Saturday 13/ 09/ 2025 

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Pawan K. Verma’s column – What kind of political culture are we handing over to the coming generation? | पवन के. वर्मा का कॉलम: हम कैसी राजनीतिक संस्कृति आगामी पीढ़ी को सौंप रहे हैं?

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5 घंटे पहले

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पवन के. वर्मा पूर्व राज्यसभा सांसद व राजनयिक - Dainik Bhaskar

पवन के. वर्मा पूर्व राज्यसभा सांसद व राजनयिक

बिहार में कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल की राजनीतिक रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल हमारी राष्ट्रीय राजनीति में आ रही गिरावट को ही दर्शाता है। और दु:खद यह है कि यह गिरावट अब आकस्मिक नहीं, बल्कि व्यवस्थित रूप धारण कर चुकी है।

एक समय वैचारिक प्रतिस्पर्धा का क्षेत्र रही राजनीति आज एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने का अखाड़ा बनकर रह गई है। गरिमा और शिष्टाचार को ताक पर रख दिया गया है। ऐसे में हमें ईमानदारी के साथ खुद से यह सवाल पूछना चाहिए कि एक समाज के तौर पर हम इतना नीचे कैसे गिर गए?

इस भाषाई पतन के केंद्र में एक और बड़ी व्याधि है- भारत में नित्य खोखली होती जा रही राजनीतिक संस्कृति। एक वक्त था जब देश के नेताओं की राजनीति में सौम्यता की छाप होती थी। महात्मा गांधी अपने विरोधियों को भी शालीन भाषा में पत्र लिखते थे, नेहरू और वाजपेयी गरिमा और वाकपटुता के साथ विपक्ष से संवाद करते थे। लेकिन अफसोस कि आज हम खुद को अपशब्दों से घिरा पाते हैं।

बिहार में 1990-2005 तक राजद के ‘जंगल राज’ की यादें आज भी ताजा हैं। उस दौर में कानून, व्यवस्था और नैतिक निष्ठा को सत्ता और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ा दिया गया था। आलम ये था कि शोरूम से नई-नवेली कारें जबरन झपट ली जाती थीं और लोग अंधेरा होने के बाद घर से बाहर निकलने में डरते थे।

सच्चाई यह है कि अनुकूल अवसर निर्मित होने पर तमाम राजनीतिक दलों ने इस तरह की राजनीति को न केवल अनदेखा किया है, बल्कि यदा-कदा चतुराई भरे तरीके से उसे बढ़ावा भी दिया है। 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के ठीक बाद उनकी ही एक राज्यमंत्री ने एक सार्वजनिक भाषण में ‘रामजादे’ शब्द की तुक एक अपशब्द से मिलाते हुए एक आपत्तिजनक और अक्षम्य नारा दिया था।

इससे व्यापक घृणा पैदा हुई और माना जा रहा था कि भाजपा उस मंत्री के खिलाफ मंत्रिमंडल से निकालने जैसी कड़ी कार्रवाई करेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हालांकि बाद में उन्होंने अपने शब्दों के लिए खेद जताया था। लेकिन हाल ही में एक भाजपा सांसद ने एक बार फिर लोकसभा में अल्पसंख्यक समुदाय के एक सांसद के खिलाफ अश्लील और नस्लवादी टिप्पणी कर दी। इसके बावजूद न तो स्पीकर ने उन्हें निलंबित किया, ना पार्टी ने उनके खिलाफ कोई कार्रवाई की।

दूसरे दल भी बराबर के दोषी हैं। कांग्रेस नेताओं ने भी अपने भाषणों में प्रधानमंत्री के लिए अपशब्दों का प्रयोग करते हुए ऐसी भाषा तक का इस्तेमाल किया है, जो कानून के तहत दंडनीय है। जवाब में भाजपा नेताओं ने भी उसी लहजे में जवाब देने में कोताही नहीं बरती और हमें ‘जर्सी गाय’, ‘कांग्रेस की विधवा’ और ‘50 करोड़ की गर्लफ्रेंड’ जैसी अशोभनीय बातें सार्वजनिक भाषणों में सुनने को मिलीं।

क्षणिक-उत्साह से पोषित होने वाले सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म भी इसी तरह के अपशब्दों से ग्रस्त होते चले जा रहे हैं। वहीं असंसदीय भाषा से भरी सार्वजनिक बयानबाजी अंततः मुद्दा-आधारित राजनीति से बचने का एक हथकंडा बन जाती है।

राजद-कांग्रेस के पास बिहार के लिए अपने एजेंडे में कहने के लिए कोई ठोस बात नहीं है, और ना ही भाजपा के पास है। जब प्रधानमंत्री ने माताओं के अपमान पर पीड़ा जताई तो उन्हें अपनी ‘डबल इंजन’ सरकार से भी पूछना चाहिए कि बिहार की महिलाओं के लिए क्या किया है?

आज 14 करोड़ बिहारियों में से हर तीसरा व्यक्ति गरीबी रेखा से नीचे जीवन बिताता है। कुछ दिनों पहले तक ही 60 वर्ष से अधिक उम्र की माताएं महज 400 रुपए मासिक पेंशन पाती थीं। बच्चों को पढ़ाने की चाहत रखने वाली माताओं को आज भी ऐसे हालात झेलने पड़ते हैं, जहां स्कूल खंडहर हैं और शिक्षक गैरहाजिर।

जिन बेटों को उन्होंने भूखे रह कर पाला, वे नौकरियों के अभाव में दूसरे राज्यों में पलायन करने को मजबूर हैं। अपनी मां से वो शायद साल में एक बार ही मिल पाते हैं। कुपोषण के चलते गांवों में 50 वर्ष से अधिक उम्र की अधिकांश माताओं की कमर समय से पहले ही झुक रही है। वे एनीमिया की शिकार हैं और कैल्शियम और पोषक-तत्वों की कमी से परेशान हैं।

हम अपनी आने वाली पीढ़ी को ये किस तरह की राजनीतिक संस्कृति विरासत में सौंप रहे हैं? क्या यह ऐसी संस्कृति होगी, जिसमें ताकत ही सबसे प्रबल तर्क होगा? जिसमें भाषा को हथियार बनाकर इस्तेमाल किया जाएगा? और जहां सम्मानजनक असहमति की कला अपशब्दों के कोलाहल में कहीं खो जाएगी?

क्या यह ऐसी राजनीतिक संस्कृति होगी, जिसमें ताकत ही सबसे प्रबल तर्क होगा? जिसमें भाषा को हथियार बनाकर इस्तेमाल किया जाएगा? और जहां सम्मानजनक असहमति की कला अपशब्दों के कोलाहल में कहीं खो जाएगी? (ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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