Nanditesh Nilay’s column: May the bond of trust between the public and the officials always remain intact. | नंदितेश निलय का कॉलम: आमजन और अधिकारियों के बीच विश्वास की डोर हमेशा बनी रहे

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9 घंटे पहले
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नंदितेश निलय वक्ता, एथिक्स प्रशिक्षक एवं लेखक
हम हर वर्ष सतर्कता सप्ताह मनाते हैं। इस साल भी इसे हाल ही में मनाया गया। लेकिन सवाल है कि सतर्कता सप्ताह के बाद क्या? कौन किसको याद दिलाएगा कि क्या सही है और क्या नहीं है? किस तरह का व्यवहार नैतिक आचरण के अनुरूप है और क्या नहीं?
क्योंकि विजिलेंस वीक का दायरा भले ही ज्यादातर सरकारी संस्थाओं तक ही नजर आता हो, उसका प्रभाव हर उस नागरिक पर पड़ता है, जो उन अधिकारियों के सामने आता है- कभी लाभार्थी, कभी फरियादी, कभी आम दर्शक, कभी श्रोता, कभी नागरिक बनकर… तो कभी आशा का यह दीप लिए कि “कलेक्टर साहब हैं, तो सब कुछ ठीक हो जाएगा!’
और ऐसा हुआ भी, जब केंद्र सरकार के जल-जीवन मिशन के कार्यान्वयन के दौरान उन आईएएस अधिकारी को मालूम पड़ा कि उनकी पोस्टिंग के जिले मिर्जापुर के पहाड़ी गांव (लहुरिया दाह) में सात दशकों से पानी नहीं पहुंचा है। इतना जानते ही उन्होंने हर वो प्रयास किया, जो गांव वालों के विश्वास और प्यास के करीब था।
वे अपनी नैतिक निर्णय-प्रक्रिया में नहीं चूकीं और हर घर में पानी पहुंचाकर ही मानीं। और उधर उन आईएएस अधिकारी का क्या कहना, जिन्होंने अपने पूरे स्टाफ को 20 मिनट के लिए सिर्फ इसलिए खड़ा कर दिया क्योंकि एक सीनियर सिटीजन को बेवजह इंतजार कराया गया था।
वे अपनी टीम को समझाना चाहते थे कि किसी नागरिक या वरिष्ठ नागरिक को अनावश्यक इंतजार कराना उचित नहीं होता। सभी को समय का पाबंद होना चाहिए और सीनियर सिटीजन के प्रति खास सहानुभूति भी रखनी चाहिए।
ऐसे तो हमारे देश में बहुत से ऐसे लोकसेवक हैं, जो हर पल अपने आप को उस सतर्कता-भाव में रखते हैं। वह भाव उनसे नीतिगत फैसले करवाता है और मूल्यों को साधन बनाकर चलने की प्रेरणा भी देता है। लेकिन जब कोई उससे चूकता है, तो मानो वह विश्वास भी कमजोर पड़ने लगता है। फिर वह व्यक्ति या अधिकारी आदर्श, सिस्टम और व्यावहारिकता के बीच खुद को उलझा पाता है और वह सतर्क-मन कुछ बोझिल-सा हो जाता है।
ऐसे में हमें याद रखना चाहिए कि जिस तरह से सत्ता, नैतिकता को प्रभावित करती है, उसी तरह नैतिकता भी सत्ता की सीमाएं तय करती है। और दोनों समाज को और सामाजिक व्यवहार को एक नई दिशा देते हैं और जनता को यह यकीन भी कि मूल्यों के साथ जिया जा सकता है। जाने-अनजाने भी हमसे कुछ गलत न हो जाए- ऐसा भाव सिर्फ उन मूल्यों से आता है, जो हमारे अंदर उस नैतिकता को व्यवहार का हिस्सा बनाते हैं।
आज भी कई बार लोग डॉक्टर, शिक्षक, वकील, अफसर या अनजान लोगों से भी बात करने में झिझक महसूस करते हैं। यह झिझक क्यों है? यह प्रश्न भी तो सतर्कता सप्ताह अपने लोकसेवकों से पूछता है? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह आम आदमी अपने को थोड़ा कमतर आंकता है?
ऐसे में आवश्यक है कि विजिलेंस वीक के बाद भी तमाम सिविल सर्वेंट्स अपने उन मूल्यों के सहारे नागरिकों को यकीन देते रहें कि एक कलेक्टर, डॉक्टर, पुलिस अधिकारी की ताकत वह आम नागरिक ही है। अगर कोई अधिकारी समस्या का समाधान करने, आत्मविश्वास और भरोसा बढ़ाने, सबको साथ लेकर चलने को बढ़ावा देने, बिना किसी भेदभाव के रहने, शांति और सकारात्मकता के साथ लोगों की सेवा करने में सफल होता है तो वही अनवरत विजिल है, सतर्कता है।
और तब विजिलेंस वीक सिर्फ ब्यूरोक्रेसी का ही हिस्सा नहीं होगा। लगातार मूल्यों से जुड़े रहने और एथिक्स के रास्ते पर चलने का भाव हमें अहंकार और श्रेष्ठता-बोध से दूर और सतर्क रहने की सलाह भी देता है और दूसरों की खुशी, परेशानी और योग्यता को समझने का सच्चा मन भी। (ये लेखक के निजी विचार हैं)
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