Pawan K. Verma’s column – The poor have nothing except the power of their vote | पवन के. वर्मा का कॉलम: गरीबों के पास वोट की ताकत के अलावा कुछ और नहीं है

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1 घंटे पहले
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पवन के. वर्मा पूर्व राज्यसभा सांसद व राजनयिक
यह एक तथ्य है कि भारत में कुलीन वर्ग गरीबों की तुलना में कम वोट देता है। कारण यह है कि अपेक्षाकृत विशेषाधिकार-प्राप्त भारतीयों के लिए लोकतंत्र का कोलाहल अकसर थकाऊ होता है। लेकिन वंचित तबके की बड़ी आबादी के लिए यही लोकतंत्र सशक्तीकरण और एक सामाजिक हैसियत हासिल करने का उपकरण होता है।
भले ही इस तबके में बहुत से लोग अशिक्षित हों, लेकिन सामूहिक रूप से अमूमन उन्हें इस बात की गहरी समझ होती है कि उनका प्रतिनिधित्व सबसे अच्छे तरीके से कौन कर सकेगा। वे जानते हैं कि सत्ता में भले कोई भी हो, लेकिन हर पांच साल में एक बार उन्हें भी अवसर मिलेगा कि वे सत्ताधीश को सत्ता से बाहर कर सकें या कम से कम उसके प्रति अपनी असहमति तो जता सकें। इसके लिए उनके पास वोट ही एकमात्र साधन है। यही कारण है कि उनके लिए चुनाव अत्यधिक महत्वपूर्ण होते हैं।
ऐसे में गरीबों और कमजोरों को उनके मताधिकार से भी वंचित कर देना उनसे वो एकमात्र जरिया छीन लेने जैसा है, जिससे वो उन्हें हाशिए पर कर देने वाले तंत्र में अपनी कोई सार्थक हिस्सेदारी निभाते हैं। यह उनकी राजनीतिक प्रासंगिकता की गर्भनाल को काटने जैसा है।
समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े लोगों के लिए सिर्फ मताधिकार ही है, जिसके जरिए वे अपनी उम्मीदें कायम रखते हैं। भारत जैसे देश में- जहां अमीर और गरीब के बीच खाई बहुत बड़ी है और लगातार बढ़ती जा रही है- वहां मताधिकार से वंचित कर देना उनकी निराशा को अराजकता और विद्रोह में भी तब्दील कर सकता है।
यही वह महत्वपूर्ण बात है, जिसे मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) लागू करते वक्त चुनाव आयोग को समझना चाहिए। आयोग के स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के संविधान-प्रदत्त अधिकार पर कोई सवाल नहीं उठा रहा है।
ना ही मतदाता सूचियों को शुद्ध करने के उसके अधिकार पर कोई ऐतराज कर सकता है। लेकिन अगर पुनरीक्षण का काम गलत समय पर और गलत तरीके से किया गया तो बहुत सम्भावना है कि भले ही कुछ अनधिकृत मतदाताओं के नाम हटा दिए जाएं, लेकिन कई वैध मतदाता भी इससे अपने अधिकार से वंचित रह जाएंगे।
10 जुलाई को इस मुद्दे पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्वाचन आयोग की स्वायत्तता को कम किए बिना तीन बेहद प्रासंगिक सवाल उठाए। पहला, हमेशा की तरह आयोग पहचान के सबूत के तौर पर आधार, वोटर कार्ड और राशन कार्ड को स्वीकार क्यों नहीं कर रहा?
28 जुलाई की सुनवाई में भी कोर्ट ने जोर देकर कहा कि निर्वाचन आयोग को मतदाताओं को ‘व्यापक पैमाने पर निकालने के बजाय व्यापक पैमाने पर जोड़ना चाहिए।’ और यदि ऐसा नहीं होता है तो सर्वोच्च अदालत इसमें दखल देगी। आयोग को इस चेतावनी पर ध्यान देना चाहिए।
दूसरा, आयोग चुनाव से कुछ ही माह पहले जून में एसआईआर क्यों कर रहा है? इससे पहले पिछला एसआईआर 2003 में हुआ था। अब अचानक से बिहार में इसे कराने का फैसला क्यों किया गया, और वह भी इतनी देर से?
निश्चित रूप से 8 करोड़ मतदाताओं वाले राज्य में इस प्रक्रिया को कुशलतापूर्वक और विश्वसनीय ढंग से करने के लिए पर्याप्त समय चाहिए। और तीसरा सवाल यह कि आयोग को नागरिकता तय करने का अधिकार कैसे मिल गया, यह तो गृह मंत्रालय के अधिकार-क्षेत्र में है?
2011 की जनगणना के अनुसार बिहार में मोटे तौर पर 50 प्रतिशत महिलाएं और 40 प्रतिशत पुरुष अशिक्षित थे। 2023 की जाति-जनगणना के अनुसार राज्य के दलितों में महज 3 प्रतिशत, अति पिछड़ों में 5 प्रतिशत और मुसलमानों में सिर्फ 7 प्रतिशत लोगों ने ही 12वीं कक्षा पास की है।
इतने कम समय में वांछित नए दस्तावेज लेने के लिए ये लोग स्थानीय नौकरशाही से कैसे पार पा सकेंगे? बिहार के लाखों लोग अन्य राज्यों में प्रवासी हैं। दयनीय स्थितियों में जी रहे ये लोग कैसे अपने दस्तावेजों की व्यवस्था करेंगे?
सच्चाई यह है कि आज वहां धरातल पर पूरी तरह से घबराहट और भ्रम की स्थिति है, क्योंकि बेसहारा गरीब लोग अपना मताधिकार मांग रहे हैं। आयोग द्वारा बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किए गए आंकड़े सच्चाई से कोसों दूर हैं।
ऐसे में मुझे वो पंक्तियां याद आती हैं : ‘हम उनकी याद में अकसर उन्हीं को भूल गए।’ अवैध प्रवासियों को निशाना बनाने के चक्कर में आयोग ने बिना किसी पारदर्शिता के लाखों वैध मतदाताओं के लिए गंभीर खतरा पैदा कर दिया है। यह एक त्रासदी है, क्योंकि गरीबों के पास अपने वोट की ताकत के अलावा ज्यादा कुछ नहीं है।
अवैध प्रवासियों को निशाना बनाने के चक्कर में चुनाव आयोग ने बिना किसी पारदर्शिता के लाखों वैध मतदाताओं के लिए गंभीर खतरा पैदा कर दिया है। यह एक त्रासदी है, जिसे हमें उसके सही परिप्रेक्ष्यों में ठीक तरह से समझना होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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