Abhay Kumar Dubey’s column: The Grand Alliance is eyeing the extremely backward caste votes. | अभय कुमार दुबे का कॉलम: अति पिछड़ा वोटों पर टिकी हुई है महागठबंधन की नजर

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5 घंटे पहले
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अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर
बिहार में महागठबंधन के घोषणा-पत्र की संरचना अपने चरित्र में राज्य तक सीमित न होकर राष्ट्रीय प्रभाव वाली है। इसे देखकर उस अति पिछड़ा संकल्प-पत्र की याद आती है, जिसे सदाकत आश्रम के मंच से उस समय महागठबंधन के नेताओं ने जारी किया था, जब वहां कांग्रेस कार्यसमिति का अधिवेशन चल रहा था।
वोटर अधिकार यात्रा के दौरान ही राहुल वादा कर चुके थे कि इस बार महागठबंधन की पार्टियां अलग-अलग घोषणा-पत्र जारी न करके एक संयुक्त कार्यक्रम के साथ मैदान में उतरेंगी। ये दोनों पहलू मिलकर इस घोषणा-पत्र को आने वाले समय में गैर-भाजपाई विपक्ष की राजनीति का नेशनल टेम्पलेट बना देते हैं।
इस पर राहुल के सोच-विचार और हाल ही में विकसित हुए उनके सामाजिक न्यायवादी रुझानों की छाप स्पष्ट नजर आती है। हो सकता है यही नेशनल टेम्पलेट 2027 में यूपी चुनावों में और 2029 में लोकसभा चुनावों के दौरान देखने के लिए मिले।
घोषणा-पत्र में उन दस प्रमुख वादों को भी देखा जा सकता है, जो अति पिछड़ा संकल्प पत्र में भी प्रमुखता से मौजूद थे। ये दस वादे अति पिछड़ी बिरादरियों के एक अहम हिस्से को सामाजिक न्याय की राजनीति की मुख्यधारा में ला सकते हैं।
अभी तक अति पिछड़े मोटे तौर पर महागठबंधन से दूर ही रहते रहे हैं। उनकी हमदर्दियां नीतीश के साथ मानी जाती हैं। 14% से ज्यादा यादवों और 17% से ज्यादा मुसलमानों के निष्ठावान जनाधार के साथ अगर 35% से ज्यादा अति पिछड़े समाज के 15-20% वोट भी जुड़ जाएं तो महागठबंधन सत्तारूढ़ एनडीए को कड़ी चुनौती दे सकेगा।
अगर ऐसा नहीं हुआ, तो अच्छा चुनाव लड़ने और सम्मानजनक सीटें हासिल करने के बावजूद तेजस्वी सीएम की कुर्सी से पहले की ही तरह दूर रह जाएंगे। केवल यादवों और मुसलमानों के दम पर वे बहुमत नहीं प्राप्त कर सकते।
प्रश्न यह है कि अगर महागठबंधन बहुमत प्राप्त नहीं कर पाया तो क्या इस घोषणा-पत्र की राष्ट्रीय संभावनाएं बुझ जाएंगी? इस घोषणा-पत्र को केवल बिहार को ध्यान में रखकर तैयार नहीं किया गया है। अति पिछड़ों की जितनी जरूरत बिहार में राजद को है, उससे ज्यादा यूपी में सपा को है।
राहुल और अखिलेश वहां पहले से ही इसी पैटर्न पर राजनीति कर रहे हैं। मैं समझता हूं कि बिहार और यूपी की यादव-मुसलमान जनाधार वाली पार्टियों के युवक नेताओं को राहुल ने किसी तरह से समझा दिया है कि उन्हें अब अपनी सीमाओं को लांघकर सामाजिक न्याय की राजनीति का विस्तार करना चाहिए।
ऐसा करके वे बिहार में लालू की सफलता के उस शुरुआती दौर में लौट सकते हैं, जब वे केवल यादव नेता नहीं थे। इसी तरह ऐसा करके वे यूपी में मुलायम के उस स्वर्णकाल को भी वापिस ला सकते हैं, जब अखिलेश के पिता समस्त पिछड़े वर्ग के नेता के रूप में देखे जाते थे।
बिहार और यूपी में मिलाकर लोकसभा की 120 सीटें हैं। दिल्ली की सत्ता पर कब्जे की कुंजी इन्हीं दोनों प्रांतों में निहित है। व्यावहारिक रूप से कहें तो यह कुंजी अति पिछड़ी बिरादरियों के हाथ में है। अगड़ी जातियां फिलहाल भाजपा के प्रति अपनी निष्ठा छोड़ने के मूड में नहीं लग रही हैं।
भाजपा भी उन्हें खुले हाथ सत्ता में हिस्सेदारी देती दिखाई दे रही है। इसका उदाहरण बिहार में उसके टिकट-वितरण में देखा जा सकता है। भाजपा ने अपने हिस्से में आई सीटों में से 49% टिकट ब्राह्मणों, भूमिहारों, कायस्थों, राजपूतों और बनियों को दिए हैं। अति पिछड़े वोटों की गोलबंदी उसने अभी भी नीतीश को सौंप रखी है।
लोकसभा चुनाव में यूपी में भी भाजपा का रुझान ऊंची जातियों की तरफ ही था। यह एक ऐसी स्थिति है, जो बिहार के महागठबंधन और यूपी के पीडीए (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) के लिए अति पिछड़ों में सेंध लगाने की गुंजाइश खोलती है। इस गुंजाइश को सबसे पहले राहुल ने पहचाना है। उन्हें लग रहा है कि अगर यूपी और बिहार की ये दोनों पार्टियां एनडीए के वोटों में से कुछ अति पिछड़े वोट निकाल पाईं तो भाजपा के पराभव की जमीन तैयार हो जाएगी।
अगड़ी जातियां फिलहाल भाजपा के प्रति अपनी निष्ठा छोड़ने के मूड में नहीं लग रही हैं। अति पिछड़े वोटों की गोलबंदी उसने नीतीश को सौंप रखी है। यह स्थिति बिहार के महागठबंधन और यूपी के पीडीए के लिए अति पिछड़ों में सेंध लगाने की गुंजाइश खोलती है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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