Prof. Chetan Singh Solanki’s column – Why are natural disasters like Uttarakhand continuously increasing? | प्रो. चेतन सिंह सोलंकी का कॉलम: उत्तराखंड जैसे प्राकृतिक हादसे लगातार क्यों बढ़ते जा रहे हैं?

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8 घंटे पहले
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प्रो. चेतन सिंह सोलंकी आईआईटी बॉम्बे में प्रोफेसर
उत्तराखंड में बादल फटने की घटना से जो सैलाब उमड़ा और कहर बरपा, वह अपने तरह की कोई अकेली घटना नहीं है। पिछले साल हिमाचल प्रदेश में भी ऐसी ही अचानक आई बाढ़, वायनाड में भूस्खलन, वड़ोदरा में बाढ़ के दृश्य देखे गए और दुनियाभर में भी, दुबई जैसे रेगिस्तानी शहरों में बाढ़ और लॉस एंजेलिस शहर की भयावह आग की घटना देखी गई थी।
डाउन टु अर्थ मैगजीन की रिपोर्ट के अनुसार, भारत को 2024 में 366 में से 322 दिनों में चरम मौसम की घटनाओं का सामना करना पड़ा था। हमें इन आपदाओं को अपवाद मानना बंद करना होगा। ये नया नियम बन गए हैं।
सवाल यह नहीं है कि उत्तरकाशी क्यों हुआ, बल्कि यह है कि यह इतनी बार और इतनी तीव्रता से क्यों हो रहा है। क्या यह एक बार की त्रासदी है, जिसे हम भूलकर आगे बढ़ सकते हैं? या यह आगे आने वाली बड़ी आपदाओं का संकेत है?
भारत भर में अपनी ऊर्जा स्वराज यात्रा के दौरान, मैंने सैकड़ों सभाओं में एक साधारण-सा सवाल पूछा है : “हमें कितना विकास करना चाहिए? हमें कब तक विकास करना चाहिए?’ और आश्चर्य की बात है कि किसी के पास भी- न प्रोफेसर, न पालक, न नीति-निर्माता, न अर्थशास्त्री, न वैज्ञानिकों के पास इसका जवाब मिलता है।
फिर भी हर कोई जोर देकर कहता है, हमें विकास करना ही होगा। सरकारें ज्यादा जीडीपी ग्रोथ चाहती हैं। कॉर्पोरेट ज्यादा मुनाफा चाहते हैं। लोग बड़े घर और तेज चलने वाली कारें चाहते हैं। लेकिन कोई भी इसकी सीमा तय करने को तैयार नहीं है।
यह ठीक वैसा ही है, जैसे बिना ब्रेक वाली गाड़ी चलाना। और हम जानते हैं इसका अंत कैसे होता है। अंतहीन विकास का जुनून इस कदर हमारे ऊपर छाया है कि हम रुकने के लिए भी तैयार नहीं हैं। हम आर्थिक और तकनीकी विस्तार की दौड़ में फंसे हुए हैं, बिना एक बुनियादी सवाल पूछे कि क्या हम सही दिशा में बढ़ रहे हैं?
दरअसल, गति इतनी तेज है कि किसी के पास रुककर और चिंतन करने का समय ही नहीं है। आज, कृत्रिम बुद्धिमत्ता और मोबाइल नेटवर्क जैसी तकनीकें तेजी से आगे बढ़ रही हैं- फिर भी जिस हवा में हम सांस लेते हैं, जिस पानी को हम पीते हैं और जिस मिट्टी पर हम निर्भर हैं, वह पहले से कहीं ज्यादा तेजी से क्षीण हो रही है। जो कुछ भी जीवित रहने के लिए जरूरी नहीं है, वह बढ़ रहा है और जो कुछ भी जीवित रहने के लिए जरूरी है, जैसे हवा, पानी और मिट्टी, वह क्षीण हो रहा है।
अगर जीवन को सहारा देने वाली हर चीज डी-ग्रेड हो रही है, तो हम कैसे स्वस्थ और स्थिर जीवन जी सकते हैं? इन सबके पीछे विज्ञान है। हमारा ग्रह गर्म हो रहा है। जिन लोगों ने आंकड़ों पर ध्यान नहीं दिया है, उनके लिए बता दूं कि 2024 मानव इतिहास का सबसे गर्म साल था। शरीर के तापमान में मात्र 2 डिग्री की वृद्धि से हमें बुखार आ जाता है। हम ठीक से खा नहीं पाते, काम नहीं कर पाते, या आराम नहीं कर पाते। लेकिन 1850 के बाद, यानी औद्योगीकरण के बाद से पृथ्वी लगभग 2.5 डिग्री गर्म हो गई है।
कह सकते हैं कि पृथ्वी को बुखार आया है- और यह संतुलन खो रही है। जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) हमें दशकों से चेतावनी दे रहा है। अगर ग्लोबल वार्मिंग का लेवल 2 डिग्री को पार कर जाएगा तो क्लाइमेट में परिवर्तन अपरिवर्तनीय हो जाएगा। उसके बाद मनुष्यों का कोई भी प्रयास क्लाइमेट चेंज को ठीक नहीं कर पाएगा।
चिंता की बात यह है कि आईपीसीसी के अनुसार हम 2045 से 2050 तक 2 डिग्री की ग्लोबल वार्मिंग को क्रॉस कर जाएंगे। 20 से 25 सालों में। और फिर भी ऐसा लगता है कि दुनिया सो रही है। हम क्या कर रहे हैं? विश्व के नेता क्या कर रहे हैं? 29 वर्षों से वे हर साल सीओपी मीटिंग में कार्बन उत्सर्जन को कम करने की चर्चा के लिए मिलते हैं। और फिर भी, हर साल, वैश्विक कार्बन उत्सर्जन बढ़ रहा है, हर साल।
भारत अब चीन और अमेरिका के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक देश बन गया है। इसका मतलब है कि 192 देश हमसे कम उत्सर्जन करते हैं। भारत ने 2070 तक नेट जीरो तक पहुंचने का लक्ष्य रखा है- यानी 2 डिग्री के अनुमानित तापमान बढ़ने के पूरे 20 साल बाद। यह तो घर जल जाने के बाद फायर ब्रिगेड भेजने जैसा है!
- बाढ़ और भूस्खलन से गांव तबाह हुए, मंदिर मलबे में दब गए, घर और होटल कागज की तरह बह गए। कुछ लोगों ने अपनी जानें गंवा दी हैं, बहुत सारे लोग अब भी लापता हैं। ऐसा क्यों हुआ और क्या यह फिर से नहीं होगा?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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