Saturday 11/ 10/ 2025 

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Rajdeep Sardesai’s column – Possibilities are being explored for a young leadership | राजदीप सरदेसाई का कॉलम: संभावनाएं टटोली जा रही हैं एक युवा नेतृत्व के लिए

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3 घंटे पहले

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राजदीप सरदेसाई वरिष्ठ पत्रकार - Dainik Bhaskar

राजदीप सरदेसाई वरिष्ठ पत्रकार

एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने एक बार अफसोस भरे स्वर में कहा था कि हम कांग्रेस वाले अपनी गुटबाजी सार्वजनिक रूप से जाहिर कर देते हैं, जबकि भाजपा ऐसा बंद दरवाजे के पीछे करती है। केरल में शशि थरूर के बगावती सुर हों या कर्नाटक में सिद्धारमैया बनाम डीके शिवकुमार का अनवरत पॉवर-ड्रामा- सार्वजनिक आरोप-प्रत्यारोपों के जरिए खुद पर ही निशाना साध बैठने की कांग्रेस की प्रवृत्ति के ये नवीनतम उदाहरण हैं।

इसके विपरीत, भाजपा के भीतर जो सत्ता-संघर्ष हैं, उन पर शायद ही कभी ध्यान जाता है, क्योंकि यह सब गोपनीयता के आवरण में होता है। यही कारण है कि संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत की हालिया टिप्पणी ने सबको चौंकाया। उन्होंने सार्वजनिक जीवन में काम करने वालों को 75 की उम्र में ‘सेवानिवृत्त’ होने की सलाह दी थी। तब विपक्ष ने भी संघ प्रमुख की इस टिप्पणी को तुरंत भुनाने की कोशिश की और दावा किया कि भगवा-बिरादरी के मुखिया भाजपा में एक ‘उत्तराधिकार योजना’ को तुरंत लागू करना चाहते हैं।

‘मोदी के बाद कौन?’- यह टीवी स्टूडियो के लिए भले ही चर्चा का आकर्षक विषय हो, लेकिन हकीकत यही है कि मोदी कहीं नहीं जा रहे हैं। वे पीछे हटने वालों में से नहीं हैं, रिटायरमेंट की तो बात ही रहने दीजिए। संघ प्रमुख आमतौर पर शब्दों को तौलकर बोलते हैं। संघ का एक वर्ग भाजपा में पीढ़ीगत बदलाव का इच्छुक है, यह बात सत्ता के गलियारों में कुछ समय से चल रही है।

यह भी याद रखें कि संघ व्यक्तिवादी राजनीति के प्रति असहज रहता है। गत सितंबर में भी भागवत ने कहा था कि कर्म से हर कोई व्यक्ति पूजनीय बन सकता है, लेकिन हम स्वयं उस स्तर तक पहुंचे हैं या नहीं, यह हम नहीं दूसरे ही तय करेंगे।

और इस सबके बावजूद, संघ जानता है कि देश में अपना राजनीतिक और वैचारिक आधिपत्य बनाए रखने के लिए फिलहाल तो मोदी ही उसके लिए सबसे बेहतर विकल्प हैं। जैसा कि सीएसडीएस 2024 के चुनाव-उपरांत सर्वेक्षण से पता चलता है, मोदी की लोकप्रियता अभी भी भाजपा से काफी ऊपर है।

भाजपा के हर चार में से एक मतदाता ने कहा था कि उन्होंने केवल प्रधानमंत्री के नेतृत्व के कारण ही पार्टी को वोट दिया था। ‘मोदी फैक्टर’ को हटा दें तो भाजपा राजनीतिक रूप से कमजोर दिखने लगती है। आज मोदी ही ब्रांड-हिंदुत्व के राजनीतिक शुभंकर और स्टार हैं।

अयोध्या में राम मंदिर से लेकर जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 के उन्मूलन और अब भाजपा-शासित राज्यों में समान नागरिक संहिता लागू करने के प्रयासों तक, मोदी सरकार ने संघ के तमाम मूल एजेंडों के प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिश्चित किया है। वास्तव में, भाजपा के राजनीतिक प्रभुत्व के चलते ही संघ अपने प्रभाव को अभूतपूर्व ढंग से व्यापक बना पाता है, चाहे वह विश्वविद्यालय परिसर में हो, सांस्कृतिक मंचों पर हो या फिर लोकविमर्श के गलियारों में।

इसी का नतीजा है कि आज संघ परिवार के भीतर सत्ता की गतिशीलता में स्पष्ट बदलाव आया है। अपने 100 वर्षों के अस्तित्व के अधिकांश समय में संघ भगवा-परिवार का निर्विवाद वैचारिक स्रोत रहा है। लेकिन मोदी के दशक ने जुड़ाव के नियमों को बदल दिया है।

ये सच है कि भाजपा आज भी अपने समर्थन-तंत्र को संघ के जमीनी ढांचे से प्राप्त करती है, लेकिन नेतृत्व के स्तर पर संघ प्रचारक से राजनेता बने मोदी ही आज अग्रणी हो चुके हैं। यह अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल से अलग है, जब संघ नेतृत्व बार-बार गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रहे अटल जी पर निशाना साधा करता था। तत्कालीन संघ प्रमुख सुदर्शन अटल जी की निर्णय लेने की क्षमता की खुले तौर पर आलोचना करते थे और यहां तक कि उनसे पद छोड़ने का आग्रह भी कर बैठते थे।

लेकिन सुदर्शन के विपरीत भागवत जानते हैं कि अब परिदृश्य पहले जैसा नहीं है। वे ज्यादा से ज्यादा एक लक्ष्मण-रेखा ही खींच सकते हैं, जिससे मोदी-शाह की जोड़ी के लिए नेतृत्व-शैली की सीमाएं स्पष्ट हो जाएं। ऐसे में ‘सेवानिवृत्ति’ का शगूफा केवल एक शुरुआती दांव हो सकता है, शह-मात का खेल नहीं।

विडंबना यह है कि मोदी-शाह की जोड़ी ने ही 2015 में ‘मार्गदर्शक मंडल’ की अवधारणा सामने रख थी, जो लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे वयोवृद्ध दिग्गजों का एक प्रतीकात्मक समूह था। संघ जानता है कि वह अभी तो प्रधानमंत्री पर ‘मार्गदर्शक’ जैसी भूमिका नहीं थोप सकता, लेकिन फिर भी वह चाहेगा कि पार्टी युवा नेतृत्व के लिए एक ज्यादा सर्वसम्मत रास्ता अपनाए।

भागवत जानते हैं कि वे ज्यादा से ज्यादा एक लक्ष्मण-रेखा ही खींच सकते हैं, जिससे भाजपा आलाकमान के लिए नेतृत्व-शैली की सीमाएं स्पष्ट हो जाएं। ऐसे में ‘सेवानिवृत्ति’ का शगूफा केवल शुरुआती दांव भर ही हो सकता है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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