Sanjay Kumar’s column: Economy and foreign policy have now taken centre stage | संजय कुमार का कॉलम: इकोनॉमी और विदेश नीति अब केंद्रीय स्थान ले चुके हैं

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8 घंटे पहले
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संजय कुमार, प्रोफेसर व राजनीतिक टिप्पणीकार
अतीत में भारतीय राजनीति में जातिगत गठजोड़, घरेलू मुद्दे, नेतृत्व और अन्य संबंधित विषय ही चर्चा में रहते थे, लेकिन अब हम देख रहे हैं कि आम जनता आर्थिक मुद्दों और विदेशी मामलों पर भी बातचीत कर रही है। एक समय था, जब अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर चर्चा केवल विशेषज्ञों और शिक्षाविदों का ही विशेषाधिकार था। लेकिन आज ये सार्वजनिक बहस का हिस्सा बन गए हैं, जो मतदाताओं की धारणा को प्रभावित कर रहे हैं। पहले लोग मानते थे कि इन मसलों का उनके दैनिक जीवन से दूर का जुड़ाव है। लेकिन अब यह परिदृश्य काफी बदल गया है। विदेश नीति और आर्थिक मसले राजनीतिक संवाद और मीडिया कवरेज में केंद्र में आ गए हैं।
रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत के प्रबंधन को लेकर भी यह बदलाव दिखाई दिए। युद्ध जब शुरू हुआ तो हजारों भारतीय छात्र युद्धग्रस्त क्षेत्रों में फंसे थे। सरकार ने उन्हें निकालने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चलाया। इसकी तत्परता और मीडिया कवरेज ने वैश्विक संकट में भारत की निर्णायक कार्रवाई की क्षमता को उजागर किया।
इस प्रयास ने विदेश में भारतीय नागरिकों की सुरक्षा और सक्षम वैश्विक ताकत के तौर पर भारत की मान्यता को रेखांकित किया। इसने यह भी दिखाया कि विदेश नीति संबंधी निर्णय भी अब देशवासियों की भावना को प्रभावित करने और अंतरराष्ट्रीय मामलों में भारत की भूमिका को लेकर धारणा बनाने में सक्षम हैं।
कूटनीतिक मसलों में भी ऐसा ही दिखा। प्रधानमंत्री मोदी की ट्रम्प और दुनिया के अन्य नेताओं से हुई मुलाकातों को भारत में करीब से देखा गया और व्यापक रूप से प्रचारित किया गया। इन मुलाकातों से कूटनीति, व्यापार-वार्ताएं और राजनीतिक संकेत भी जुड़े होते हैं। इसने भारत की छवि को वैश्विक एजेंडा बनाने के भागीदार के तौर पर पेश किया और घरेलू चर्चाओं में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रति नागरिकों को जागरूक किया।
आर्थिक नीति इस विकास का एक महत्वपूर्ण घटक रही है। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में व्यापार हमेशा से ही संवेदनशील मसला रहा है। ट्रम्प टैरिफ के चलते इन संबंधों में तनाव देखा गया। टैरिफ से आए आर्थिक दबाव को कम करने के लिए तत्काल घरेलू बदलाव जरूरी हो गए। ऐसे में प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस भाषण में जीएसटी सुधारों की घोषणा की। इसमें प्रमुख वस्तुओं को लक्षित किया गया, ताकि टैरिफ के प्रभाव को कम और घरेलू खपत को प्रोत्साहित किया जा सके।
ये कदम उत्पादक और उपभोक्ता, दोनों को ध्यान में रखकर उठाए गए थे। आवश्यक वस्तुओं पर कर भार कम करने के इन बदलावों का उद्देश्य अमेरिकी टैरिफ के कारण घटी निर्यात की प्रतिस्पर्धात्मकता को सुधारना था। व्यापक मंशा यह थी कि घरेलू अर्थव्यवस्था को सुरक्षा मिले और वैश्विक व्यापार विवादों से पैदा हुई महंगाई उपभोक्ताओं को प्रभावित ना कर पाए।
इन घरेलू आर्थिक कदमों के साथ ही भारत ने रूस और चीन जैसी प्रमुख वैश्विक शक्तियों के साथ कूटनीतिक जुड़ाव भी आगे बढ़ाया। इनमें से हर रिश्ते की अपनी चुनौतियां और अवसर हैं। लंबे समय से रूस के साथ भारत के रक्षा और ऊर्जा संबंध रहे हैं।
जबकि, रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता और पारस्परिक आर्थिक निर्भरता मिले-जुले रूप से चीन से हमारे संबंधों को परिभाषित करती हैं। इन उतार-चढ़ावों को प्रबंधित करने के लिए पारंपरिक साझेदारियों और नई भू-राजनीतिक हकीकतों के अनुकूल होने के बीच संतुलन जरूरी होता है।
इस सब में जो महत्वपूर्ण बात सामने आती है, वह सिर्फ सरकार की कार्रवाई ही नहीं, बल्कि जनता का इन मुद्दों से जुड़ाव का तरीका भी है। टैरिफ, व्यापार समझौतों और कूटनीति की चर्चाएं तेजी से राजनीतिक रैलियों, टीवी बहसों और रोजमर्रा की बातचीत में शामिल हो रही हैं।
विपक्षी दल भी अपने प्रचार अभियानों में अंतरराष्ट्रीय मामलों और आर्थिक कदमों को शामिल करने लगे हैं। यह बताता है कि ये विषय मतदाताओं से सरोकार रखते हैं। कुल मिलाकर नीतिगत प्रभावों को लेकर जागरूकता पहले की बजाय आज अधिक व्यापक है।
विदेश और आर्थिक नीति की व्यापक दृश्यता शासन को लेकर धारणा बनाने की तरीकों में बदलाव को बताती है। पहले इन क्षेत्रों को तकनीकी मसलों के तौर पर लिया जाता था, लेकिन अब इन्हें राष्ट्रीय गौरव और आर्थिक कल्याण का अभिन्न अंग समझा जाता है।
जब टैरिफ विवाद से कीमतें ऊंची-नीची हों या जीएसटी सुधारों से जरूरी चीजों के दाम कम हों, आम भारतीय परिवारों पर सीधे इनका असर होता है। ऐसे ही, अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में दखल को भी अब आम जनता दुनिया में भारत की हैसियत से जोड़कर देखती है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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