Shekhar Gupta’s column – Why did such a situation arise with America? | शेखर गुप्ता का कॉलम: अमेरिका के साथ ऐसी नौबत क्यों आई?

17 मिनट पहले
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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’
इन दिनों दुनियाभर में ट्रम्प का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जा रहा है। हम भी इसमें अपनी तरफ से योगदान दे रहे हैं। लेकिन सोशल मीडिया वाली ट्रम्पियन कूटनीति से रक्षा करने के लिए सबसे पहले हमें अपने सत्तातंत्र के अंदर के विमर्श में जो विरोधाभास हैं, उनका विश्लेषण करना होगा। आप 2014 से शुरू कर सकते हैं। यह वो समय था, जब हमारा सत्तातंत्र एक ताकतवर नेता के लिए 30 वर्षों से इंतजार के खत्म होने का जश्न मना रहा था।
चेतावनी की पहली घंटी तब बजी जब शी जिनपिंग की फौज दक्षिणी लद्दाख के चुमार इलाके में टहलने के लिए आ पहुंची। यह लगभग उसी समय हुआ जब हम अहमदाबाद में शी की खातिरदारी कर रहे थे। एक नई दुनिया में भारत ने ऐसी ताकत के रूप में कदम रखा था, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती और जो बहुध्रुवीकरण और बहु-गुटबंदी का पाठ पढ़ा रहा था। चरम स्थिति 2023 में आई, जिस साल जी-20 का आयोजन हुआ।
इस समय तक दुनिया में भारत के ही चर्चे होने लगे थे। जल्द ही वह दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहा था, ‘क्वाड’ की धुरी बन गया था, इस सबसे भी उल्लेखनीय बात यह थी कि हम किसी संधि से बंधे नहीं थे। हम उन महज चार देशों में शुमार थे, जो चीन की आंखों में आंखें डालकर देख सकते थे और जिसने अपनी 3,488 किमी लंबी सीमाओं पर एक लाख सैनिकों को तैनात कर रखा था।
भारत अंततः अपनी ताकत का प्रदर्शन कर रहा था, जो अपने चरम पर तब दिखा, जब भारत मंडपम में मोदी से हाथ मिलाने और गले लगने के लिए जी-20 देशों के शासनाध्यक्ष कतार में खड़े नजर आए। भारत दुनिया को और खास तौर से पश्चिम को उपदेश पिला रहा था। यह सब मिलकर सत्तातंत्र के विरोधाभास के दो ध्रुवों का पहला ध्रुव बनाता है। दूसरा ध्रुव तब उभरता है जब जी-20 शिखर सम्मेलन में अमेरिका, कनाडा और दबे रूप से ब्रिटेन के साथ रिश्ते में खटास उभरती है। निज्जर-पन्नू मसले की छाया उभरी, लेकिन ट्रूडो के कनाडा को छोड़ किसी ने कोई हंगामा नहीं खड़ा किया।
पहला झटका तब लगा, जब तत्कालीन अमेरिकी राजदूत एरिक गार्सेटी ने घोषणा की कि बाइडन को नई दिल्ली में जनवरी में होने वाले क्वाड शिखर सम्मेलन के लिए आमंत्रित किया गया है और गणतंत्र दिवस की परेड में मुख्य अतिथि बनने का भी न्योता दिया गया है। उन्होंने इसे रद्द कर दिया, तो फ्रांस के राष्ट्रपति ने हमें शर्मिंदगी से बचा लिया। इस समय तक हमारा विरोधाभास उभर आया था और उसमें वृद्धि हो रही थी। एक दशक तक यही धारणा बनी रही कि पश्चिमी खेमा भारत को एक महत्वपूर्ण रणनीतिक सहयोगी मानता है।
चीन के साथ उत्तर-पश्चिमी और पूर्वी सेक्टरों में तनाव के दौरान अमेरिकी मदद की खामोश स्वीकृति भी उभरी। अपनी ताकत को फिर से याद किया जाने लगा। यह कि पश्चिम हमारे प्रति उग्र रवैया रखता है, वह ‘आत्मनिर्भर भारत’ के उत्कर्ष को मंजूर नहीं कर सकता, आदि-इत्यादि। एक दशक तक तो हम खुद को पश्चिम का अपरिहार्य, अनिवार्य, स्वाभाविक सहयोगी मानकर खुश होते रहे लेकिन अब उसके प्रति इंदिरा युग वाली चिढ़ उभरने लगी थी।
रूस से तेल की खरीद को चुपचाप एक स्वाभाविक प्रक्रिया, प्रतिबंध के तहत निर्धारित कीमत पर व्यावहारिक खरीद मान लेने की जगह इसे अपनी रणनीतिक स्वायत्तता के प्रमाण के रूप में उछाला गया। पिछले साल लगभग इसी समय पीड़ित होने का भाव इससे पहले के जोश पर हावी होने लगा था। शेख हसीना के पतन के लिए अमेरिका, उदारवादी प्रतिष्ठानों और क्लिंटन-ओबामा के ‘डीप स्टेट’ (गुप्त मंडली) को जिम्मेदार बताया जाने लगा।
लेकिन उन सबने निश्चित ही अपने हिसाब से लोकतांत्रिक शक्तियों की उसी तरह मदद की, जिस तरह ‘अरब स्प्रिंग’ की की थी। इसने दो तरह से हमें नुकसान पहुंचाया। एक तो यह कि 1998 के बाद 25 वर्षों में हमने अमेरिका से नए रिश्ते जोड़ने के लिए जो निवेश किए, वे बेकार गए।
दूसरे, हम खुद को इतना प्रताड़ित मानने लगे कि यह समझने की भी कोशिश नहीं की कि हमारी कूटनीति इतनी आसानी से कैसे हार गई। भारत ने बांग्लादेश में भारी निवेश किया था और यह केवल व्यापार के क्षेत्र में नहीं था। दोनों देशों ने सीमा समझौता भी खुले दिल से किया था। भारत हर साल 20 लाख से ज्यादा बांग्लादेशियों को वीजा जारी कर रहा था। किसी को भनक नहीं लगी कि हसीना कितनी अलोकप्रिय हो गई थीं।
कड़वी हकीकत यह है कि बांग्लादेश का हसीना विरोधी नेटवर्क और पाकिस्तान- दोनों अमेरिका से बेहतर तरीके से निबटे। यह तब था जब हम अमेरिका में प्रवासी भारतीयों के उत्कर्ष का जश्न मनाते रहे हैं, टॉप सीईओ के पदों पर और अमेरिकी राजनीति के कुछ सितारों में भारतीय मूल के व्यक्तियों की गिनती करते रहते हैं। ये हस्तियां हमारी बड़ी पैरोकार बनें, इसके लिए हमारी कूटनीति को उन्हें जोड़ने की कोशिश करनी पड़ेगी। हमें लगता है हर कोई हमारे खिलाफ है। लेकिन हम कहते हैं कि कोई बात नहीं, हम अकेले ही लड़ेंगे। यह हमारे विरोधाभास का दूसरा पहलू है।
अफसोस की बात यह है कि हम नई हकीकत का आकलन किए बिना और उसका माकूल जवाब दिए बिना पीछे लौटने को तैयार हैं। संसद में हुई बहस ने साफ कर दिया कि हम अभी भी शीतयुद्ध वाले नारों में उलझे हैं। पाकिस्तान को सद्बुद्धि देने और उसे खुद को विनाश से बचाने की सलाह देने के लिए ट्रम्प को धन्यवाद दिया जाता तो इससे कोई नुकसान नहीं पहुंचता। ट्रम्प को झूठा बताने के संकेत देने की जगह संसद में यह बयान दिया जा सकता था।
ऐसा क्यों नहीं हुआ? क्योंकि राहुल गांधी ने संघर्ष विराम होने के चंद घंटे के भीतर ही पहला वार कर दिया कि सरकार ने मध्यस्थता स्वीकार की। राहुल सरकार को अपना एजेंडा बदलने के लिए अक्सर उकसाते रहते हैं। यह सब पीड़ित होने के गहरे भाव में और इजाफा ही करता है।
क्या हम नई हकीकत का आकलन कर पा रहे हैं?…

हमें लगता है हर कोई हमारे खिलाफ है। लेकिन हम कहते हैं कि हम अकेले ही लड़ेंगे। यह हमारे विरोधाभास का दूसरा पहलू है। अफसोस की बात यह है कि हम नई हकीकत का आकलन किए बिना और उसका माकूल जवाब दिए बिना पीछे लौटने को तैयार हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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