AI नई चुनौती, खबरों की विश्वसनीयता के लिए भी खतरा: अरुण पुरी – Aroon Purie ficci frames 2025 journalism digital transformation credibility ai ntc

इंडिया टुडे ग्रुप के चेयरमैन और एडिटर-इन-चीफ अरुण पुरी ने FICCI फ्रेम्स 2025 को संबोधित किया. अपनी स्पीच में उन्होंने न्यूज इंडस्ट्री की मजबूती और बदलते रूप पर बात की. उन्होंने बताया कि कैसे पत्रकारिता ने डिजिटल युग में खुद को नए सिरे से ढालते हुए आगे बढ़ना सीख लिया है. अरुण पुरी ने विश्वसनीयता से लेकर कन्वर्जेंस तक के पहलुओं पर चर्चा की और कहा कि आज के दौर में पत्रकारिता का मकसद सिर्फ खबर देना नहीं, बल्कि विश्वास बनाए रखना और नए माध्यमों के साथ कदम मिलाकर चलना भी है.
यहां पढ़ें इंडिया टुडे ग्रुप के चेयरमैन और एडिटर-इन-चीफ अरुण पुरी की पूरी स्पीच:
FICCI Frames में मौजूद होना मेरे लिए सम्मान की बात है. यहां भारत के मीडिया और मनोरंजन जगत को आकार देने वाले सबसे इनफ्ल्युएंशियल माइंड्स और क्रिएटर्स मौजूद हैं. इस साल के अंत तक मुझे मीडिया के क्षेत्र में 50 साल पूरे हो जाएंगे. इन पांच दशकों में मैंने जो एक बात सीखी है, वह यह है कि बदलाव कभी रुकता नहीं. दरअसल, बदलाव ही एकमात्र स्थायी चीज है.
मैंने एक प्रिंट मैगजीन ‘इंडिया टुडे’ से शुरुआत की थी, जिसकी अपने पीक पर 50 लाख रीडरशिप थी. आज हमारे पास चार 24 घंटे चलने वाले न्यूज चैनल और 60 मजबूत डिजिटल, मोबाइल और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म हैं. आज इंडिया टुडे ग्रुप की कुल रीच 75 करोड़ व्यूअर्स, रीडर्स, फॉलोअर्स, फैंस और सब्सक्राइबर्स तक है. हमारे पास भारत की पहली AI न्यूज एंकर ‘सना’ है, जो हर दिन अपनी क्षमता में और आगे बढ़ रही है.
जैसा कि आप देख सकते हैं, हर बड़े बदलाव ने एक नया मौका दिया. मैंने इन वर्षों में बदलावों को लहरों के रूप में आते देखा है और हर लहर पिछली से ज्यादा ताकतवर रही है. हर बदलाव ने दो चीजों के लिए होड़ को और तेज किया- दर्शकों का ध्यान और विज्ञापन देने वालों का पैसा. लेकिन इन तकनीकी बदलावों के नीचे खबरों के बिजनेस मॉडल में एक बड़ी समस्या छिपी हुई है. उससे पहले, आइए मैं आपको उन ‘चमत्कारों’ के बारे में बताता हूं जो मीडिया की दुनिया में केवल भारत में देखने को मिलते हैं.
अगर संख्या के हिसाब से देखें तो हम दुनिया में नंबर वन हैं. मुझे नहीं लगता कि किसी देश में 1.40 लाख से ज़्यादा रजिस्टर्ड पब्लिकेशन्स हैं. दुनिया को छोड़िए, सिर्फ दिल्ली शहर ही रोजाना दर्जनों अंग्रेजी और उतने ही क्षेत्रीय अखबारों के साथ जागता है. यकीन मानिए, दुनिया के किसी शहर में ऐसा नहीं होता. TRAI के अनुसार, हमारे पास 900 सैटेलाइट टीवी चैनलों की अनुमति है, जिनमें से 375 से ज़्यादा 24 घंटे के न्यूज चैनल हैं. भविष्य में और भी आने वाले हैं. ऐसा कहीं और नहीं होता.
यह एक बहुत बड़ा उद्योग है, लेकिन क्या आपने कभी सोचा कि इसका खर्च कौन उठाता है? बड़े अखबार हमेशा उस चीज पर टिके रहे हैं जिसे मैं ‘रद्दी इकॉनॉमिक्स’ कहता हूं. इसीलिए अखबार की कीमत इतनी कम रखी जाती है कि हफ्ते के आखिर में जब आप उसे रद्दी में बेचते हैं, तो आपको उससे ज़्यादा पैसे मिलते हैं जितने में आपने उसे खरीदा था. यानी अखबार न सिर्फ फ्री मिलता है, बल्कि आप उस पर थोड़ा फायदा भी कमा लेते हैं. एक बार जब अखबार घर में आने लगता है, तो लोग उसे बंद नहीं करते, भले ही पढ़ना छोड़ दें.
शायद यह दुनिया का अकेला ऐसा प्रोडक्ट है जिसे लोग इस्तेमाल करना बंद कर देते हैं, लेकिन उसकी सप्लाई फिर भी जारी रहती है. इसी तरह का चलन टीवी चैनलों में भी आया. जब केबल चैनल शुरू हुए तो वितरण की व्यवस्था सीमित थी यानी केबल ऑपरेटरों के पास इतने चैनल दिखाने की क्षमता नहीं थी. नतीजा यह हुआ कि ब्रॉडकास्टर्स को अपने चैनल दिखाने के लिए केबल ऑपरेटरों को पैसे देने पड़े, जिसे कैरेज फीस कहा जाता है.
डिजिटलीकरण के बाद भी, जिसका मकसद इस समस्या को खत्म करना था, कैरेज फीस की प्रथा आज भी जारी है, क्योंकि हमारे देश में ‘मस्ट कैरी रूल’ नहीं है. इससे चैनलों की दिक्कतें खत्म नहीं हुईं, बल्कि और बढ़ गईं. TRAI के चैनलों की कीमतों पर नियंत्रण वाले नियम भी बाजार को खुलकर काम करने नहीं देते. मेरी यह समझ से परे है कि सरकार केबल टीवी को ऐसे क्यों ट्रीट करती है जैसे यह गेहूं या चावल जैसी जरूरी वस्तु हो, जिसकी कीमत पर उसे नियंत्रण रखना चाहिए.
असल में, ये नियम ब्रॉडकास्टिंग उद्योग का गला घोंट रहे हैं, जबकि यह उद्योग 17 लाख लोगों को रोजगार देता है. अगर बाजार को अपने हिसाब से चलने दिया जाए, तो यह संख्या और भी ज़्यादा हो सकती है. सच कहूं तो, सरकार ने दूरदर्शन और केबल नीतियों में दूरदर्शिता की कमी और पिछड़ी सोच के कारण इस उद्योग को उलझा दिया है. मेरा मानना है कि सरकार की भूमिका नियंत्रण करने की नहीं, बल्कि एक समान और न्यायपूर्ण माहौल बनाने की होनी चाहिए.
अब बात करते हैं समाचार के कारोबार की. असलियत यह है कि आज समाचार आम तौर पर सस्ता या मुफ्त है, और प्रकाशक या चैनल मालिक को उपभोक्ता से बहुत कम पैसा मिलता है. तो फिर सवाल उठता है कि आखिर इतनी बड़ी न्यूज इंडस्ट्री का खर्च कौन उठाता है, जिसमें 375 न्यूज चैनल हैं और कई और आने वाले हैं? ये सभी चैनल मिलकर कुल चैनलों का लगभग 40% हिस्सा बनाते हैं. जवाब है- विज्ञापनदाता.
जब पत्रकारिता का पूरा अस्तित्व कंपनियों और सरकारों से मिलने वाले विज्ञापनों पर निर्भर हो जाता है, तो उसकी स्वतंत्रता हमेशा खतरे में रहती है. हम सबने यह देखा है, जो हाथ देता है, वही छीन भी सकता है. हालांकि, मैं पूरी इंडस्ट्री को एक ही रंग से नहीं रंग रहा. विज्ञापन पर निर्भर इस मॉडल ने, तमाम मुश्किलों के बावजूद, भारत में सबसे बेहतरीन पत्रकारिता को जन्म दिया है. बोफोर्स घोटाला, 2जी स्पेक्ट्रम स्कैम, कॉमनवेल्थ गेम्स का खुलासा, कोरोना महामारी, मणिपुर की घटनाएं, यूक्रेन युद्ध, ये सब पत्रकारों ने इसी सिस्टम में रहकर उजागर किए.
लेकिन सच्चाई यह है कि असहमति के लिए जगह अब कम होती जा रही है. और इसका कारण सेंसरशिप नहीं, बल्कि बैलेंस शीट और विज्ञापन बिक्री के टारगेट हैं. अब यह समस्या एक नए रूप में सामने आई है, मैं इसे कहता हूं ‘अरबपति न्यूज़ चैनलों का दौर’. आज बड़े-बड़े उद्योगपति न्यूज के कारोबार में उतर रहे हैं, जिनके लिए यह कोई बिजनेस नहीं, बल्कि प्रभाव और पहुंच बनाने का जरिया है. उनके पास अथाह पैसा है और वे पारंपरिक चैनलों के बिजनेस मॉडल को तोड़ रहे हैं, जिससे न सिर्फ मुनाफे पर असर पड़ रहा है बल्कि पत्रकारिता की साख पर भी खतरा मंडरा रहा है.
आखिरकार, न्यूज चैनल की असली पूंजी उसकी विश्वसनीयता है और जब उद्योगपतियों की एंट्री होती है, तो जनता को लगने लगता है कि हर चैनल किसी न किसी स्वार्थ का माध्यम बन गया है. ध्यान देने वाली बात यह है कि आज 99% न्यूज चैनल घाटे में हैं. फिर भी, नए लोग इसमें उतरना चाहते हैं. यह शायद अकेला ऐसा बिजनेस है जिसमें सभी को नुकसान होता है, फिर भी लाइन लगी रहती है.
फिर आई बदलाव की नई लहर- डिजिटल का दौर. डिजिटल मीडिया हमारे पास मॉडल को सुधारने का मौका था, पाठकों से सीधे जुड़ने का मौका. लेकिन हमने वही गलती दोहराई, इस बार वैश्विक स्तर पर. हमने अपना प्रोडक्ट मुफ्त में देना शुरू कर दिया, ताकि ज्यादा से ज्यादा क्लिक और व्यूज मिल सकें. हमने ऐसा इसलिए किया क्योंकि नए गेटकीपर्स ने इसकी मांग की. गूगल, फेसबुक, यूट्यूब और ट्विटर दुनिया के नए एडिटर-इन-चीफ बन गए. वे खुद कोई पत्रकारिता नहीं करते, लेकिन समाचार के वितरण और कमाई पर पूरा नियंत्रण रखते हैं.
मुझे यह अजीब लगता है कि कानूनी रूप से उन्हें ‘पब्लिशर’ नहीं, सिर्फ ‘प्लेटफॉर्म’ माना जाता है. अगर मैं किसी और का बदनाम करने वाला बयान छापता हूं, तो मैं कानूनी तौर पर जिम्मेदार होता हूं. लेकिन प्लेटफॉर्म इसके लिए जिम्मेदार नहीं होते. असल में, ऐड रेवेन्यू के मामले में वही असली मीडिया कंपनियां हैं क्योंकि कुल मीडिया कमाई का 70% से ज्यादा हिस्सा अब उनके पास है. वे मीडिया कंपनियों का ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर खा रहे हैं और प्रकाशकों व चैनलों के हिस्से में बस टुकड़े रह गए हैं.
अब डिजिटल विज्ञापन कुल ऐड रेवेन्यू का 55% हो चुका है- टीवी और प्रिंट से बहुत आगे. उनका असली मालिक है एल्गोरिदम. एल्गोरिदम गहराई या सच्चाई को नहीं, बल्कि गुस्से, तेजी और वायरलिटी को इनाम देता है. इसने हमारे इन्फॉर्मेशन इकोसिस्टम को अटेंशन के बैटलग्राउंड में बदल दिया है, जिससे सार्वजनिक संवाद भी दूषित हो गया है. जहां पहले न्यूजरूम रिपोर्टरों में निवेश करते थे, अब SEO एक्सपर्ट्स में करते हैं. एडिटोरियल मीटिंग में अब सिर्फ इस बात की चर्चा होती है कि ‘क्या चल रहा है’ और ‘क्या जरूरी है?’
पहले मालिक विज्ञापनदाता थे, अब एल्गोरिदम मालिक है. और अब हमारे सामने अगली बड़ी लहर आई है- आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI). AI को अब सच्चाई का नया निर्णायक बताया जा रहा है. यह पांच लेखों को एक पैराग्राफ में बदल सकता है. यह सीधे जवाब दे सकता है, जिससे लोग मूल आर्टिकल पर क्लिक ही नहीं करते. तो फिर उन असली न्यूज ऑर्गनाइजेशंस का क्या होगा जो रिपोर्टर रखते हैं, मुकदमे झेलते हैं और सच्ची खबरें जनता तक पहुंचाते हैं?
जब उनका कंटेंट बिना क्रेडिट या कमाई के AI द्वारा उठाया, मिलाया और दोबारा पेश कर दिया जाता है तो यह विश्वसनीय जानकारी के अस्तित्व के लिए खतरा बन जाता है. अब सवाल यह है कि इसका हम पर और इस कमरे में बैठे लोगों पर क्या असर पड़ता है? इससे हमें एक बड़ी चुनौती मिलती है. पुराने तरीके टूट चुके हैं. नए गेटकीपर बहुत कुशल और कठोर हैं. पेशेवर रूप से बनाए गए कंटेंट की असली कीमत अब खतरे में है.
मेरे पास सारे जवाब नहीं हैं, लेकिन इतना जरूर जानता हूं- हमें अपने काम की वैल्यू करना बंद नहीं करना चाहिए. हमें सिर्फ कंटेंट में नहीं, बल्कि बिजनेस मॉडल में भी इनोवेशन लाना होगा. हमें अपने दर्शकों को यह समझाना होगा कि सच्ची और भरोसेमंद खबरें एक सार्वजनिक जरूरत हैं और हर जरूरत की तरह उनकी भी एक कीमत होती है. इन्हें हमेशा मुफ्त नहीं मिलना चाहिए.
सब्सक्रिप्शन कोई सौदा नहीं बल्कि यह एक वोट है कि आप किस तरह की मीडिया को जीवित रखना चाहते हैं. पिछले 50 सालों में मैंने असफलताएं भी देखी हैं, गलत शुरुआतें भी और कभी-कभी कुछ बड़ी सफलताएं भी.
तो आखिर में मैं यही कहना चाहता हूं कि बदलाव हमारा दुश्मन नहीं है बल्कि अब यह सामान्य बात है. असल सवाल यह है कि क्या हमारे पास इतना साहस, कल्पना, इनोवेशन, दृढ़ता और ईमानदारी है कि हम इस मौके को अपना बना सकें? आज चुनौती सिर्फ अगले बदलाव से बचने की नहीं है बल्कि ऐसा भविष्य बनाने की है, जहां हमारी पत्रकारिता सिर्फ जिंदा न रहे बल्कि और भी कीमती बने.
आखिरकार हम सब कहानीकार हैं और इंसानियत उन्हीं कहानियों से जिंदा रहती है जो हम एक-दूसरे को बताते हैं. हमें नई तकनीकों से डरना नहीं चाहिए बल्कि उन्हें सच्चाई को और असरदार तरीके से बताने के लिए इस्तेमाल करना चाहिए. इस झूठ के दौर में सच बोलना पहले से कहीं ज्यादा जरूरी है. भारत में सच का भविष्य और हमारी लोकतंत्र की सेहत इसी पर निर्भर करती है.
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