Kaushik Basu’s column: The world cannot function without mutual cooperation among countries | कौशिक बसु का कॉलम: देशों में आपसी सहयोग के बिना दुनिया चल नहीं सकेगी

- Hindi News
- Opinion
- Kaushik Basu’s Column: The World Cannot Function Without Mutual Cooperation Among Countries
5 घंटे पहले
- कॉपी लिंक

कौशिक बसु विश्व बैंक के पूर्व चीफ इकोनॉमिस्ट
ये कठिन समय है। एक तरफ असमानता बढ़ रही है, वहीं कई देशों के राजनेता गरीबों को लाभ पहुंचाने वाले कार्यक्रमों और सेवाओं में कटौती कर रहे हैं। साथ ही वे प्रवासियों और शरणार्थियों के खिलाफ भय और क्रोध को भी भड़का रहे हैं।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा, समृद्धि को बढ़ाना और नागरिकों की सुरक्षा के उनके कथित नेक इरादे खुद को और अपने धनी साथियों को समृद्ध बनाने के एजेंडे के लिए एक छद्म आवरण मात्र होते हैं। राजनीति के व्यवहार में आई इस गिरावट के कई कारण हैं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण कारणों में से एक अर्थशास्त्र के व्यवहार में आई गिरावट है।
अर्थशास्त्र को अकसर एक वैज्ञानिक प्रणाली बताया जाता है। लेकिन वैज्ञानिक निष्कर्ष भी हमारे मूल्यों और निर्णयों को प्रभावित करते हैं और वैज्ञानिक निष्पक्षता के दावों का इस्तेमाल हमारी नैतिक संवेदनाओं को ठेस पहुंचाने वाले कार्यों को जायज ठहराने के लिए किया जा सकता है।
वास्तव में, मुख्यधारा के अर्थशास्त्र- विशेष रूप से लंबे समय से प्रचलित नव-उदारवादी विचारधारा, जो विकास, दक्षता, मुक्त बाजार पर जोर देती है- ने लालच, शोषण और विषमता को न केवल उचित ठहराया है, बल्कि प्रोत्साहित भी किया है।
नोबेल विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के ‘कैपेबिलिटी एप्रोच’ पर आधारित 2012 के एक अध्ययन में पाया गया था कि शिक्षा लोगों को अधिक केयरिंग और मददगार बनाने में मदद करती है, लेकिन जिस तरह से अर्थशास्त्र पढ़ाया जाता है, यह स्वार्थ को एक सामान्य या वांछनीय नैतिक सिद्धांत के रूप में बढ़ावा दे सकता है।
एक अन्य नोबेल विजेता अर्थशास्त्री केनेथ एरो ने कहा था, बाजार तब तक काम नहीं कर सकते, जब तक प्रतिस्पर्धी फर्म और व्यक्ति भी अपने पारस्परिक दायित्वों का सम्मान न करें। दूसरे शब्दों में, वे विश्वास और सहयोग पर निर्भर हैं। एरो ने मुख्यधारा के अर्थशास्त्र की उस प्रवृत्ति को भी चुनौती दी, जिसमें स्वतंत्रता और समानता को विरोधाभासी माना जाता है।
नव-उदारवादी तर्क यह है कि किसी भी मात्रा में असमानता स्वाभाविक है और इसे कम करने का कोई भी हस्तक्षेप स्वतंत्रता को नष्ट करता है। लेकिन कई संदर्भों में स्वतंत्रता और समानता लगभग एक जैसी है। समानता को कमजोर करने वाले कार्य- जैसे हड़ताल या आर्थिक दबाव के अधिक सूक्ष्म रूप- श्रमिकों की स्वतंत्रता को भी काफी सीमित करते हैं।
वहीं एक छोटे-से कुलीन वर्ग द्वारा अर्थव्यवस्था का दोहन यह दर्शाता है कि औपचारिक लोकतंत्र और स्वतंत्रता एक छद्म है। अंततः, एरो ने लिखा, जो संस्थाएं घोर असमानताओं को जन्म देती हैं, वे मनुष्यों की समानतापूर्ण गरिमा का अपमान हैं।
दार्शनिक इसाया बर्लिन ने इसका सार प्रस्तुत करते हुए कहा था- भेड़ियों की स्वतंत्रता का अर्थ अकसर भेड़ों की मृत्यु रहा है। यह चेतावनी आज विशेष रूप से दूरदर्शी है, जब न्यस्त स्वार्थों के पास अपने चुने हुए राजनेताओं और उद्देश्यों की ओर आकर्षित करने के लिए अपार संसाधन हैं, साथ ही जनमत को प्रभावित करने के लिए अभूतपूर्व डिजिटल उपकरण भी हैं। जैसा कि एक अन्य नोबेल विजेता अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिग्लिट्ज ने कहा है, एक व्यक्ति, एक वोट के सिद्धांत की जगह एक डॉलर, एक वोट ने ले ली है।
लेकिन आर्थिक स्वार्थ तो समस्या का केवल एक पहलू है। उग्र राष्ट्रवाद भी बढ़ती असमानता में योगदान दे रहा है। एक समय था जब राष्ट्र-राज्य आर्थिक जीवन को व्यवस्थित करने के लिए एक महत्वपूर्ण संस्था थी। प्रगति को बढ़ावा देने में राष्ट्रीय गौरव की भूमिका होती थी। लेकिन अब सामूहिक लक्ष्यों पर वैश्विक सहयोग का समय है- एक-दूसरे के लिए लाभकारी व्यापार-व्यवस्थाओं से न्यायसंगत और समावेशी जलवायु-कार्रवाई तक। बाजारों की तरह बहुपक्षीय कार्रवाइयां भी परस्पर विश्वास और सहयोग पर निर्भर करती हैं।
आपसी सहयोग में विश्वास को मजबूत करके, अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन और अंतरराष्ट्रीय न्यायालय जैसे बहुपक्षीय संगठन दुनिया के देशों को अपने बलबूते हासिल की जा सकने वाली उपलब्धियों से कहीं ज्यादा हासिल करने में मदद कर सकते हैं। लेकिन इन जैसी संस्थाओं को मजबूत करने के लिए हमें अपनी नैतिक दिशा को फिर से जांचना होगा। केवल स्वार्थ पर ध्यान केंद्रित करने को तर्कसंगत मानने या अपनी करुणा को केवल उन लोगों तक सीमित रखने के बजाय- जो हमारे जैसे दिखते, बोलते या प्रार्थना करते हैं- हमें मानवता को अधिक महत्व देना चाहिए।
एक समय था जब राष्ट्र-राज्य आर्थिक जीवन को व्यवस्थित करने के लिए एक महत्वपूर्ण संस्था थी। प्रगति को बढ़ावा देने में भी राष्ट्रीय गौरव की अहम भूमिका होती थी। लेकिन अब सामूहिक लक्ष्यों पर वैश्विक सहयोग का समय है। (© प्रोजेक्ट सिंडिकेट)
Source link