Saturday 11/ 10/ 2025 

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कैसे हुई थी राजा परीक्षित की मृत्यु? क्या मिला था श्राप जिसके कारण हुआ भयानक नाग यज्ञ


महर्षि वेदव्यास ने जब ‘जय’ नाम से काव्य ग्रंथ रचा तो उसके श्लोकों में वह सारी बातें समा गईं, जो अब तक वेदों के ज्ञान में थीं, या जिनकी व्याख्या को समझने के लिए उपनिषद और ब्राह्मण ग्रंथों का सहारा लेना पड़ता था. इसके अलावा संसार के सारे रहस्य, उत्पत्ति और उसके विनाश का जो भी वर्णन अलग-अलग ग्रंथों में कहीं था, महर्षि वेदव्यास ने उन सभी को अपने इस महान ग्रंथ में शामिल किया. भरत वंश के महान राजाओं का विस्तार से वर्णन होने के कारण यही जयकाव्य आगे चलकर महाभारत कहलाया और इसकी सभी घटनाएं किसी न किसी तरह पूर्व काल में घटी हुई घटना से जुड़ जाती हैं.

इस बात को समझने के लिए यही उदाहरण काफी है कि जब उग्रश्रवाजी ने नैमिषारण्य में तपस्या के लिए जुटे ऋषियों को महाभारत की कथा सुनानी शुरू की तो इसके तमाम रहस्यों को देखते हुए ऋषिगण कई प्रश्न भी करने लगे. ये सभी प्रश्न बीते युग में घटी घटनाओं की ओर ले जाते थे. ऋषि उग्रश्रवा ने बड़े ही मनोहर तरीके से हर प्रश्न का उत्तर दिया. ऋषियों ने पूछा जनमेजय ने किस क्रोध और शोक में आकर नागयज्ञ किया था? नागों को क्यों भस्म होना पड़ा? राजा परीक्षित को तक्षक ने क्यों डंसा?

तब ऋषि उग्रश्रवाजी ने एक-एक करके सभी प्रश्नों के उत्तर में उनसे जुड़ी कथा सुनाई. उन्होंने बताया कि नागों को भस्म होने का श्राप उनकी माता कद्रू ने दिया था. यह कथा सुनाकर अब उग्रश्रवा ऋषि इस प्रसंग की ओर बढ़े कि राजा परीक्षित की अकाल मृत्यु का क्या कारण था और उन्हें तक्षक ने क्यों डंस लिया?


ऋषि उग्रश्रवा ने अब इस प्रसंग को बताना शुरू किया कि आखिर राजा परीक्षित की मृत्यु का क्या कारण था. महाभारत के युद्ध के बाद पांडवों ने हस्तिनापुर का राज्य संभाला. युधिष्ठिर राजा बने. युद्ध में पूरा कुरुवंश समाप्त (क्षीण) हो गया था, अगली पीढ़ी को बढ़ाना वाला अभिमन्यु का एकमात्र पुत्र ही जीवित रह गया. उसका भी जन्म बहुत संकटों के बाद हुआ था. कुरुवंश के परिक्षीण (पूरी तरह समाप्त) हो जाने के बीच उनका जन्म हुआ इसलिए वह परीक्षित कहलाए. दूसरा, जन्म के समय ही वह जीवन की कई कठिन परिस्थितियों और परीक्षाओं से गुजरे और जीवित रह गए इसलिए भी उनका नाम परीक्षित हो गया.

पांडवों ने श्रीकृष्ण के महाप्रयाण (वैकुंठ गमन) के बाद खुद भी राज्य आदि के भार का त्याग कर दिया और अभिमन्यु के इन्हीं पुत्र कुमार परीक्षित को हर तरह दीक्षित-शिक्षित पाकर उन्हें राज्य सौंप दिया. इस तरह पांडव स्वर्गारोहण के लिए चले गए. परीक्षित अब महाराज हो गए और फिर धीरे-धीरे सम्राट भी बन गए. वह प्रजापालक, न्यायप्रिय, सत्यवादी, सत्यप्रिय और यहां तक कि देवताओं के भी प्रिय थे. उन्होंने कुलगुरु कृपाचार्य से ही धनुर्वेद की शिक्षा ली, उनसे ही नीति भी पढ़े और उसी नीति का पालन करते हुए राज्य का संचालन करने लगे. वह राजधर्म में कुशल थे, अर्थशास्त्र में निपुण थे. उनके राज्य में चोरी और लूट जैसे अपराध नहीं होते थे. गृहस्थ, संन्यासी, व्यापारी, संत उनके राज्य में सभी प्रसन्न थे.

इतना कहकर उग्रश्रवा जी रुक गए. फिर बोले- ऋषिगणों, यह सब कुछ जनमेजय के पूछने पर उनके मंत्रियों ने उन्हें बताया. तब जनमेजय ने कहा- अपने महान पिता के विषय में मैं यह सब कुछ जानता हूं. उनके प्रताप पर कोई संदेह नहीं, फिर भी मैं तो आप सभी बुद्धिमान सुधीजनों से उनकी मृत्यु का कारण जानना चाहता हूं. तब सभी मंत्री मौन होकर एक-दूसरे को देखने लगे.


फिर एक वृद्धमंत्री ने बोलना शुरू किया. महाराज जनमेजय! आपके पिता परम प्रतापी और वीर थे. कुरुकुल के अन्य पूर्वज राजाओं और जैसे महाराज पांडु की ही तरह वह भी शिकार प्रेमी थे. एक बार वह शिकार खेलने के लिए ही निकले और बहुत दूर चले गए. उन्होंने एक हिरण पर निशाना साध रखा था, लेकिन हिरण कुलांचे भरता हुए उन्हें घने वन में ले गया और राज्य से दूर कर दिया. चूंकि आपके पिता अब बूढ़े होने लगे थे और शिकार की दौड़ से थक भी गए,  उन्हें जोरों की भूख लगी और सूर्य देव सिर की सीध पर ही थे. तेज धूप के कारण और थकान-भूख से महाराज विकल (परेशान) होने लगे. प्रतापी महापुरुषों के लिए धीरज सबसे बड़ा धर्म होता है, लेकिन महाराज परीक्षित थकान से अधीर होने लगे.

इसी समय उन्हें जंगल में एक मुनि का आश्रम दिखा. वह वहां पहुंचे और मुनि से आश्रम, भोजन, जल आदि को लेकर प्रश्न करने लगे. मुनि उस वक्त ध्यान अवस्था में थे और दूसरा उन्होंने मौन व्रत भी धारण किया था. इधर, जब मुनि ने कोई उत्तर नहीं दिया तो थकान से विकल और अधीर हुए महाराज क्रोधित होने लगे और मुनि का तिरस्कार करने के लिए, धनुष की नोंक से वहीं पर एक मरे पड़े सांप को उठाकर उनके गले में डाल दिया.


मुनि ने राजा के इस कृत्य पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और चुपचाप अपनी साधना में लगे रहे. राजा भी अपनी राजधानी लौट आए. उन मौन मुनि का नाम था ऋषि शमीक. ऋषि शमीक के पुत्र थे ऋषि शृंगी. वह भी पिता की ही तरह तेज व्रतधारी और बड़े तपस्वी थे, हालांकि वह क्रोध को नहीं जीत सके थे. उन्होंने जब अपने एक मित्र के मुख से यह सारा वृत्तांत सुना तो बड़े क्रोधित हुए और तुरंत ही हाथ में जल लेकर राजा को श्राप दिया, ‘जिसने मेरे निरपराध पिता के गले में मरा हुआ सांप डाला है, उस दुष्ट को सात दिन के भीतर ही तक्षक जलाकर भस्म कर देगा.’

यह श्राप देकर ऋषि शृंगी अपने पिता के पास पहुंचे और उनका हालचाल लिया. इसी दौरान उन्होंने श्राप वाली बात भी पिता को बताई. तब ऋषि शमीक बहुत चिंतित हुए. उन्होंने तुरंत ही आपके पिता, हमारे महाराज परीक्षित के पास अपने एक शिष्य को भेजकर यह जानकारी दी और सावधान रहने के लिए कहा. उन्होंने आपके पिता को बचाने के लिए और भी प्रयोजन किए, लेकिन वह भी असफल रहे.  जनमेजय ने पूछा- उन्होंने मेरे पिता को बचाने के लिए क्या किया और वह असफल कैसे हुए? इस पर उस वृद्ध मंत्री ने कहा- महाराज जनमेजय! जिस दिन श्राप का सातवां दिन था, तब तक्षक आपके पिता को डंसने के लिए निकला. वह जब आ रहा था तो उसने मार्ग में काश्यप नाम के एक ब्राह्मण को बहुत तेजी से हस्तिनापुर की ओर बढ़ते देखा. उसने अपना रूप बदला और उन ब्राह्मण से पूछा कि आप कौन हैं और इतनी तेजी से कहां जा रहे हैं?

काश्यप ब्राह्मण ने कहा- आज तक्षक नाग जरूर ही राजा परीक्षित को डंस कर भस्म कर देगा. मैं वहीं जा रहा हूं. जैसे ही तक्षक अपना कार्य कर लेगा मैं मंत्रों से राजा को जीवित कर दूंगा. अगर मैं समय पर पहुंच गया तब तो तक्षक उन्हें डंस भी नहीं सकेगा. यह सब सुनकर तक्षक अपने असली रूप में सामने आया और बोला- महामुनि! मैं ही तक्षक हूं. मेरे डंसे हुए कोई नहीं जीवित कर सकता है. वह तुरंत भस्म हो जाता है. आप कुछ नहीं कर सकेंगे.


ऐसा कहकर तक्षक ने वहीं खड़े एक पेड़ को डंस लिया. तक्षक के ऐसा करते ही पेड़ भस्म हो गया. यह देखकर काश्यप ब्राह्मण ने विद्या के बल से उस पेड़ को उसी समय हरा-भरा कर दिया. तक्षक ने यह चमत्कार देखा तो दंग रह गया. अब वह ब्राह्मण को तरह-तरह के प्रलोभन देने लगा. उसने पूछा कि आप हस्तिनापुर क्यों जाना चाहते हैं? ब्राह्मण ने कहा- मैं तो वहां धन की इच्छा से जा रहा हूं. तब तक्षक नाग ने ब्राह्मण के सामने धन का अंबार लगा दिया और भय दिखाते हुए कहा कि इसे लेकर यहीं से वापस लौट जाओ. इसके बाद तक्षक छल से आया और आपके पिता सर्पदंश से मारे गए.

जनमेजय ने पूरी बात ध्यान से सुनी और दुखी हो गया, फिर भी उसने धीरज नहीं खोया और बोला- मंत्रिवर! आपने जो वृक्ष के भस्म होने और फिर हरा-भरा हो जाने की कथा सुनाई, बड़े आश्चर्य की बात है. क्या इन पर विश्वास करने के लिए कोई साक्ष्य है? इसे कैसे माना जाए. तब मंत्री ने कहा- जिस वक्त तक्षक उस पेड़ के नीचे ब्राह्मण काश्यप से बात कर रहा था, उसी पेड़ पर एक व्यक्ति सूखी लकड़ियों के लिए चढ़ा था. तक्षक के डंसते ही वह भी भस्म हो गया था, फिर जब काश्यप ने पेड़ को हरा-भरा किया तो वह भी जीवित होकर स्वस्थ हो गया. यह बात न तक्षक को पता चली और न ही काश्यप ब्राह्मण को, लेकिन उन दोनों की सभी बातें इसने सुनी थीं, इसलिए वह राजधानी आया और हमें इस पूरे वृत्तांत की जानकारी दी. यह आपके पिता की मृत्यु का कारण था जो हमने आपको बताया, साथ ही यह भी क्यों आपके पिता सावधान होने के बाद भी नहीं बच पाए. इसलिए अब आप वही करें जो उचित हो और जो अपराधी उसे जैसा दंड सही हो वह देकर दंडित कीजिए.

जनमेजय ने इस पूरे वृत्तांत को सुना और शोक-क्रोध से भरी वाणी में बोला- ऋषि उत्तंक सही कहते हैं. तक्षक ही इस पाप और दंड का अधिकारी है. उसने हाथ में जल लिया और संकल्पित होकर कहने लगा- ‘तक्षक ही मेरे पिता का दोषी है. ऋषि शृंगी का श्राप तो बहाना भर था, लेकिन तक्षक ने काश्यप ब्राह्मण को लौटाकर उसे जबरन सफल बनाया. वह चाहता तो श्राप के अनुसार मेरे पिता को डंस लेता और फिर ब्राह्मण अपनी विद्या से उन्हें जीवित कर देते. इस तरह दोनों बातें सही हो जातीं, लेकिन तक्षक ने ऐसा नहीं होने दिया. इसलिए मैं तक्षक से अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने का संकल्प करता हूं.’


उग्रश्रवाजी ने यह कथा सुनाकर ऋषियों को संबोधित करते हुए कहा- राजा जनमेजय के इस संकल्प के बाद धरा पर भूचाल सा आ गया. जनमेजय ने अपने पुरोहितों और ऋत्विज मुनियों को बुलाकर उनसे अपने मन की बात कही और पूछा- क्या आप ऐसा कोई होम, कोई कर्म जानते हैं जिससे तक्षक को धधकती आग में भस्म किया जा सके? तब ऋत्विजों ने जनमेजय को बताया कि महाराज, पुराणों में पहले से ही ऐसे यज्ञ का वर्णन हो चुका है. देवताओं ने पहले से ही एक ऐसे यज्ञ का विधान रच रखा है, जिसके होता आप ही बनेंगे. यह आपके द्वारा ही होना तय था. फिर पुरोहितों ने जनमेजय को वह कथाएं सुनाईं, जिनमें नागों को उनकी ही माता से श्राप मिला था. ऋत्विजों की यह बातें सुनकर जनमेजय को अपना सर्प यज्ञ का निर्णय ठीक ही लगने लगा. अब यज्ञ की तैयारियां होने लगीं. यज्ञशाला बनी, यज्ञमंडप तैयार हुए, जनमेजय यज्ञ के लिए दीक्षित हुए. इसी समय एक विचित्र घटना घटी.

यज्ञमंडप के लिए वेदी बनाते हुए एक बुद्धिमान सूत ने कहा- जिस स्थान और समय पर इस यज्ञ मंडप के मापने की क्रिया शुरू हुई है, उसे देखकर ऐसा लगता है कि किसी ब्राह्मण के कारण यह यज्ञ पूर्ण नहीं हो सकेगा. राजा जनमेजय ने यह बात सुनी तो द्वारपालों से कह दिया कि बिना मुझे सूचना दिए और आज्ञा लिए, कोई बाहरी मनुष्य यज्ञ मंडप न आने पाए. इस तरह जनमेजय का सर्पयज्ञ शुरू हो गया, जिसमें नागमाता कद्रू से श्रापित कई सर्प आकर गिरने लगे और भस्म हो गए.

सर्प यज्ञ में च्यवनवंशी चंडभार्गव होता थे. कौत्स उद्गाता, जैमिनी ऋषि ब्रह्मा साथ ही शारंगरव और पिंगल अध्वर्यु थे. पुत्र और शिष्यों के साथ व्यासजी, उद्दालक ऋषि (आरुणि), प्रमतक, श्वेतकेतु, असित, देवल, आदि इसके सदस्य थे. नाम ले-लेकर आहुति देते ही बड़े-बड़े भयानक सर्प आकर अग्नि कुंड में गिर जाते और भस्म हो जाते थे. सर्पों की चर्बी और मेद के जलने से चारों ओर तीखी दुर्गंध उठने लगी. सर्पों की चिल्लाहट से आकाश गूंज उठा.


ऋत्विजों का आंखें तीखे धुएं से लाल हो गईं. वे काले वस्त्र पहनकर मंत्र उच्चारण करते हुए आहुति दे रहे थे. जैसे-जैसे आहुति होती थी, सर्प तड़पते, उछलते, पूंछ और फनो में एक-दूसरे को लपेटते हुए अग्नि की ओर खिंचने लगे. कुछ बड़े सर्प भारी सांस लेकर खुद रोकने की कोशिश करते, लेकिन सब व्यर्थ. सफेद, काले, पीले, लाल, चमकीले हर तरह के सर्प आग के मुंह में गिरने लगे और भस्म होने लगे. कोई चार कोसतक लंबे और कोई-कोई गाय के कान जितने ही छोटे. कुछ बूढ़े, कुछ नौजवान सभी गिरने लगे. कुछ बाल सर्प तो ऊपर ही ऊपर कुंड की गर्मी से भस्म हो गए.

तक्षक ने यह सब देखा और सुना तो घबराकर देवराज इंद्र की शरण में चला गया. बोला- मैं अपराधी हूं और आपकी शरण में आया हूं. इस पर इंद्र ने कहा- मैंने तुम्हारी रक्षा के लिए पहले से ही ब्रह्माजी से अभय-वचन ले लिया है, इसलिए निश्चिंत रहो और दुखी मत हो. इंद्र की बात सुनकर, तक्षक आराम से इंद्रभवन में ही रहने लगा.

पहला भाग : कैसे लिखी गई महाभारत की महागाथा? महर्षि व्यास ने मानी शर्त, तब लिखने को तैयार हुए थे श्रीगणेश 
दूसरा भाग :
राजा जनमेजय और उनके भाइयों को क्यों मिला कुतिया से श्राप, कैसे सामने आई महाभारत की गाथा?
तीसरा भाग : राजा जनमेजय ने क्यों लिया नाग यज्ञ का फैसला, कैसे हुआ सर्पों का जन्म?
चौथा भाग : महाभारत कथाः नागों को क्यों उनकी मां ने ही दिया अग्नि में भस्म होने का श्राप, गरुड़ कैसे बन गए भगवान विष्णु के वाहन?


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