Thursday 09/ 10/ 2025 

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1 घंटे पहले

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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु - Dainik Bhaskar

एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

जब मैंने अपना पहला घर खरीदा, तो मैंने शब्दकोश में “स्वामित्व’ शब्द के अर्थ ढूंढे। उसमें लोगों से खुद को अलग करने के अलावा नियंत्रण, अधिकार और बाजार-मूल्य के अर्थ बताए गए थे। जब मैंने उसमें रहना शुरू किया, तो पाया कि घर पर मां का प्रभाव स्थापित हो गया है।

अलग-अलग राज्यों से लोग मेरे घर पर आते रहते थे और मेरा उन पर कोई अधिकार या नियंत्रण नहीं था और मैं उनमें से किसी को भी अपने से अलग नहीं कर सकता था। वो सेलफोन का जमाना नहीं था। काम से घर लौटने पर ही मुझे मेहमानों के आने का पता चलता था।

मुझे लगता था मुंबई आने वाले सभी मेहमान मेरे घर में “अतिक्रमण’ करने लगे हैं और मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि मैं उस घर का मालिक हूं। मां के निधन के कुछ दिनों बाद उन लोगों का आना-जाना बिल्कुल बंद हो गया।

तभी मैंने उनकी चारपाई के नीचे रखा उनका ब्रीफकेस खोला। उसमें उनके विटामिन और कैंसर-रोधी गोलियां, गुलाब जल और ग्लिसरीन की बंद शीशियां थीं। साथ ही उसमें मैसूर चंदन साबुन था जिसे खोला नहीं गया था, कुछ श्लोकों की किताबें थीं जिनका वो रोज पाठ करती थीं और कुछ ऐसे अंतर्देशीय पत्र, जिन्हें पोस्ट नहीं किया गया था।

उनमें से कुछ आधे लिखे थे, जबकि कुछ डाक से भेजने के लिए तैयार थे। और सूटकेस के कोने में उनकी डायरी थी, जिसे वो रोज लिखती थीं। डायरी में मेरे लिए एक चिट्ठी थी, जिसमें मुझे बताया गया था कि उनके जाने के बाद मुझे क्या करना है।

उस डायरी में वो तमाम बातें थीं, जिन पर वो दृढ़ता से विश्वास करती थीं। उसमें उनके ईश्वर की ओर से उनके बेटे के लिए निर्देश थे, जिसे अब जिंदगी भर उनकी बेटी का ख्याल रखना था। उनसे मिलने के लिए आने-जाने वालों की भीड़ के लिए वो डायरी शायद कोई मायने न रखती हो, लेकिन मुझे उसमें उनकी झलक दिखती थी।

उनकी पूरी जिंदगी उस डायरी में शुरू होकर खत्म हो जाती थी। मैं उसे उस तरह नहीं पढ़ता था, जैसे अखबारों के अपने लेख पढ़ता हूं। वो मेरे लिए किसी पवित्र-ग्रंथ की तरह थी। उसका हर पन्ना पढ़ने में वक्त लगता था, क्योंकि उसमें ऐसा कुछ होता था, जिसके मायनों को मुझे समझना होता था। उन्होंने अपने बच्चों से जो अपेक्षाएं की थीं, उनमें से बहुतों के लिए मैं तब तैयार नहीं था। कुछ हद तक अब भी तैयार नहीं हूं।

मैं उन लोगों में से हूं, जो हर चीज को साफ कर देते हैं। मैं उस स्कैंडिनेवियाई दर्शन में विश्वास करता हूं, जिसे “डेथ क्लीनिंग’ कहते हैं। यह फलसफा कहता है कि जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ती है, हमें अपनी चीजें कम करनी शुरू कर देनी चाहिए। लंबे समय तक मेरा भी मानना था कि हमें अपने पीछे कुछ भी ऐसा बेतरतीब छोड़कर नहीं जाना चाहिए, जिसे बाद में दूसरों को साफ करना पड़े।

लेकिन बाद में मुझे लगा कि यह दर्शन सच नहीं था, क्योंकि मां के जाने के बाद वह डायरी मेरी सबसे बड़ी संपत्ति बन गई। उसमें ऐसे कई पेपर-नैपकिन थे, जिन पर उन्होंने कुछ लिख रखा था। उनमें से कोई भी करीने से फोल्ड किया हुआ नहीं है।

पेपर-नैपकिन की क्रीजिंग मुलायम है और लिखावट कई जगहों पर धुंधली हो गई है। केवल मैं ही उन सिलवटों में उनकी उपस्थिति को महसूस कर सकता हूं और इसीलिए आज तीन दशक बाद भी मैं उन्हें समझ सकता हूं! मेरी बहन के जन्म के दस साल बाद, वर्ष 1978 में उन्होंने एक पन्ने पर लिखा था- “मैं उसे गाना और नृत्य सिखाऊंगी।’ किसी कारण से वो ऐसा नहीं कर पाईं। लेकिन आज मेरी बहन की बेटी कोरियोग्राफर है, वो अमेरिका तक में कार्यक्रम करती है और लगभग रोज यात्रा करती है।

हाल ही में मैंने मां की डायरी में एक पन्ना जोड़ा, जिसमें लिखा- “अम्मा, आपने आखिरकार अपनी पोती को गाना और नाचना सिखा ही दिया।’ ऐसे कई नोट्स हैं, जो आज हम भाई-बहन की जिंदगी में हकीकत बन गए हैं। शुरू में मुझे लगा था कि उनकी डायरी बेतरतीब विचारों से भरी है। लेकिन आज मुझे लगता है कि यह हम बच्चों के लिए सुव्यवस्थित तरह से तैयार किया गया एक ब्लूप्रिंट है, जिसे हम अमल में ला सकते हैं।

फंडा यह है कि शुरुआत में माता-पिता का प्यार एक अस्त-व्यस्त और अराजक दुनिया के कुछ टुकड़ों जैसा लगता है। लेकिन अगर आप उसे पढ़ने का समय दें, तो समय के साथ वह एक संगीतमयी सिम्फनी का रूप ले लेता है। उसे शांति से पढ़ें, वह आपको मंत्रमुग्ध कर देगा और आपको प्रकाश की ओर ले जाएगा।

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