N. Raghuraman’s column: Why are some old habits relevant in modern times of distrust? | एन. रघुरामन का कॉलम: अविश्वास भरे आधुनिक दौर में क्यों कुछ पुरानी आदतें प्रासंगिक हैं?

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53 मिनट पहले
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
आज जब हम फाइलिंग के बारे में सोचते हैं तो दिमाग में डिजिटल फाइल्स और फोल्डर्स ही आते हैं। सोचिए, पहले लोग कैसे रसीदों, बिलों और पत्रों को संभालकर रखते होंगे। जब तक आप सोचें, मैं आज के दौर की कहानी सुनाता हूं, जो पुराने दस्तावेज और फोटोग्राफ्स पर आधारित है।
यह संघर्ष 2023 में शुरू हुआ। सैमसंग इंडिया इलेक्ट्रॉनिक्स में काम करने वाले 44 वर्षीय संदीप पई अपने नियोक्ता के जरिए जारी ग्रुप फैमिली मेडिक्लेम मास्टर पॉलिसी के तहत कवर्ड थे। सालाना रिन्यू होने वाली पॉलिसी में कर्मचारियों और आश्रितों को 4 लाख रुपए तक का बीमा कवरेज मिलता था। बशर्ते, सामान्य एक्सक्लूजन, सीमाएं, नियम-शर्तें और वेतन से प्रीमियम कटौती का पालन किया जाए।
उसी साल उनके 15 साल के बेटे मुकुंद को पैरों में सुन्नपन के कारण स्थानीय अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। पता चला कि सर्जरी करनी पड़ेगी, क्योंकि उसे बाइलैटरल इक्विनोकैवोवेरस डिफॉर्मिटी है- यानी एड़ी का जोड़ लचीला नहीं है और पंजे का ऊपर उठना (डॉर्सिफ्लेक्शन) बहुत सीमित है।
इसे इक्विनस कहते हैं। इसमें करीब 2.8 लाख रुपए का खर्च आया। बीमा कंपनी ने कैशलेस उपचार और पुनर्भुगतान, दोनों दावे खारिज कर दिए। कारण बताया कि यह जन्मजात बीमारी है, जो पॉलिसी में कवर नहीं होती।
पई ने तर्क दिया कि सर्जरी हाल में विकसित हुई डिफॉर्मिटी सही करने के लिए थी। जन्मजात नहीं थी और बीमाकर्ता का तर्क निराधार है। परेशान होकर उन्होंने दिसंबर 2023 में कानूनी नोटिस भेजा, जिसका संतोषजनक जवाब नहीं आया। फिर अगस्त 2024 में पई ने जिला उपभोक्ता फोरम में शिकायत की।
बीमाकर्ताओं ने माना कि कैशलेस उपचार के लिए प्री-ऑथराइजेशन रिक्वेस्ट मिली थी। रिक्वेस्ट और पुनर्भुगतान के दावे पर पॉलिसी शर्तों के अनुसार विचार किया गया था। लेकिन दस्तावेज देखने के बाद कंपनी ने निष्कर्ष निकाला कि यह ‘एक्सटर्नल कंजेनाइटल डिफेक्ट (जन्मजात)’ है- यानी एक ऐसी श्रेणी, जो पॉलिसी के तहत कवरेज से बाहर है। जबकि दस्तावेजों की जांच के बाद आयोग ने आदेश दिया कि कंपनी सेवा में कमी की दोषी है। उसने वैध दावे को महज तकनीकी आधार पर खारिज कर दिया।
आयोग ने कहा कि ‘यह साबित करने का दायित्व पूरी तरह बीमाकर्ता पर था कि बच्चे की समस्या जन्मजात थी।’ अपने दावे के समर्थन में कंपनी मेडिकल एक्सपर्ट भी पेश नहीं कर पाई। आयोग ने अस्पताल के उस पत्र को सही माना, जिसमें स्पष्ट था कि मुकुंद की पैर की डिफॉर्मिटी जन्मजात नहीं है और 7 साल की उम्र में प्रकट हुई। पई ने मुकुंद की बचपन की तस्वीरें पेश कीं, जिनमें उनका बेटा स्वस्थ दिख रहा था। तस्वीरों ने उनका दावा मजबूत किया।
जब कोई दावा पेश होता है तो कुछ बीमाकर्ता गहन जांच शुरू कर देते हैं। ग्राहक गलत हुआ तो कंपनियां उसे ‘फ्रॉड’ बता कर पॉलिसी रद्द और दावा खारिज कर देती हैं। लेकिन अगर बीमाकर्ता गलती करता है तो ग्राहक को दावा साबित करने के लिए लालफीताशाही से जूझना पड़ता है।
इसीलिए मैंने पूछा था कि आपके दादा-दादी अपनी रसीदें, बिल, जरूरी कागजात, फोटोग्राफ्स (जो तब बहुत कम होते थे) और पत्रों तक को कैसे संदर्भ के लिए दशकों तक संभालकर रखते थे। ऊपर दिए गए केस में पई बेटे की बचपन की तस्वीरों से दावा साबित कर पाए।
मैं यह नहीं कह रहा कि आप 20 साल पुराने बिजली के बिलों समेत हर चीज को बक्से में भरकर रखें। लेकिन आज के अविश्वास भरे युग में कुछ पुराने कागजों को संभालकर रखना तयशुदा तौर पर आपके दावे को मजबूती देगा। हर साल का, हर चीज का- कम से कम एक ओरिजिनल बिल संभालकर रखें। बच्चा जब तक बालिग ना हो जाए, उसके इलाज के सभी पर्चे भी रखें।
फंडा यह है कि आज पहले की तरह हर कागज को लोहे के कांटे पर फंसा कर रखने जैसा फाइलिंग सिस्टम अनिवार्य नहीं है, लेकिन अपने हितों की रक्षा के लिए कुछ हद तक पुराने कागजातों की देखभाल जरूरी है।
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