Palki Sharma’s column – India is now moving towards leadership of the ‘Global South’ | पलकी शर्मा का कॉलम: भारत अब ‘ग्लोबल साउथ’ के नेतृत्व की ओर बढ़ रहा है

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7 दिन पहले
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पलकी शर्मा मैनेजिंग एडिटर FirstPost
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही घाना, त्रिनिदाद एंड टोबेगो, अर्जेंटीना, ब्राजील और नामीबिया की आठ दिनों की उल्लेखनीय यात्रा पूरी की। यह सिर्फ कूटनीतिक मैराथन ही नहीं थी, बल्कि भारत के इरादों की स्पष्ट घोषणा भी थी। वैश्विक बदलावों और महाशक्तियों की प्रतिस्पर्धा के इस युग में भारत ग्लोबल साउथ के नेतृत्व की ओर बढ़ रहा है।
कई द्विपक्षीय बैठकें, ब्रिक्स सम्मेलन में सहभागिता और चार राष्ट्रीय सम्मान- मोदी की यह यात्रा कई मायनों में प्रभावी रही है। लेकिन इसमें एक और बड़ी कहानी निहित है। यह रणनीतिक महत्वकांक्षाओं, भू-राजनीतिक संदेशों और वैश्विक मंच पर भारत की भूमिका का कथानक है।
1. एक ऐसी दुनिया में जिसमें अकसर आतंकवाद के पीड़ितों और प्रायोजकों में भेद नहीं किया जाता, मोदी ने स्पष्ट संदेश दिया। बिना किसी का नाम लिए उन्होंने आतंकवाद पर राजनीति नहीं करने पर जोर दिया। यह पाकिस्तान पर परोक्ष किंतु अचूक निशाना था। उन्होंने एक बार नहीं, बल्कि हर सार्वजनिक संबोधन में इसे बार-बार दोहराया। यह ऑपरेशन सिंदूर के बाद मोदी की यह दूसरी बड़ी विदेश यात्रा भी थी, जिसने आतंकवाद के खिलाफ समर्थन जुटाने के लिए भारत को अंतरराष्ट्रीय मंच प्रदान किया।
2. भारत लीथियम, रेयर अर्थ और तांबे जैसे महत्वपूर्ण खनिजों को लेकर चीन पर अत्यधिक निर्भर रहा है। ऐसे में जबकि चीन व्यापार को हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है, यह निर्भरता कम करना जरूरी है। यहीं पर घाना और नामीबिया हमारे लिए जरूरी हो जाते हैं। घाना में हीरा, मैंगनीज और लीथियम के भंडार हैं। नामीबिया में यूरेनियम, तांबा और सोना हैं। दोनों ही देशों में मोदी ने बड़े सहयोग की बात कही है, खासतौर पर हीरे के क्षेत्र में। यह ऐसी नई आपूर्ति शृंखला रणनीति की ओर बढ़ाया गया कदम है, जिसमें खनिज सुरक्षा भी है और जो चीन पर हमारी निर्भरता भी कम करती है।
3. इस दौरे का एक और महत्वपूर्ण उद्देश्य विकासशील देशों में भारत के नेतृत्व को मजबूत करना था। अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका में मौजूद इन देशों का एक साझा औपनिवेशिक अतीत है और अकसर इनकी गिनती आर्थिक विषमता और वैश्विक स्तर पर कम प्रतिनिधित्व वाले देशों में होती है। मोदी ने इसी साझा इतिहास की ओर संकेत करते हुए वैश्विक संस्थानों में सुधार पर जोर दिया। उन्होंने सिर्फ भू-राजनीतिक ही नहीं, बल्कि सभ्यतागत सहानुभूति के आधार पर भी एकजुटता की बात कही। स्वयं अपने एक औपनिवेशिक इतिहास के कारण भारत यह बहुत अच्छी तरह से कर सकता है।
4. ब्रिक्स में भारत की भूमिका को अकसर सावधानी के चश्मे से देखा जाता है। चीन और रूस जहां वैश्विक व्यवस्था में पूरी तरह से उलटफेर चाहते हैं, वहीं भारत अंदरूनी सुधारों की वकालत करता है। इस समिट में मोदी सिर्फ इसलिए ही प्रभावी नहीं रहे, क्योंकि वहां पुतिन और शी जिनपिंग गैर-मौजूद थे, बल्कि इसलिए कि उन्होंने कुशल स्टेट्समैन की भूमिका निभाई। दुनिया में ध्रुवीकरण में भारत एक बीच का रास्ता बना रहा है, जो सुधारवादी है, किंतु क्रांतिकारी नहीं। सहयोगात्मक है, लड़ाकू नहीं। यह रास्ता कठिन जरूर है, लेकिन यह भारत को पूर्व और पश्चिम के बीच में संतुलन का एक पुल बनने की क्षमता भी दे सकता है।
5. ग्लोबल साउथ में भारतवंशी समुदाय हमारी विदेश नीति का एक बड़ा उपकरण बना रहा है। घाना से लेकर त्रिनिदाद और टोबेगो तक- जहां भारतीय मूल के लोगों की आबादी 40 प्रतिशत तक है- मोदी ने स्थानीय समुदायों को प्रतीकात्मक और नीतिगत दोनों तरीकों से जोड़ा। डायस्पोरा-फर्स्ट का यह रवैया लोगों से जीवंत सम्पर्क को राज्य की एक नीति बना देता है।
इन देशों का चयन भी सूझबूझ से किया गया था। इनमें से अधिकतर देशों में किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने दशकों से दौरा नहीं किया है। घाना में 30 वर्ष और अर्जेंटीना में 57 वर्ष से हमारे कोई पीएम नहीं गए थे। चीन पहले ही अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी देशों में से अधिकतर को कर्ज देकर वहां घुसपैठ कर चुका है। भारत चीन के निवेश की बराबरी तो नहीं कर सकता, पर उन्हें टिकाऊ विकल्प जरूर दे सकता है। एक ऐसा सहयोगी, जो बदले में वफादारी की मांग नहीं करता।
जैसा कि यात्रा के दौरान मोदी ने कहा, ग्लोबल साउथ अब संघर्षशील अर्थव्यवस्थाओं का समूह नहीं रहा। इसके देश युवा और संसाधन-संपन्न हैं, जो संयुक्त राष्ट्र का दो-तिहाई हिस्सा हैं। जहां उनकी अपनी कोई संगठित आवाज नहीं है, वहां भारत उन्हें नेतृत्व दे रहा है- फिर चाहे वह कर्ज से राहत हो, जलवायु परिवर्तन हो या आतंकवाद से संघर्ष हो।
ग्लोबल साउथ अब संघर्षशील अर्थव्यवस्थाओं का समूह नहीं रहा। इसके देश युवा और संसाधन-संपन्न हैं, जो संयुक्त राष्ट्र का दो-तिहाई हिस्सा हैं। जहां उनकी अपनी कोई संगठित आवाज नहीं है, वहां भारत उन्हें नेतृत्व दे रहा है। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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