Monday 01/ 12/ 2025 

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Sanjay Kumar’s column – What was the reason for higher voting in Bihar this time? | संजय कुमार का कॉलम: इस बार बिहार में ज्यादा वोटिंग का क्या कारण था?

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5 घंटे पहले

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संजय कुमार, प्रोफेसर व राजनीतिक टिप्पणीकार - Dainik Bhaskar

संजय कुमार, प्रोफेसर व राजनीतिक टिप्पणीकार

2020 की तुलना में इस बार बिहार में 10% ज्यादा वोटिंग हुई है। यह बढ़ा हुआ मतदान क्या दर्शाता है? क्या अधिक मतदान सत्ता-विरोधी लहर का संकेत है या सत्ता-समर्थक लहर का? इसने एक और बुनियादी सवाल भी उठाया है कि बढ़े हुए मतदान में किसका योगदान है? इस दूसरे प्रश्न का उत्तर देना कुछ आसान है, लेकिन पहले प्रश्न का उत्तर देना आसान नहीं।

सभी दल दावा कर रहे हैं कि बढ़ा हुआ मतदान उनके फायदे में जाता है। लेकिन बिहार और अन्य राज्यों में चुनावों के नतीजे बताते हैं कि मतदान और चुनावी नतीजों के बीच शायद ही कोई संबंध है। ऐसे चुनाव भी हुए हैं, जब मतदान-प्रतिशत पिछले चुनाव की तुलना में कम हुआ, लेकिन सरकारें बदलीं भी और दोबारा भी चुनी गईं।

2020 तक विभिन्न राज्यों में हुए लगभग 332 विधानसभा चुनावों के विश्लेषण से पता चलता है कि 188 चुनावों में मतदान-प्रतिशत बढ़ा था। इनमें 89 सरकारें दोबारा चुनी गईं। इसी तरह, 144 बार मतदान-प्रतिशत घटा है और इनमें 56 सरकारें दोबारा चुनी गईं। स्पष्ट रूप से, मतदान-प्रतिशत और चुनावी नतीजों के बीच कोई मजबूत संबंध नहीं है।

इसकी तुलना में यह कहना थोड़ा आसान है कि बिहार में ज्यादा वोटिंग में किसकी भूमिका रही। सबसे पहली और महत्वपूर्ण बात यह है कि बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण के परिणामस्वरूप उन मतदाताओं के नाम हटा दिए गए, जो या तो मृत हैं या स्थायी रूप से दूर जा बसे थे।

ऐसे नामों को हटाने से मतदान में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। इसका कारण यह है कि मृतक या विस्थापित मतदाताओं के नाम मतदाता सूची में बने रहते हैं, जबकि वो वोट नहीं डालते। इससे मतदान-प्रतिशत घट जाता है।

लेकिन इस बार बिहार में अधिक वोटिंग केवल मतदाता-सूची की सफाई के कारण ही नहीं है। मतदान के दिन बिहार में बड़ी संख्या में प्रवासी मतदाताओं की उपस्थिति- जो आमतौर पर चुनाव के समय बिहार से बाहर होते हैं- ने भी मतदान में वृद्धि में योगदान दिया है।

यह ध्यान रखना जरूरी है कि बिहारियों का सबसे पवित्र त्योहार छठ पूजा चुनाव से कुछ दिन पहले ही समाप्त हुआ था। कई मतदाता जो इस अवसर पर अपने मूल निवास स्थान आए थे, उन्होंने छठ के बाद भी वोट डालने के लिए यहीं रुकने का फैसला किया होगा। राज्य से बाहर रहने वाले बिहारियों का बड़ी संख्या में छठ पूजा मनाने के लिए अपने मूल गांव, कस्बे या शहर आना कोई असामान्य बात नहीं है।

लेकिन हमें उस राजनीतिक फैक्टर को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए, जिसने मतदान में वृद्धि में योगदान दिया है। यह है इस बार के चुनावी मुकाबले की प्रकृति। एक ऐसा राज्य- जहां बड़ी संख्या में राजनीतिक दल हैं- वहां 1995 के विधानसभा चुनावों के बाद से ही लगभग द्विध्रुवीय मुकाबला देखा गया है।

इसमें अधिकांश छोटे क्षेत्रीय दल एक तरफ राजद और कांग्रेस और दूसरी ओर भाजपा और जद(यू) के नेतृत्व में गठबंधन बनाते हैं। हालांकि इस गठबंधन-पैटर्न में कुछ अपवाद भी रहे हैं, जब पार्टियों ने गठबंधन बदले हैं। लेकिन बिहार में इस बार ऐसी धारणा बनाई गई कि यह ऐसा चुनाव है, जो त्रिकोणीय मुकाबले की ओर बढ़ रहा है।

इस चुनाव में, प्रशांत किशोर के नेतृत्व में एक नए राजनीतिक दल जन सुराज के प्रवेश ने बड़ी संख्या में मतदाताओं को उत्साहित किया है। यह ध्यान रखना जरूरी है कि बिहार में लगभग 25% मतदाता गैर-दलित हैं, जिन्होंने पिछले कुछ चुनावों में न तो एनडीए को और न ही महागठबंधन को वोट दिया है।

ऐसा लगता है कि इनमें से कुछ मतदाताओं ने पिछले चुनावों की तुलना में इस बार ज्यादा दिलचस्पी दिखाई होगी, जिसके चलते वोटिंग के दिन मतदान-केंद्रों पर लंबी कतारें लगी रहीं। विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा की गई जबर्दस्त जाति-आधारित लामबंदी ने भी मतदान-प्रतिशत में वृद्धि में योगदान दिया होगा। अगले कुछ दिनों तक हममें से कई लोग अटकलें लगाते रहेंगे, अपनी-अपनी व्याख्याएं देते रहेंगे, लेकिन 14 नवंबर के नतीजे ही सच्चाई का पता लगाने में हमारी मदद करेंगे।

बिहार में लगभग 25% मतदाता गैर-दलित हैं, जिन्होंने पिछले कुछ विधानसभा चुनावों में न तो एनडीए और न ही महागठबंधन को वोट दिया था। ऐसा लगता है कि इनमें से कुछ मतदाताओं ने पिछले चुनावों की तुलना में इस बार ज्यादा दिलचस्पी दिखाई है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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