Tuesday 02/ 12/ 2025 

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Ashutosh Varshney’s column: A lot is at stake in the Bihar elections | आशुतोष वार्ष्णेय का कॉलम: बहुत कुछ दांव पर है बिहार के चुनावों में

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5 घंटे पहले

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आशुतोष वार्ष्णेय ब्राउन यूनिवर्सिटी, अमेरिका में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर - Dainik Bhaskar

आशुतोष वार्ष्णेय ब्राउन यूनिवर्सिटी, अमेरिका में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर

बिहार का ऐतिहासिक और समकालीन महत्व जगजाहिर है। आमतौर पर चुनावी चर्चाओं में समकालीन मुद्दे ही हावी रहते हैं। बिहार की अर्थव्यवस्था की खराब स्थिति पर लगभग हमेशा चर्चा होती है, लेकिन इस प्रक्रिया में हम अक्सर बिहार के गौरवशाली अतीत के कुछ चमकदार पहलुओं को भूल जाते हैं।

शायद बिहार के इतिहास का सबसे प्रसिद्ध हिस्सा यह है कि बुद्ध को 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व में बोधगया में ज्ञान प्राप्त हुआ था। बौद्ध धर्म एशिया के कई हिस्सों- चीन, जापान, कोरिया, इंडोनेशिया, थाईलैंड और श्रीलंका में फैल गया और एक विश्व-धर्म के रूप में स्थापित हुआ।

हालांकि भारत में इसका प्रभाव समय के साथ कम होता गया। दो अन्य ऐतिहासिक पहलू भी उल्लेखनीय हैं। डेविड स्टैसेवेज ने अपनी किताब द डिक्लाइन एंड राइज ऑफ डेमोक्रेसी में लिखा है कि प्राचीन भारत के गणराज्य लोकतंत्र के शुरुआती उदाहरण थे, यूनान और मेसोपोटामिया के साथ। ये गणराज्य बिहार के ‘संघ’ कहलाते थे। यह सच है कि बिहार लोकतंत्र की जननी है।

दूसरा, आज भले ही बिहार की प्रति व्यक्ति आय भारत में सबसे कम में से एक है और इस पर अकसर चर्चा होती है, लेकिन प्राचीन काल में ऐसा नहीं था। गरीब राज्य या गरीब गणराज्य विश्व-प्रसिद्ध विश्वविद्यालय नहीं बनाते।

5वीं शताब्दी में गुप्त साम्राज्य ने बिहार में नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की थी, जो ऑक्सफोर्ड से 500 साल पहले और इटली के बोलोन्या विश्वविद्यालय (यूरोप के सबसे पुराने विश्वविद्यालय) से पहले की है। यह कोई साधारण उपलब्धि नहीं है।

जहां तक बिहार के आधुनिक इतिहास की बात है, तो ब्रिटिश शासन को देशव्यापी असहयोग आंदोलनों से हिलाने से पहले गांधी ने सबसे पहले बिहार के चंपारण में 1917 में एक छोटे स्तर पर सत्याग्रह का प्रयोग किया था। यह उनके दक्षिण अफ्रीका के आंदोलनों जैसा ही था। इस तरह, बिहार को भारत में गांधीवादी सत्याग्रह का जन्मस्थान कहा जा सकता है।

गुजरात के खेड़ा का आंदोलन बाद में हुआ था। इसके अलावा, जयप्रकाश नारायण का जन्म भी बिहार में हुआ था। 1970 के दशक की शुरुआत में उन्होंने इंदिरा के शासन के खिलाफ एक शक्तिशाली आंदोलन का नेतृत्व किया।

1977 में जब आपातकाल समाप्त हुआ और इंदिरा चुनाव हार गईं, तब वे दिल्ली में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के गठन में अहम भूमिका में थे। आंतरिक मतभेदों के कारण वह सरकार अधिक समय तक नहीं चल सकी, लेकिन उसने भारत के लोकतंत्र को अधिक मजबूत और जीवंत बनाया।

अब हम बिहार की दो और आधुनिक विशेषताओं की ओर आते हैं, जो इन चुनावों से गहराई से जुड़ी हैं। यह कम ही नोट किया जाता है कि हिंदी भाषी उत्तर भारत में बिहार ही एकमात्र राज्य है, जहां भाजपा कभी अपने दम पर सत्ता में नहीं आई है।

उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा में भाजपा का हिंदू राष्ट्रवाद मंडल की जाति राजनीति पर हावी हो गया। लेकिन बिहार में पिछड़ी जातियों की राजनीति इतनी गहराई से जमी हुई है कि हिंदू राष्ट्रवाद अब तक केवल उसके साथ गठबंधन बनाकर ही आगे बढ़ सका है।

इतिहास के अनुसार, पिछड़ी जातियों को सशक्त बनाने वाली मंडल-शैली की राजनीति सबसे पहले दक्षिण भारत में, खासकर पुरानी मद्रास प्रेसीडेंसी में, 1910 के दशक के अंत में शुरू हुई थी। लेकिन उत्तर भारत में इस तरह की राजनीति को उभरने में पांच-छह दशक और लग गए। और इसका जन्मस्थान बिहार था।

बिहार में मंडल राजनीति के नेता कर्पूरी ठाकुर थे। 1978 में मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने ओबीसी आरक्षण नीति लागू की थी, जो एससी और एसटी को दिए आरक्षण से अलग थी। इसे सरकारी नौकरियों में 26% आरक्षण मॉडल कहा गया।

यह योजना मुख्य रूप से, हालांकि पूरी तरह नहीं, ओबीसी को नौकरियों में आरक्षण देकर आगे बढ़ाने के लिए थी। कर्पूरी ठाकुर को लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार दोनों का गुरु माना जाता है। दूसरे शब्दों में, ठाकुर की राजनीति उनके मुख्यमंत्री कार्यकाल के बाद भी जारी रही। बल्कि, लालू और नीतीश के शासन के दौरान- जो साढ़े तीन दशकों से अधिक समय तक फैला है- यह राजनीति संस्थागत रूप ले चुकी है।

जहां भाजपा ने यूपी में मंडल राजनीति की पकड़ तोड़ दी, वहीं वह बिहार में ऐसा नहीं कर पाई है। वास्तव में, जनवरी 2024 में कर्पूरी ठाकुर को मरणोपरांत भारत रत्न देना मंडल राजनीति के साथ साझेदारी बढ़ाने का प्रयास था। इसका उद्देश्य आंशिक रूप से नीतीश के साथ गठबंधन मजबूत करना था, और आंशिक रूप से यह दिखाना कि भाजपा सिर्फ ऊंची जातियों की पार्टी नहीं है, वह ओबीसी की भी परवाह करती है।

साथ ही, बिहार पहला राज्य है, जहां चुनाव आयोग ने मतदाता सूची को शुद्ध करने की कोशिश की है। ईसी और केंद्र के इस तर्क से असहमति नहीं जताई जा सकती कि वैध नागरिकों को ही वोट देने का अधिकार है। लेकिन असल में, एसआईआर एक ऐसे अभियान में बदल गया है जो उन समुदायों के वोटिंग अधिकारों को खत्म करने या बहुत सीमित करने की कोशिश करता है, जो सत्ता में बैठे नेताओं के खिलाफ वोट डाल सकते हैं।

यह दुनिया भर में लोकतांत्रिक गिरावट से सीधे तौर पर जुड़ा मामला है। यह गिरावट तब शुरू होती है, जब कार्यपालिका स्वतंत्र संस्थाओं- अदालतों, चुनाव आयोगों, खुफिया एजेंसियों, कर विभागों, केंद्रीय बैंकों, मीडिया और विश्वविद्यालयों- की शक्ति और स्वायत्तता को सीमित करने लगती है। जबकि लोकतंत्र में इनका काम कार्यपालिका की शक्ति को बढ़ाना नहीं, बल्कि उसे सीमित करना होता है।

मंडल राजनीति के साथ साझेदारी बढ़ाने के प्रयास कर्पूरी ठाकुर ने ओबीसी आरक्षण नीति लागू की थी, जो एससी और एसटी को दिए आरक्षण से अलग थी। लालू और नीतीश के शासन के दौरान इसने संस्थागत रूप लिया। केंद्र ने भी उन्हें भारत रत्न देकर मंडल राजनीति के साथ साझेदारी बढ़ाने का प्रयास किया। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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