Shekhar Gupta’s column: Business is the new way to demonstrate power | शेखर गुप्ता का कॉलम: ताकत दिखाने का नया जरिया है कारोबार

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3 घंटे पहले
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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’
तीन एशियाई देशों के दौरे पर निकलने से पहले ट्रम्प ने पोस्ट किया कि परमाणु परीक्षण फिर से शुरू किए जाएं ताकि अमेरिका चीन और रूस की बराबरी कर सके। लेकिन चीन परमाणु परीक्षणों से कहां डरने वाला है! इसलिए ज्यादा संभावना यही थी कि ट्रम्प पलटेंगे; और उन्होंने यही किया। वास्तव में ट्रम्प को दुनिया के बड़े हिस्से से आयात करने की अपनी ताकत का एहसास हो गया है।
अगर चीन निर्यात करने वाला सुपरपावर है, तो अमेरिका आयात करने वाली महाशक्ति। ट्रम्प ने इस बोझ को अपनी पूंजी बना लिया है। अगर चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, वियतनाम निर्यातक शक्तियां हैं, तो उन्हें अपना सरप्लस कहां से मिलता है? आप भारत का नाम जोड़ सकते हैं।
ट्रम्प कह रहे हैं कि मुझे मालूम है तुम सबके लिए ये सरप्लस कितनी अहमियत रखते हैं, इसलिए मुझे आयातक होने का फायदा हासिल है। उनकी 30 ट्रिलियन डॉलर वाली अर्थव्यवस्था दुनिया के सभी बड़े देशों में सबसे बड़े व्यापार घाटे वाली अर्थव्यवस्था है और ट्रम्प की दुनिया इसे ही अपनी ताकत मानती है।
तो उनके परमाणु परीक्षण वाले पोस्ट को अटपटा क्यों कहेंगे? इसलिए कि उन्हें समझ में आ गया कि चीन उन्हें पटखनी देने की कोशिश कर रहा है। क्योंकि इस समीकरण में चीन के पास विक्रेता की ताकत भी है और खरीदार की भी। विक्रेता के रूप में उसके पास बेहद अहम खनिज हैं।
खरीदार के रूप में वह अमेरिकी सोयाबीन और मक्के का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। चीन और ट्रम्प दोनों को मालूम है कि चीन पर दंड के रूप में टैरिफ नहीं थोपे जा सकते। इसलिए ट्रम्प तुरंत पलटे, और क्वालालम्पुर के लिए एयर फोर्स वन पर सवार होते हुए उन्होंने ‘जी-2’ की घोषणा कर डाली।
भारत में हम इस मामले को समझने से इनकार कर देते हैं। हमारा कुल व्यापार इतना छोटा है कि हमारे पास इस रणनीतिक सिक्के की ताकत कम ही है। अमेरिका को हम जेनरिक दवाइयों को छोड़ ऐसा कुछ नहीं बेचते, जिसके बिना उसका काम न चल सके। लेकिन खरीदार वाली जिस अहम ताकत का हम इस्तेमाल कर सकते थे, उसका भी इस्तेमाल करने से डरते हैं।
हम चीन से सबक सीख सकते हैं। चीन अगर अमेरिका से आयात के मुकाबले 300 अरब डॉलर मूल्य के बराबर का ज्यादा निर्यात कर रहा है तो आप समझ सकते हैं कि खरीदार के रूप में वह उसके मुकाबले कितना ताकतवर है।
दुनिया में सुअरों की कुल आबादी के 50 फीसदी को चीन पाल रहा है। वहां पोर्क और टोफू खाने वालों की आबादी 1.4 अरब है। वह विशाल मात्रा में सोयाबीन का उपभोग और आयात करता है। सुअरों की खुराक में प्रोटीन सोयाबीन से और कैलरी मक्के से मिलती है।
अमेरिका मक्के का सबसे बड़ा उत्पादक है और वह सोयाबीन का सबसे ज्यादा उत्पादन करने वाले देशों में भी शामिल है। अमेरिकी आबादी में किसानों का अनुपात मात्र 1 फीसदी है, लेकिन वे काफी ताकतवर हैं।
गौर कीजिए कि ट्रम्प ने सोयाबीन का सौदा होने के बाद कितनी खुशी जाहिर की थी। उन्होंने किसानों को खूब जमीन और बड़े ट्रैक्टर खरीदने की सलाह दी और इसे कृषि का स्वर्णयुग (गोल्डन एज) घोषित किया।
जबकि शी ने बस इतना संकेत किया कि वे दूसरे देशों से भी कृषि उत्पाद खरीद सकते हैं और ट्रम्प ने फौरन पलटी खाई। भारत में हमारी बहस अभी 20वीं सदी के मध्य वाले दौर में अटकी है, विज्ञान को हम 19वीं सदी वाले चश्मे से देख रहे हैं।
जबकि चीन को कहीं से सोयाबीन खरीदने से कोई दिक्कत नहीं है, चाहे वह ‘जीएम’ वाला ही क्यों न हो। चीन बहुत प्रगतिशील है। चार साल पहले उसने जीएम सोयाबीन की खेती शुरू की और हर साल उसके खेतों का क्षेत्रफल बढ़ता जा रहा है। चीन इस समय हमसे चार गुना ज्यादा कपास का उत्पादन कर रहा है। हमारा उत्पादन घटा है क्योंकि हमारे बीज का बायोटेक 2008 वाले स्तर पर ही ठिठका है।
चीन ने दिखाया है कि अगर आपके पास विक्रेता वाली ताकत है, तब आप क्या कर सकते हैं और जब आपके पास खरीदार वाली ताकत है, तब क्या हासिल कर सकते हैं। जिन देशों के पास यह नहीं है, वे अपमानजनक और शोषणपूर्ण दादागिरी का सामना कर रहे हैं।
मेक्सिको अमेरिका के साथ सिर्फ इसलिए अमन कायम कर सका, क्योंकि उसने सीमा पार से भारी मात्रा में मक्का खरीदना शुरू कर दिया। हमने ट्रम्प का कुछ सोयाबीन खरीदकर उन्हें थोड़ी और अहमियत देने का मौका गंवा दिया।
हम हर साल 18 अरब डॉलर का खाद्य तेल आयात करते हैं। इसमें ज्यादा मात्रा सोयाबीन तेल की होती है। हमें मवेशियों के लिए चारे आदि की भी जरूरत होती है। अगर हम अपने मवेशियों को यह सोयाबीन न भी खिलाना चाहें, तो भी इसका तेल निकालकर इसका निर्यात कर सकते थे।
ऐसा ही मक्के और इथेनॉल के मामले में भी किया जा सकता था। हम मक्के और इथेनॉल का आयात करते ही रहते हैं। लेकिन घरेलू लॉबी, खासकर स्वदेशी वालों को नाराज नहीं किया जा सकता। ये तब है, जब जीएम बीजों के मामले में सरकार का रुख सकारात्मक और कुछ रहस्यपूर्ण भी है, जैसा कि देश में विकसित जीएम सरसों के परीक्षण के समर्थन में दायर उसके हलफनामे से जाहिर है।
यह ऐसा मामला है, जिसमें सुपरपावर माने गए देशों के रिश्ते इस बात से तय होते हैं कि आप मेरा मक्का खरीदते हैं या नहीं। भारतीय मुर्गा पालन उद्योग मक्के की बढ़ती कीमत का रोना रो रहा है। उसे चारे की कमी का सामना करना पड़ रहा है। लेकिन ऐसा न होता अगर हमने दो अरब डॉलर मूल्य के अमेरिकी सोयाबीन और मक्के को, जो ट्रम्प के लिए परेशानी के सबब हैं, खरीदने की पेशकश की होती।
व्यापार के मामले में हम संरक्षणवाद को खारिज करें 1991 में भारत ने जो अवसर बनाया था, उसमें बदली हुई भू-राजनीति ने अपना दखल दे दिया है। उस समय भुगतान संतुलन को लेकर संकट था। आज भी भारत अगर व्यापार के मामले में संरक्षणवाद को खारिज नहीं करता तो उसे उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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