर मॉस्को में हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल भी दो हफ्ते पहले ही वहां गए थे। ये कोई संयोग नहीं है। ये सोचे-समझे कदम हैं। ट्रम्प ने माहौल में गर्माहट भर दी थी, भारत ने रूस से हाथ मिलाकर उनके अरमानों पर पानी फेर दिया!

जयशंकर ने प्रतीकात्मकता से शुरुआत की- मॉस्को में एक युद्ध स्मारक पर पुष्पांजलि अर्पित करके। लेकिन असली कहानी तो उनकी बैठकों में थी : व्यापार और विज्ञान पर आयोग, उप-प्रधानमंत्री के साथ बातचीत और अपने रूसी समकक्ष सेर्गेई लव्रोव से मुलाकात। हो सकता है वे व्लादिमीर पुतिन से भी मिलें। यह कोई रोजमर्रा की कूटनीति नहीं थी। यह भारत का स्पष्ट संदेश था कि हम अमेरिका की दादागिरी से डरेंगे नहीं।

ट्रम्प की टीम ने भारत पर रूस से तेल खरीद के जरिए युद्ध की फंडिंग का आरोप लगाया। फिर व्हाइट हाउस के प्रवक्ता ने बेलौस तरीके से कह दिया कि अमेरिका ने भारत पर ‘सैंक्शंस’ लगाए हैं। लेकिन यह सच नहीं है। अमेरिका ने भारतीय वस्तुओं पर टैरिफ भर ही लगाया है। लेकिन इसने वॉशिंगटन की मानसिकता को जरूर उजागर कर दिया : भारत के साथ अपने एक महत्वहीन जूनियर पार्टनर की तरह व्यवहार करना।

जबकि मॉस्को इससे ठीक विपरीत भूमिका निभा रहा है। वो हमारा पुराना और टिकाऊ दोस्त है। रूस ने अमेरिकी टैरिफ द्वारा भारतीय निर्यात को होने वाले घाटे की भरपाई का वादा किया है। भारत को रूसी तेल की आपूर्ति जारी रहेगी और वह भी 5 प्रतिशत छूट के साथ। और सुखोई के अपग्रेडेशन और संयुक्त इंजन उत्पादन के साथ रूस से हमारा सैन्य-सहयोग और आगे बढ़ेगा।

अगर ट्रम्प ने हमारे लिए अपने दरवाजे बंद किए थे तो रूस ने खोल दिए! तो जयशंकर की मॉस्को यात्रा से हमें क्या हासिल हुआ? रूस से मिल रहे पांच संकेत इस प्रकार हैं : पहला : दृढ़ता। ट्रम्प के टैरिफ के बारे में पूछे जाने पर जयशंकर ने कहा कि वे अमेरिकी दलीलों से हैरान हैं। अगर इस वाक्य का अनुवाद करें तो यह इस प्रकार होगा कि अमेरिका पाखंड कर रहा है।

दूसरा : तेल की धार बनी रहेगी। ट्रम्प चाहते हैं कि भारत रूसी तेल खरीदना बंद कर दे। जबकि इसके उलट, मॉस्को और नई दिल्ली नई ऊर्जा परियोजनाओं की सम्भावनाएं टटोल रहे हैं- आर्कटिक में भी। तीसरा : व्यापार संतुलन।

ये सच है कि भारत और अमेरिका का द्विपक्षीय व्यापार बढ़कर 68 अरब डॉलर का हो गया है। लेकिन घाटा बहुत ज्यादा है, लगभग 59 अरब डॉलर का। जयशंकर चाहते हैं कि रूस भारतीय दवाइयां और कपड़े खरीदे। अमेरिका जिस पर रोक लगाता है, उसे रूस खरीद सकता है।

चौथा : रूस से हमारे रक्षा-सौदे जस के तस रहेंगे। पश्चिम के दबाव के बावजूद रूस के साथ हमारी हथियार परियोजनाएं जारी हैं। सुखोई, इंजन, अपग्रेड्स-दोनों देशों की सैन्य साझेदारी फिलहाल तो अटूट है। पांचवां : नए रास्तों की तलाश।

भारत ईरान के रास्ते से उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर और चेन्नई-व्लादिवोस्तोक लिंक को आगे बढ़ा रहा है। ये दोनों ही उपाय पश्चिमी शिपिंग लेन पर हमारी निर्भरता को कम करते हैं। पश्चिम एशिया के युद्धों में अमेरिका के अपने आईएमईसी कॉरिडोर के फंस जाने के कारण रूस वाले रूट्स वैसे भी ज्यादा व्यावहारिक लगने लगे हैं।

ये वो पटकथा है, जो ट्रम्प नहीं लिखना चाहते थे। उनके टैरिफ भारत पर दबाव डालने के लिए थे, लेकिन उन्होंने भारत को और दृढ़ बना दिया। उनकी धौंस-धमकी हमारे विकल्पों को कमजोर करने के लिए थी, लेकिन उन्होंने उन्हें और बढ़ा दिया।

जयशंकर ने मॉस्को में भारत-रूस संबंधों को ‘द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के सबसे स्थिर संबंधों में से एक’ बताया। यह अमेरिका के लिए संदेश था। भारत रणनीतिक स्वायत्तता में विश्वास करता है। हम साझेदारों पर नहीं, विकल्पों पर दांव लगाते हैं। अमेरिका हमारे लिए महत्वपूर्ण हो सकता है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि उसके बिना हमारा काम नहीं चल सकता!

भारत हमेशा ही रणनीतिक स्वायत्तता में विश्वास करता रहा है। हम साझेदारों पर नहीं, अपने विकल्पों पर दांव लगाते हैं। अमेरिका हमारे लिए महत्वपूर्ण हो सकता है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि उसके बिना हमारा काम नहीं चल सकता!

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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