Thursday 09/ 10/ 2025 

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Dr. Chandrakant Lahariya’s column – What to do with those who don’t even know that they don’t know? | डॉ. चन्द्रकान्त लहारिया का कॉलम: उनका क्या करें जो यह भी नहीं जानते कि वो नहीं जानते हैं?

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6 घंटे पहले

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डॉ. चन्द्रकान्त लहारिया, जाने माने चिकित्सक - Dainik Bhaskar

डॉ. चन्द्रकान्त लहारिया, जाने माने चिकित्सक

साल 1995 में अमेरिका के पिट्सबर्ग शहर में बन्दूक की नोक पर दिन-दहाड़े दो बैंक लूटे गए। खास बात यह थी कि दोनों ही घटनाओं में लुटेरों ने अपने चेहरे को ढका नहीं था, बल्कि वे कैमरे में अपना चेहरा दिखाकर मुस्करा रहे थे। बाद में जब दोनों पकड़े गए तो उन्होंने बताया कि उन्होंने अपने चेहरों पर नींबू के रस का लेप लगा रखा था।

दोनों लुटेरों में से एक ने बचपन में नींबू के रस से कागज पर लिखने का खेल- जिसमें लिखे गए शब्द अदृश्य रहते हैं- खेला था। बचपन के उस अनुभव के आधार पर उसे लगा था कि जिस तरह नींबू का रस कागज पर शब्दों को अदृश्य कर देता हैं, उस दिन नींबू के लेप से उनके चेहरे भी सर्विलांस कैमरों में अदृश्य होने चाहिए थे!

दिन-दहाड़े इस तरह की बैंक लूट अमेरिका और कई देशों में एक बड़ी खबर थी। जब मिशिगन विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग के प्रोफेसर डेविड डनिंग ने यह पूरी घटना सुनी तो इस पर शोध करने का निर्णय लिया और अपने स्नातक छात्र जस्टिन क्रुगर को उस शोध में जोड़ा। 1999 में वे अपने शोधपत्र “अनस्किल्ड एंड अनअवेयर ऑफ इट’ में इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जब किसी विषय या विशेष क्षेत्र में लोगों का ज्ञान या क्षमता सीमित या कम होती है तो वे अपनी क्षमताओं को अधिक आंकने या उसे अच्छे से समझने की भूल में रहते हैं।

यह कॉग्निटिव बायस या एक प्रकार का संज्ञानात्मक पूर्वग्रह है, जिसे अब “डनिंग-क्रुगर प्रभाव’ के नाम से जाना जाता है। अपने दैनिक जीवन में हम अक्सर ऐसे लोगों से मिलते हैं, जिनके पास कुछ विशेष क्षेत्रों के बारे में सीमित ज्ञान होता है या बिलकुल भी ज्ञान नहीं होता, फिर भी वे उस बारे में आत्मविश्वास से भरे होते हैं और उन पर विस्तार से बात कर सकते हैं। जर्मन-अमेरिकी लेखक चार्ल्स बुकोवस्की ने इसे बहुत अच्छे से वर्णित किया है कि दुनिया की समस्या यह है कि बुद्धिमान लोग हमेशा संदेह से भरे रहते हैं, जबकि मूर्ख आत्मविश्वास से।

महात्मा गांधी जब जनवरी 1915 को दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे तो वे करीब 22 साल देश से बाहर रहकर आ रहे थे। गोपाल कृष्ण गोखले ने उन्हें सलाह दी कि किसी भी राजनीतिक गतिविधि में शामिल होने से पहले देशभर में एक साल यात्रा करके देश और उसके लोगों को समझें। गांधी ने यही किया भी। इसमें कोई संदेहनहीं है कि किसी भी चीज की अच्छी समझ विकसित करने से पहले समय, प्रयास, समर्पण और संसाधनों की आवश्यकता होती है।

जब रामायण में राम और लक्ष्मण को शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुरुकुल भेजा गया था, तब भी यही विचार रहा होगा। भारतीय दर्शन में इस बात का काफी उल्लेख है कि बिना प्रयास के प्राप्त की गई वस्तु अच्छी नहीं होती। लेकिन अब समय बदलता नजर आ रहा है। इंस्टेंट कॉफी या नूडल्स का तो पहले भी समय था, लेकिन हम एआई और चैटजीपीटी के युग में प्रवेश कर चुके हैं।

ऐसे में हर कोई बिना मेहनत और कोशिशों के हर विषय का ज्ञानी बनता नजर आ रहा है। आपने भी अकसर देखा होगा कि लोग जिस विषय को गहराई से नहीं समझते हैं, चर्चाओं में उसी पर सबसे ज्यादा बोलते हैं। इस चुनौती का एक चिंताजनक प्रभाव अकादमिक और विश्वविद्यालयीन शिक्षा और शोध पर भी पड़ रहा है।

साइंटिफिक जर्नल में छपे शोधपत्रों को करियर ग्रोथ के लिए जरूरी कर दिया गया है। गुणवत्ता के​ बजाय संख्या पर बहुत ध्यान दिया जाता है, जिसका परिणाम प्रकाशन के लिए होड़ में होता है। नतीजा है जर्नलों में चैटजीपीटी-जनरेटेड या चुराए हुए कंटेंट वाले लेख छपने लगे हैं। भारत के एक निजी विश्वविद्यालय ने वैज्ञानिक शोधपत्रों को वापस लेने के लिए दुनिया में नंबर 1 होने का श्रेय पाया है।

एआई उपयोगी जरूर साबित होगा, लेकिन हर क्षेत्र में नहीं। जब बात ज्ञान की आती है तो इसमें कोई भी शॉर्टकट नहीं है। जो सच में ही सीखना चाहते हैं, वो तो ज्ञान अर्जित करने के रास्ते निकाल लेते हैं, लेकिन उनका क्या किया जाए जो यह भी नहीं जानते कि वो नहीं जानते हैं? इसके लिए सामाजिक स्तर पर चिंतन, मनन और मीमांसा करनी होगी। लेकिन सबसे पहले हमें- व्यक्तिगत स्तर पर- सीखने, कम बोलने या उसी के बारे में बोलने, जिसे हम अच्छे-से जानते-समझते हैं, की आदत डालनी होगी।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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