Tuesday 09/ 09/ 2025 

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Arghya Sengupta’s column – The past tells us that the script for 2025 is not new | अर्घ्य सेनगुप्ता का कॉलम: अतीत बताता है कि 2025 की पटकथा नई नहीं है

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46 मिनट पहले

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अर्घ्य सेनगुप्ता विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के संस्थापक और रिसर्च फेलो - Dainik Bhaskar

अर्घ्य सेनगुप्ता विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के संस्थापक और रिसर्च फेलो

इतिहास बताता है कि ये पहली बार नहीं है, जब अमेरिका ने भारत को दुनिया में उसकी हैसियत बताने की कोशिश की है। ट्रम्प का रवैया द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जापान के एक घटनाक्रम की याद दिलाता है। इतिहास का यह सबक विदेश नीति के लिए उपयोगी है।

टोक्यो ट्रायल्स नवंबर 1948 में समाप्त हुए थे। इनमें जापान के 7 ‘क्लास-ए युद्ध अपराधियों’ को फांसी और 16 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। ट्रिब्यूनल में शामिल भारतीय जज राधाबिनोद पाल ने कानूनी तर्कों के आधार पर असहमति दर्ज करते हुए सभी जापानी प्रतिवादियों को बरी कर दिया।

आप कल्पना कर सकते हैं कि इससे अमेरिकी नाराज हुए होंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अमेरिका जापान में अमेरिकी शैली का लोकतंत्र स्थापित करना चाहता था। पाल की असहमति ने दिखाया कि ट्रिब्यूनल स्वतंत्र है। मुकदमे में निष्पक्षता है और कानून ही सर्वोपरि है। अमेरिकियों के लिए यह पूरी तरह उपयुक्त था।

दूसरी ओर, भारत सरकार पाल के मत को लेकर संशय में थी। प्रधानमंत्री नेहरू ने इसकी आलोचना की। लेकिन जब उन्होंने देखा कि फैसले में जापान में भारत की दृश्यता बढ़ाने की संभावना है तो अपने रुख को सुधार लिया। यही कारण था कि जापान में भारतीय राजदूत बेनेगल रामा राव ने नई दिल्ली में अपने समकक्षों को इस निर्णय की खुली निंदा नहीं करने की सलाह दी।

1952 में भारतीय राजदूत रहे एमए रऊफ ने ऑन-रिकॉर्ड लिखा कि पाल के विचारों ने भारत के​ लिए सद्भावना बटोरी थी। नेहरू ने भी 14 मई 1954 को संसद में एक सवाल के जवाब में पाल के मत को विद्वत्तापूर्ण असहमति वाला फैसला करार दे दिया।

इस समय तक अमेरिकियों ने भी जापान में अपनी रणनीति बदल दी थी। जापान अमेरिकी लोकतंत्र की प्रयोगशाला नहीं रह गया था। इसे रूस और चीनी साम्यवाद के खिलाफ मजबूत गढ़ बनाना था। सैन फ्रांसिस्को संधि 1951 के अंत में हस्ताक्षरित और 1952 की शुरुआत में अनुमोदित हुई, ताकि जापान पर मित्र देशों का कब्जा समाप्त हो सके।

टोक्यो ट्रायल के मूल भागीदारों में से चीन, सोवियत संघ और भारत ने इस संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए, ना इसे अनुमोदित किया। भारत का विरोध सैद्धांतिक था कि एशिया का भविष्य अमेरिका द्वारा निर्धारित नहीं होना चाहिए, जो अपने सैन्य हितों के लिए क्षेत्र में ठिकाने बनाए रखना चाहता है। विचारों की विविधता को स्वीकारने वाले किसी भी देश के लिए सैद्धांतिक असहमति बड़े महत्व की बात नहीं थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

बदली अमेरिकी नीति के तहत तय हुआ कि जापान के सभी ‘क्लास-ए’ युद्ध अपराधियों को जेल से रिहा किया जाएगा। संधि के अनुसार, यह निर्णय उन सरकारों के बहुमत द्वारा किया जाएगा, जिनके जजों ने ट्रायल में भाग लिया था। नतीजतन, नवंबर 1952 में जापान ने कैदियों को रिहा करने के लिए भारत से सहमति मांगी। भारत ने देखा कि यह पाल के मत के अनुरूप है तो सहमति दे दी।

लेकिन मार्च 1953 में जापान ने शर्मिंदगी भरे लहजे में भारत को बताया कि उसकी सहमति मायने नहीं रखती, क्योंकि अमेरिका का मत है कि भारत ने सैन फ्रांसिस्को संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए थे, इसलिए उसको इस निर्णय से बाहर रखा जाएगा।

हालांकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था, क्योंकि भारत तो वैसे भी कैदियों की रिहाई के लिए सहमति दे चुका था। फिर भी अमेरिका एक बड़ा संदेश देना चाहता था। उसने जानबूझकर भारत को अलग-थलग किया और यह सुनिश्चित किया कि अन्य सभी मित्र देश किसी तोते की तरह अमेरिकी रुख को दोहराएं।

बात यहीं नहीं रुकी। अमेरिका और उसके सहयोगियों ने प्रस्ताव रखा कि पाकिस्तान को मताधिकार देना चाहिए। यह बेहद अजीब था, क्योंकि पाकिस्तान ने ट्रायल में भाग ही नहीं लिया था। लेकिन अमेरिकी वकीलों ने कपटपूर्ण तर्क दिया कि ट्रिब्यूनल में ब्रिटिश भारत का प्रतिनिधित्व था, इसलिए पाकिस्तान को भी इसमें भाग लेने का अधिकार है। जैसा कि मैनचेस्टर गार्डियन उस वक्त लिखा कि भारत की जगह पाकिस्तान को मताधिकार देना भारत को उकसाने की कोशिश थी।

2025 में ट्रम्प भी उसी पटकथा का अनुसरण कर रहे हैं। ट्रम्प का रवैया अप्रत्याशित हो सकता है, लेकिन भारत पर टैरिफ थोपना और पाकिस्तान की ओर उनका झुकाव अप्रत्याशित नहीं है। अमेरिकी विदेश नीति में यह आम है। भारत ने पहले 1953 और अब 2025 में इसे झेला है। हमें इससे सबक सीखने चाहिए। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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