Chetan Bhagat’s column – Standing up for yourself is as important as standing up for others | चेतन भगत का कॉलम: अपने लिए खड़ा होना उतना ही जरूरी, जितना दूसरों के लिए

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2 घंटे पहले
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चेतन भगत, अंग्रेजी के उपन्यासकार
मनुष्यों की तरह देशों को भी ठोस रुख अपनाने की जरूरत होती है, ताकि कोई उनका अनुचित फायदा न उठा सके। खासकर उन देशों के लिए यह और जरूरी है, जो अधिक प्रतिष्ठा और शक्ति की आकांक्षा रखते हैं। उदाहरण के लिए, एक देश द्वारा दूसरे देश पर लगाए गए प्रतिबंधों की अनदेखी करना उसकी दृढ़ता का संकेत हो सकता है। जलवायु-परिवर्तन लक्ष्यों की अवहेलना करना भी इसका संकेत हो सकता है।
अपने परमाणु हथियार कार्यक्रम को समाप्त करने से इनकार करके भी कोई देश अपनी मजबूती का सबूत दे सकता है। इसके कुछ और उदाहरण हैं, किसी महाशक्ति के नेतृत्व वाले गुट से जुड़ने से इनकार, विरोध के बावजूद सैन्य कार्रवाई करना या टैरिफ की धमकियों को महत्व नहीं देना! चाहे व्यक्ति हों या राष्ट्र, एक निश्चित स्तर की दृढ़ता आवश्यक है, नहीं तो दुनिया आपको हाशिए पर धकेल देगी। दृढ़ता का प्रतिशत हमारी बढ़ती ताकत के अनुपात में बढ़ता है।
उदाहरण के लिए, आज का चीन तीन दशक पहले की तुलना में कहीं अधिक मुखर है। यह आर्थिक उत्पादन, सैन्य क्षमता और मैन्युफैक्चरिंग में उसकी बढ़ी ताकत से हुआ है। भारत भी- खासकर पिछले दो-तीन दशकों में- पहले से अधिक मुखर हुआ है। परमाणु समझौते से लेकर रणनीतिक गुटनिरपेक्षता और क्वाड तथा ब्रिक्स की सदस्यता तक- भारत पहले की तुलना अपने लिए कहीं ज्यादा दृढ़ता से खड़ा होता आ रहा है।
आज यह स्थिति है कि भारत के साहसिक निर्णयों के बारे में सोशल मीडिया पर जोरदार घोषणाएं की जाती हैं, स्थानीय मीडिया इन्हें जोर-शोर से पेश करता है, अक्सर इन्हें छोटी कूटनीतिक जीत के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। ये सार्वजनिक घोषणाएं राजनीतिक हितों की भी पूर्ति करती हैं। लेकिन इसके साथ ही इस बात का खतरा बढ़ जाता है कि कहीं हम सीमाएं ना लांघने लगें। जब हम दूसरों को शर्मिंदा या अपमानित करने लगते हैं तो इससे समस्याएं पैदा होती हैं।
यह दूसरे देशों को हमसे अलग-थलग कर सकता है, जिससे भविष्य में उनके साथ संबंध बहाल करना या व्यापार करना मुश्किल हो जाता है। हमें मालूम होना चाहिए कि हमें कब हठधर्मिता करनी है, बल्कि यह भी जानना जरूरी है कि कितनी करनी है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज भारत तेजी से विकास कर रहा है। हम अब वैसा देश नहीं रह गए हैं, जैसे कि 30 साल पहले हुआ करते थे।
हालांकि हमारी प्रति व्यक्ति आय अभी भी अपेक्षाकृत कम है और कुछ दूसरे देशों की तुलना में हमारा वैश्विक प्रभाव सीमित है। अगर हम अगले दो दशकों तक प्रगति करते रहे और दूसरों से बेहतर प्रदर्शन करते रहे, तो जाहिर है कि हमारे पास मुखर होने की ज्यादा गुंजाइश होगी। लेकिन फिलहाल हमें अपनी वैश्विक स्थिति के अनुसार उसे परखना चाहिए। साथ ही दृढ़ता का हमेशा एक स्पष्ट, रचनात्मक उद्देश्य होना चाहिए- दूसरों का अपमान करना नहीं।
चीनी संस्कृति में गुआंशी की अवधारणा है, जिसमें सम्मान देने का विचार शामिल है। इसका अर्थ है कि बातचीत या असहमति में भी हमेशा दूसरे पक्ष का सम्मान करना चाहिए और उन्हें नीचा दिखाने से बचना चाहिए।
कूटनीति और विदेश नीति में- मानवीय रिश्तों की तरह- दो बातों पर ध्यान देने की खास जरूरत होती है : दृढ़ता और समायोजन। एक ऐसा व्यक्ति अकसर ज्यादा सफलताएं अर्जित करता है, जिसके दूसरों से मजबूत और पेशेवर संबंध हों, बनिस्बत उस व्यक्ति के जो अकेले ही आगे बढ़ने पर अड़ा रहता है। यहीं पर समझौता करना जरूरी हो जाता है। कभी-कभी हमें महत्वहीन मुद्दों पर भी समझौता करना पड़ता है। ऐसा करके हम अपनी एक “गुडविल’ ही बनाते हैं। समझदार व्यवसायी और राजनेता इस बात को अच्छी तरह से समझते हैं।
वे दूसरों की मदद करके अपना नेटवर्क मजबूत करते हैं, जिसका वे जरूरत पड़ने पर रणनीतिक रूप से इस्तेमाल कर सकते हैं। भारत को भी ऐसे अवसरों की तलाश करनी चाहिए, जहां वह अपनी स्वतंत्रता से समझौता किए बिना दूसरे देशों के लिए मददगार या सहायक हो सके। किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति से पूछें, और वे आपको बताएंगे कि जीवन देने और लेने का एक सिलसिला है। यही बात अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर भी लागू होती है। कई देशों और नेताओं के पास आज ऐसी विशिष्ट परियोजनाएं या एजेंडे हैं, जिनमें भारत एक मददगार भूमिका निभा सकता है।
- सही संतुलन जरूरी है : यह कि कब अपने लिए खड़ा होना है और कब दूसरों का साथ देना है। हमारी विदेश नीति में भी यह संतुलन होना चाहिए और बदलती हकीकतों के अनुसार इसे नियमित रूप से संशोधित करने में हर्ज नहीं है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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