Saturday 11/ 10/ 2025 

UP: पत्नी और प्रेमी ने मिलकर की पति की निर्मम हत्या, फिर गुमशुदगी की रची झूठी कहानी – gaziyabad wife lover husband murder lclcnबेंगलुरु में भारी बारिश से हाहाकार, कहीं जलभराव तो कहीं ट्रैफिक जाम से लोग परेशानचाय के बहाने बुलाकर भतीजे की हत्याइडली-सांभर साउथ इंडियन डिश नहीं, सुनकर चौंक गए ना, इनकी कहानी जानकर होंगे हैरानकफ सिरप कांड: आरोपी ने मांगी राहतRajat Sharma's Blog | ट्रम्प का नोबेल पुरस्कार का सपना किसने तोड़ा?Ranbir Kapoor ने खुद को बताया नेपोटिज्म का प्रोडक्टBihar assembly election: आखिरकार NDA में सुलझ ही गया सीटों का पेंच? देखें उम्मीदवारों की संभावित लिस्टVirag Gupta’s column – After how many more deaths will we ban road shows? | विराग गुप्ता का कॉलम: और कितनी मौतों के बाद हम रोड-शो पर रोक लगाएंगे?सिंह राशि को धन लाभ होगा, शुभ रंग होगा क्रीम
देश

Anubhav Sinha’s column – What is visible will sell, so what about other artists? | अनुभव सिन्हा का कॉलम: जो दिखेगा वही बिकेगा, तो दूसरे कलाकारों का क्या?

  • Hindi News
  • Opinion
  • Anubhav Sinha’s Column What Is Visible Will Sell, So What About Other Artists?

7 दिन पहले

  • कॉपी लिंक
अनुभव सिन्हा फिल्म निर्देशक - Dainik Bhaskar

अनुभव सिन्हा फिल्म निर्देशक

जब मैं बड़ा हो रहा था, रेडियो सीलोन पर बिनाका गीतमाला में अमीन सयानी गाना सुनाने से पहले गाना बनाने वालों का नाम बताते थे- गीतकार, संगीतकार और गायक। बरसों तक ये परंपरा रही। धीरे-धीरे साहिर, अनजान, आनंद बख्शी, नक्श लायलपुरी से बात बढ़ते-बढ़ते यहां तक पहुंची कि ‘चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है’ गुलाम अली की गजल बन गई, हसरत मोहानी का जिक्र ही नहीं हुआ।

जबकि हसरत मोहानी उस गजल से कहीं बड़े आदमी थे। 1921 में ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा उन्होंने ही दिया था। अब गाना अरिजीत सिंह का होता है या सोनू निगम का, गीतकार-संगीतकार का नाम बार-बार लेने में रेडियो-टीवी समय बर्बाद नहीं करते।

जबकि प्रोग्राम अब ज्यादा समय के हो गए हैं। अमीन सयानी तो हफ्ते में एक बार ही आते थे। ऐसा नहीं है कि गुलाम अली या सोनू निगम का योगदान कम है, लेकिन दर्शक नेपथ्य के कलाकारों को जगह देगा, तो उनकी सामर्थ्य बढ़ेगी।

ये थंबनेल का समय है। यूट्यूब या जहां कहीं भी दर्शक एक तस्वीर देख के वीडियो पर क्लिक करता है, एक व्यू बढ़ जाता है। कितने व्यू बने- इससे आमदनी तय होती है। थंबनेल की तस्वीर से तय होता है कि दर्शक ने क्यों क्लिक किया। यहीं से समस्या की शुरुआत होती है।

जो दिखेगा, वो बिकेगा- तो अमिताभ भट्टाचार्य का क्या? इरशाद कामिल का क्या? उन तमाम नेपथ्य के कलाकारों का क्या? कुछ कलाएं ऐसी होती हैं, जिनके लिए पूरी टीम काम करती हैं। उसका श्रेय सिर्फ एक का नहीं होता। और जब दर्शक सिर्फ एक को श्रेय देना शुरू कर दे, तो सामर्थ्य का असंतुलन शुरू होता है।

जब पहली बार न्यूज एंकरों की होर्डिंग लगी थी देश में, वहीं से टीवी पत्रकारिता का पतन शुरू हो गया था। कथावाचक, कथा से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया। अब मोहभंग का दौर है- वाचकों से, नायकों से। अब शिकायत कथा से है। पर कथा की अकेले की सामर्थ्य कम हो चली है। उसे तो हमने ही पीछे छोड़ा ना?

जमीन का जो पत्रकार था, जो सच लेकर आता था, वो या तो खत्म हो गया या वो भी वाचक बन गया। आज स्थिति ये है कि समाचार में संगीत बज रहा है। सोचिएगा, बहुत त्रासदी का विषय है। शिकायत करते हैं कि दर्शक की देर तक जुड़ने की क्षमता कम हो गई है। अटेंशन स्पान घट गया है। ये झूठ है।

फिल्मों में निर्देशक तकलीफ में है। उसकी कुर्सी उसके नीचे से खींच ली गई है। वह बमुश्किल कहानी को बचाकर आप तक लाने का प्रयास कर रहा है। अकसर हार रहा है, कभी-कभी जीत भी जाता है। उसे दर्शक का हाथ चाहिए। फिल्में बनती कैसे हैं?

एक व्यक्ति को कहानी कहनी होती है। उसके साथ कलाकार जुड़ते हैं, धन जुड़ता है और फिल्म बनती है। पर सिनेमा ऐसी कला है, जिसमें कई विधाओं की जरूरत होती है- और ढेर सारे धन की भी। करोड़ों रुपए।

इतने पैसों में बड़े-बड़े उद्योग शुरू हो जाते हैं, जो सालों तक रोजगार और मुनाफा देते हैं। फिल्म को उद्योग मानें, तो उसकी उम्र दो-तीन साल की ही होती है। लेकिन फिल्म एक कला भी है, और कला कलाकार को बेचैन कर देती है। वो रास्ते निकाल लेता है।

दिल से लिखी गई कहानी को समीकरण समझ में नहीं आते। कला प्रेम से उपजती है। वो शृंगार का प्रेम हो सकता है, विद्रोह का हो सकता है, असहमति का हो सकता है। प्रेम को समीकरण नहीं सिखाए जा सकते। अब सामर्थ्य धन के पास है और धन आता है थंबनेल से। थंबनेल पर क्लिक कौन करता है? दर्शक। सबसे ताकतवर शख्स। कलाकार वो करना चाहता है, जो पहले नहीं किया गया।

धन वही करना चाहता है, जो पहले सफल रहा है। यही भयंकर मतभेद है। तो अब थंबनेल पर जिसकी तस्वीर है, वही सबसे महत्वपूर्ण बन गया है। कहानी अकेली पड़ गई है। फिर भी निर्देशक को उम्मीद रहती है कि वो अपनी कहानी कह पाएगा। कभी-कभी वो कह भी लेता है। अच्छी फिल्में बन भी जाती हैं। लेकिन ज्यादातर मौकों पर निर्देशक हार जाता है। कभी आत्मसमर्पण कर देता है, कभी उसे पता भी नहीं चलता कि वो कब बह गया।

पिछली दस फिल्में याद कीजिए, जो अच्छी लगी थीं। उनके निर्देशक-लेखक को खोजिए कि क्या बना रहे हैं अगली बार? हो सकता है आप थंबनेल की भूल-भुलैया में भटक गए हों। असल कहानियां आपको खोज रही हैं, आप उन्हें। दर्शक ताकतवर है। उसे थंबनेल के चक्रवात से बाहर निकलना होगा। लेखक और निर्देशक की सामर्थ्य बढ़ानी होगी। इसमें समय लगेगा… बस शुरू अभी करना होगा।

जो कहानियां परदे तक पहुंच रही हैं, उनसे कहीं अच्छी कहानियां धक्के खा रही हैं। ताकत थंबनेल के पास है, लेकिन उससे कहीं ज्यादा ताकत दर्शक के पास है कि वो किसे क्लिक करे। निर्देशक और कहानियों को आज दर्शक की ताकत चाहिए। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

खबरें और भी हैं…

Source link

Check Also
Close



DEWATOGEL