संघ के 100 साल: कैसे गांधी भक्त महिला ने खड़ा कर दिया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समानांतर संगठन – rss 100 years history laxmikant kelkar gandhi follower women wing ntcpsm

पहले नाम बदला, फिर सामाजिक पदनाम. वो भी एक की जगह दो-दो. पत्नी बनते ही मां भी बन गईं. उनका नाम बचपन से कमल ही था, लेकिन विदर्भ में उन दिनों विवाह के बाद नाम बदलने की परम्परा थी. सो ससुराल वालों ने उनका नाम कमल से लक्ष्मी कर दिया, लक्ष्मीबाई केलकर.
वो बेटी से केवल पत्नी ही नहीं बनीं, विवाह होते ही दो लड़कियों की मां भी बन गईं. उनके पति की पहली पत्नी से दो बेटियां थीं. कभी उन्होंने सोचा भी नहीं था कि दूसरी मां की बेटियों को संभालते हुए, उन्हें कभी देश भर की लाखों बेटियों की मां बनने का भी मौका मिलेगा. आज देश के करोड़ों परिवारों के बीच उन्हें ‘मौसीजी’ के नाम से याद किया जाता है.
उनके तेवर शुरू से ही आम लड़कियों से अलग थे. देश, समाज व संस्कृति के लिए लड़कों की तरह ही कुछ करने की धुन उनके मन में सवार रहती थी. तभी तो मिशनरी स्कूल में नन से प्रार्थना की एक लाइन को लेकर भिड़ गईं और स्कूल छोड़ दिया. जब एक हिंदू बालिका विद्यालय खुला, तब उसमें पढ़ने गईं. हालांकि ज्यादा नहीं पढ़ पाईं. उनको देश व समाज के लिए कुछ करने की विरासत भी अपनी ताई व मां यशोदा बाई से मिली. उनकी ताई लोगों की सेवा करने में काफी आगे रहती थीं.
उनके पिता भास्कर राव दाते सरकारी कर्मचारी थे. उन दिनों सरकारी कर्मचारियों के तमाम अखबार, किताबें, साहित्य पढ़ने पर प्रतिबंध था. इसलिए मां यशोदाबाई अपने नाम से तिलक का अखबार ‘केसरी’ खरीदती थीं और उन्हें आस पड़ोस की महिलाओं को पढ़कर सुनाती थीं. ये भी रोजना का एक कार्यक्रम जैसा था— स्टूल पर लोकमान्य तिलक की फ्रेम में जड़ी एक तस्वीर रखी जाती थी, अगरबत्तियां भी लगाई जातीं और तब वो देश की बड़ी खबरें, राष्ट्रवादी लेख पढ़कर सुनातीं.
कमल का राष्ट्रबोध इस तरह घर से ही जागृत होने लगा था. उन दिनों लड़कियों का विवाह जल्दी हो जाता था, इधर कमल का संकल्प था कि उनके विवाह में दहेज नहीं दिया जाएगा. 14 साल की उम्र में ही 1919 में उनका विवाह, वर्धा के एक प्रतिष्ठित वकील पुरुषोत्तम राव केलकर से हो गया.
गांधीजी के लिए दे दिया गले का हार और राम के लिए जीवन
शादी के बाद वो 6 पुत्रों की मां भी बनीं, लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था. 27 साल की उम्र में ही वो विधवा हो गईं. 8 संतानें, एक विधवा ननद और बड़ी सम्पत्ति की देखभाल केवल उनको करनी थी. ऐसे में उन्होंने कुछ हिस्से किराए पर देकर सबसे पहले आर्थिक प्रबंधन किया. लेकिन इससे पहले ही उनकी गांधीजी में आस्था बढ़ने लगी थी.
वर्धा में, 1924 में गांधीजी की एक बड़ी सभा हुई थी. गांधीजी ने सहयोग का आह्वान किया तो उन्होंने सोने का हार ही दान में दे दिया. उन्होंने पति की मृत्यु के बाद भी वर्धा आश्रम में प्रवचन, प्रार्थनाओं में जाना बंद नहीं किया. गांधीजी ने प्रवचन में कहा था कि महिला को सीता मां और सावित्री जैसा होना चाहिए, लक्ष्मी ने ये बात मन में गांठ बांध ली. फिर रामायण, भागवत आदि का अध्ययन शुरू कर दिया. रामायण पर लिखे कई और ग्रंथ पढ़ डाले, और इतना पढ़ा कि एक दिन खुद का, 13 दिन का, राष्ट्रीय दृष्टिकोण से रामायण पर प्रवचन शुरू किया. ऐसे 108 प्रवचन उन्होंने किए, जिन्हें आज ‘पथदर्शिनी श्रीराम कथा’ में सहेजा गया है. इन रामकथाओं के जरिए उनको जो धनराशि मिली, उससे समिति का कार्यालय भी बनवाया.
उन्हें दो चिंताएं उस वक्त और थीं कि उन दिनों महिला अत्याचारों की घटनाओं पर कैसे रोकथाम लगे? और उनकी पढ़ाई का प्रबंध कैसे हो? खुद लक्ष्मी, डॉ. हेडगेवार की तरह ही शारीरिक सक्षमता को बहुत ध्यान देती थीं इसलिए खुद तैराकी, साइक्लिंग आदि सीखने पर ध्यान दिया. ऐसे में बेटी वत्सला की पढ़ाई में रुचि देखकर उन्होंने अपनी देवरानी को लड़कियों का स्कूल खोलने के लिए प्रोत्साहित किया. केसरीमल बालिका विद्यालय के तौर पर वर्धा में ये स्कूल मिसाल बन गया. उसकी शिक्षिकाओं के रहने का प्रबंध उन्होंने अपने घर पर किया था. शिक्षा के क्षेत्र में उनके नाम कई उपलब्धियां हैं.
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जब लक्ष्मी की जिद के आगे झुक गए डॉ हेडगेवार
इसी बीच नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चर्चाएं होने लगी थीं. उनके बेटे मनोहर, पद्माकर औऱ दिनकर ने शाखा में जाना शुरू कर दिया. एक दिन तीनों ने उनसे दंड (लाठी) के लिए पैसे मांगे तो पूछा क्या करोगे? किसी से लड़ाई हो गई है? तब उन्होंने बताया कि संघ की शाखा में आत्मरक्षा सिखाई जाती है. वो लगातार ये गौर कर रही थीं कि उनके बेटों में शाखा में जाने के बाद से ही कुछ अच्छे परिवर्तन दिखने लगे हैं— जल्दी उठ जाते हैं, अनुशासन में दिखते हैं, देश की समस्याओं पर चिंता भी करते हैं, पढ़ाई भी करते हैं आदि.
एक दिन मनोहर ने उन्हें बताया कि आज देर से घर आऊंगा क्योंकि सरसंघचालक डॉ हेडगेवार जी आ रहे हैं, सभी के अभिभावकों को बुलाया है, देर लगेगी. लक्ष्मी केलकर ने पूछा कि मुझे क्यों नहीं बुलाया? तो मनोहर ने कहा, महिलाओं को नहीं बुलाया है. लक्ष्मीजी को ये अच्छा नहीं लगा. उन दिनों वो स्वामी विवेकानंद को पढ़ रही थीं, जिन्होंने कहा था कि महिला और पुरुष एक चिड़ियां के दो पंख जैसे हैं. राष्ट्र की समस्याओं को दूर करने के लिए दोनों को बराबर योगदान देना होगा.
उन्होंने तय कर लिया कि डॉ हेडगेवार जी से मिलना है. खुद उन्होंने एक इंटरव्यू में इस मुलाकात के बारे में बताया कि कैसे वर्धा में अप्पाजी जोशी के घर, डॉ हेडगेवार से वो पहली बार मिलीं और उनसे पूछा कि ये आदर्शवाद और प्रशिक्षण आप महिलाओं को क्यों नहीं देते? जवाब मिला कि अभी तक इस बारे में सोचा नहीं. दरअसल, अखाड़ों की चर्चा से शुरू हुआ संघ अभी तक अपने मूल स्वरूप को ही विस्तार देने में लगा था. तब लक्ष्मीजी ने पूछा कि अगर आपकी अनुमति हो तो ये प्रशिक्षण मैं अपने बेटों से लेकर नगर की बाकी महिलाओं को दे सकती हूं? डॉ हेडगेवार उस समय तक इस प्रस्ताव के लिए तैयार नहीं थे. लेकिन लक्ष्मीजी के प्रबल आग्रह को देखकर उन्होंने कहा, ‘अगर आप महिलाओं के कार्य की पूरी जिम्मेदारी लेने के तैयार हैं, तो अप्पाजी जोशी आपकी सहायता कर सकते हैं’.
उस वक्त दिए गए डॉ हेडगेवार के एक बयान की बड़ी चर्चा होती है कि “दोनों संगठन इस तरह से काम करेंगे जैसे रेल की पटरियां होती हैं. यानी समानांतर, एक ही उद्देश्य के लिए और साथ-साथ काम करेंगे. आपस में सलाह करेंगे लेकिन मिलेंगे नहीं, ताकि महिला संगठन की स्वतंत्रता बनी रहे”. दोनों की तीन चार बैठकें और हुईं और संघ स्थापना के 11 साल बाद 1936 में विजयदशमी के दिन ही 25 अक्तूबर को ये नया संगठन अस्तित्व में आया राष्ट्र सेविका समिति. संघ का शायद सबसे पुराना सहयोगी संगठन, जो आज भारत में महिलाओं का सबसे बड़ा संगठन है.
उन दिनों के असुरक्षित माहौल में, अपने छोटे बच्चे को साथ में लिए लक्ष्मी केलकर कैसे छोटे-छोटे शहरों में जाकर महिलाओं से सम्पर्क करती थीं. उनके लिए स्वास्थ्य शिविर, योग शिविर और देश-समाज की चर्चाओं के शिविर आयोजित करती थीं, ये सोच पाना भी मुश्किल है. बेटे मनोहर ने साइकिल सिखाई तो साइकिल पर ही अलग अलग शाखाओं में जाने लगीं, 35 साल की उम्र में उन्होंने अंग्रेजी सीखी.
शुरुआत में भाषण देने में हिचकती थीं तो उनका लिखा हुआ वेणुताई कमलाकर पढ़कर सुनाती थीं और एक दिन ऐसा आया कि वो 13 दिन तक रामायण के प्रवचन करने लगीं. मां सीता के अलावा तीन महिलाओं को उन्होंने महिलाओं की प्रेरणा बनाया— जीजाबाई, अहिल्याबाई और झांसी रानी लक्ष्मीबाई. तिलक के गणेशोत्सव की तरह लक्ष्मीजी ने भी महिलाओं के बीच देवी अष्टभुजा की पूजा का चलन बढ़ाया.
कराची की कहानी लोग भूलते नहीं
विभाजन के दौरान पाकिस्तान से आईं सैकड़ों हिंदू महिलाओं को लक्ष्मी की सहायता की कहानियां संघ कैडर में सालों से सुनाई जा रही हैं कि कैसे आजादी से ठीक 2 दिन पहले वो मर्दों से भरे विमान में केवल वेणुताई के साथ बंबई से कराची पहुंचीं, पूरी यात्रा के दौरान नारे लगते रहे कि ”लड़कर लिया है पाकिस्तान, हंसकर लेंगे हिंदुस्ता”. लेकिन वो डरी नहीं, उस रात कराची में 1200 स्वयंसेविकाओं ने उनकी बैठक में भाग लिया. सबको लक्ष्मीजी ने ढाढ़स बंधाया और भारत में आने पर उनके लिए क्या-क्या सहायता उनके संगठन की तरफ से मिलेगी, ये बताया और ऐसा किया भी.
हालांकि, महिलाओं का संगठन खड़ा करना उन दिनों अंग्रेजी राज में आसान नहीं था, फिर भी 9 साल के ही अंदर उन्होंने इसे राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाकर 1945 में पहला राष्ट्रीय अधिवेशन बम्बई में किया. उनका आखिरी अधिवेशन भाग्यनगर (हैदराबाद) में, 1978 में था. इस तरह उन्हें संघ के तीन-तीन सरसंघचालकों के साथ काम करने का मौका मिला. समिति में उन्होंने कई परम्पराएं शुरू कीं, जो आज भी जारी हैं. जैसे गुड़ी पड़वा के दिन भगवा फहराना, वंदेमातरम को मां की प्रार्थना बताकर गायन के समय हाथ जोड़ने की परम्परा शुरू करना. घर में एक राष्ट्रीय कोना बनाना तथा दिन में एक बार उस कोने में जाकर राष्ट्र का चिंतन करना. महिलाओं को अष्टभुजा मां की मूर्ति के जरिए उनकी ताकत और गुणों का अहसास करवाना आदि.
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