Wednesday 10/ 09/ 2025 

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मायावती का मजबूत होना क्या सपा की टेंशन बढ़ाएगा? जानिए यूपी के दंगल में कैसे बदलेगा गणित – mayawati bsp strong comeback strategy sp akhilesh yadav political challenges ntcpkb

उत्तर प्रदेश की सियासत में चुनाव दर चुनाव कमज़ोर होती बसपा को मायावती दोबारा से मज़बूत करने की कवायद शुरू कर चुकी हैं. बसपा छोड़ चुके नेताओं की घर वापसी कराने में जुटी हैं तो अपने खिसके हुए सियासी जनाधार को वापस लाने की एक्सरसाइज शुरू कर दी है. बसपा की सियासी हुंकार का असर अब ज़मीन पर दिखना शुरू हो गया है.

मायावती ने बसपा के संस्थापक कांशीराम की परिनिर्वाण दिवस पर 9 अक्टूबर को राजधानी लखनऊ में बड़ी रैली करने का ऐलान किया है. मायावती 9 अक्टूबर को अपने समर्थकों को एकजुट कर अपनी सियासी ताकत का एहसास कराने का प्लान बना चुकी हैं. इसे बसपा के ‘मिशन 2027’ का औपचारिक आगाज़ माना जा रहा है.

बसपा इन दिनों यूपी में बिना किसी शोर-शराबे के अपने मिशन पर लगी हुई है. उसकी कोशिश पार्टी के खिसके हुए अपने बेस वोट को दोबारा वापस लाने की है. इस तरह मायावती 2027 से पहले बसपा को आत्मनिर्भर बनाने में जुटी हैं. अगर बसपा मज़बूत होती है तो यूपी का सियासी गणित बिगड़ जाएगा और सबसे ज्यादा टेंशन समाजवादी पार्टी की बढ़ाएगी.

उत्तर प्रदेश में आज कहां खड़ी बसपा?

उत्तर प्रदेश की राजनीति में बसपा अपनी वापसी की कोशिश में है. दलित समुदाय के बीच राजनीतिक चेतना जगाने वाली बसपा सूबे की सत्ता में चार बार विराजमान हुई और राष्ट्रीय पार्टी होने का खिताब भी अपने नाम किया. मायावती चार बार सीएम बनीं और 2007 में पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई, लेकिन 2012 के बाद से पार्टी का ग्राफ नीचे गिरना शुरू हुआ तो अभी तक थमा नहीं.

2022 के विधानसभा चुनाव में बसपा सिर्फ एक सीट पर सिमट गई थी तो 2024 लोकसभा चुनाव में पार्टी का खाता तक नहीं खुला. बसपा का वोट शेयर घटकर 9.39 फीसदी पर पहुंच गया. पिछले कुछ वर्षों में बसपा के कई प्रमुख नेताओं ने पार्टी छोड़ दी है. मायावती की जाटव समुदाय पर पकड़ ढीली पड़ी है और गैर-जाटव दलित पूरी तरह छिटक गया है. 2024 के चुनाव में संविधान और आरक्षण के मुद्दे के चलते बसपा का कैडर भी ‘इंडिया’ ब्लॉक के साथ चला गया.

कांशीराम ने अस्सी के दशक में दलित, अतिपिछड़ी जातियों को जोड़कर बहुजन समाज की पॉलिटिक्स खड़ी की थी, वह अब सिर्फ जाटव समुदाय तक सीमित रह गई है. इस तरह बसपा अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रही है, जिसके चलते मायावती के लिए अपने सियासी वजूद को बचाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई है.

मायावती 2027 से पहले एक्टिव हुईं

मायावती करीब दो दशक के बाद एक बार फिर बदली हुई रणनीति के साथ यूपी चुनाव मैदान में उतरने का प्लान बना चुकी हैं. मायावती वंचित वर्ग के वोटों पर पकड़ बनाने की अन्य विपक्षी दलों की कोशिशों से निपटने के लिए सक्रिय हो चुकी हैं. मायावती लखनऊ में डेरा जमाए बैठी हैं और कई कमेटियों का गठन किया है, जिन्हें समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों को बसपा के साथ जोड़ने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी.

मायावती मौके की नज़ाकत को भांप रही हैं, जिसके लिए बूथ स्तर पर संवाद जैसी रणनीतियाँ अपना रही हैं. मायावती की रणनीति पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक वोटों को एक पाले में लाने की है. बसपा के बड़े नेता और कार्यकर्ता इन दिनों गाँव-गाँव जाकर बूथ स्तर पर बैठकें कर रहे हैं. इन बैठकों में न केवल दलित वोटरों को एकजुट करने पर ज़ोर दिया जा रहा है, बल्कि अतिपिछड़ा वर्ग और मुस्लिम समुदाय के लोगों को भी पार्टी के साथ जोड़ा जा रहा है.

बसपा के प्रदेश अध्यक्ष विश्वनाथ पाल से लेकर तमाम बड़े नेता कैडर कैंप का आयोजन करने के साथ अन्य दलों के नेताओं को बसपा में शामिल करने की मुहिम में जुटे हैं. बसपा के तमाम मंडल कोऑर्डिनेटर इन दिनों अपने-अपने क्षेत्रों में बसपा की मज़बूती के लिए बैठकें कर रहे हैं और दूसरे दलों के छोटे-बड़े नेताओं को पार्टी की सदस्यता दिलाने में लगे हैं.

बसपा संस्थापक कांशीराम के परिनिर्वाण दिवस 9 अक्टूबर को ‘मिशन-2027’ की औपचारिक शुरुआत करने का फैसला लिया है. इसीलिए बसपा प्रमुख मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद के ससुर अशोक सिद्धार्थ की घर वापसी करा दी है. इससे पहले आकाश आनंद का सियासी प्रमोशन भी कर दिया है और वो सियासी तौर पर एक्टिव हो गए हैं.

बसपा का दलित-पिछड़ा-मुस्लिम फॉर्मूला

बसपा ने इस बार अपनी तैयारियों को गोपनीय और व्यवस्थित तरीके से अंजाम देने की रणनीति अपनाई है. 2024 के लोकसभा और 2022 के विधानसभा चुनावों में मिली हार के बाद मायावती ने इस बार पंचायत चुनाव को अपनी राजनीतिक ताकत को पुनर्जीवित करने के अवसर के रूप में देखा है. पार्टी ने अपनी रणनीति में बदलाव करते हुए स्थानीय स्तर पर नेताओं को सक्रिय करने और नए चेहरों को मौका देने का फैसला किया है.

मायावती की कोशिश दलित और ओबीसी के साथ मुस्लिम समीकरण बनाने की है, जिस फॉर्मूले पर अखिलेश यादव ने 2024 में बीजेपी को मात देने में सफलता पाई है. अखिलेश यादव का पीडीए (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) समीकरण 2024 में हिट रहा है. बीजेपी बनाम सपा की लड़ाई में बसपा का सफाया हो गया था. ऐसे में यूपी की दो ध्रुवीय होती राजनीति को मायावती त्रिकोणीय बनाना चाहती हैं.

बसपा की मज़बूती सपा की बढ़ाएगी टेंशन?

मायावती इन दिनों अपने उस कोर वोटबैंक को वापस लाना चाहती हैं, जो दूसरे दलों में चले गए हैं. ऐसे में माना जा रहा है कि बसपा मज़बूत होती है तो सबसे ज्यादा सियासी टेंशन सपा और कांग्रेस की बढ़ेगी. संविधान और आरक्षण के मुद्दे पर सपा-कांग्रेस के साथ आया दलित वोट दोबारा बसपा के हाथी पर सवारी कर सकता है.

वरिष्ठ पत्रकार सैयद कासिम कहते हैं कि मायावती इन दिनों अपने बेस वोट को जोड़ने पर सारा ज़ोर लगा चुकी हैं. बसपा के कैडर कैंप से लेकर छोटी-छोटी बैठकों में फोकस दलित और अतिपिछड़े वोटों को जोड़ने पर है. हाल के दिनों में बसपा में शामिल किए गए सभी नेता दलित, पिछड़े व मुस्लिम समुदाय से हैं.

वह कहते हैं कि मायावती की पूरी कोशिश उन वोटों को वापस लाने की है, जो संविधान और आरक्षण के मुद्दे पर सपा-कांग्रेस के साथ चले गए थे. मायावती मज़बूत होती हैं तो सबसे बड़ा सियासी टेंशन सपा की बढ़ेगी. इसकी वजह यह है कि दलित और गैर-यादव ओबीसी समाज का वोट सपा के साथ आया है, वो अखिलेश यादव का परंपरागत वोट नहीं है. सियासी परिस्थितियों कीजह से आया है, जो बसपा के मज़बूत होते ही दोबारा से मायावती के साथ चला जाएगा.

वहीं, सपा के प्रवक्ता मोहम्मद आज़म कहते हैं कि मायावती यूपी की सियासत में अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता खो चुकी हैं. मायावती की राजनीति से मुसलमान और ओबीसी ही नहीं बल्कि दलित समुदाय भी निराश है. बसपा के कार्यकर्ता और नेता भी कशमकश में हैं, जबकि सपा लगातार सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ रही है. दलित और ओबीसी की लड़ाई सिर्फ अखिलेश यादव लड़ रहे हैं जबकि मायावती बीजेपी से लड़ने के बजाय सपा और कांग्रेस से लड़ रही हैं.

आज़म कहते हैं कि विपक्ष की मौजूदा लड़ाई संविधान और आरक्षण बचाने की है, लेकिन मायावती उसमें साथ नहीं खड़ी हैं बल्कि बीजेपी की बी-टीम के तौर पर काम कर रही हैं. इस बात को दलित, ओबीसी और मुस्लिम समाज समझ रहा है. ऐसे में बीजेपी के खिलाफ कोई मज़बूती से ज़मीनी स्तर पर लड़ रहा है, तो वह सपा है.


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