Thursday 09/ 10/ 2025 

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Jean Dreze’s column – What will happen to democracy if there is no right to vote? | ज्यां द्रेज का कॉलम: वोट देने का ही हक न रहेगा तो लोकतंत्र का क्या होगा?

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4 घंटे पहले

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ज्यां द्रेज प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री व समाजशास्त्री - Dainik Bhaskar

ज्यां द्रेज प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री व समाजशास्त्री

बिहार में विधानसभा चुनाव नजदीक हैं। लेकिन फिलहाल सबका ध्यान राजनीतिक गठबंधनों या पार्टी घोषणापत्रों पर नहीं, मतदाता-सूची पर है। इस मतदाता-सूची की तैयारी पर बड़ा विवाद हो रहा है। बिहार में पहले से ही एक मतदाता-सूची है, जो उचित प्रक्रिया से तैयार की गई है। हम इसे आधार-सूची कह सकते हैं।

24 जून 2025 को, भारत निर्वाचन आयोग ने अचानक एक नई मतदाता-सूची तैयार करने का आदेश जारी कर दिया। यह नई सूची मुख्यतः आधार-सूची का सत्यापन करके तैयार की जा रही है। बूथ लेवल ऑफिसर (बीएलओ) को उस आधार-सूची में शामिल सभी लोगों को एक फॉर्म देना है, जिसमें आधार-सूची की उनकी जानकारी पहले से छपी है। बीएलओ से अपेक्षा की जाती है कि वह यह फॉर्म भरने में उनकी मदद करें, उनकी फोटो और हस्ताक्षर लें, और फॉर्म अपलोड करें।

यह सब एक महीने के भीतर (26 जुलाई तक) बिना किसी खास तैयारी के होना था। ऐसे में आप अफरातफरी का अंदाजा लगा सकते हैं। मिल रही सूचनाओं के आधार पर समय के दबाव में बीएलओ अकसर नियम तोड़ रहे हैं।

कई बार सिर्फ आधार कार्ड और फोन नंबर इकट्ठा कर रहे हैं और फर्जी हस्ताक्षर के साथ फॉर्म अपलोड कर रहे हैं। यह बात कई स्रोतों से पता चली है, जैसे 21 जुलाई को पटना में हुई एक जनसुनवाई, कुछ मीडिया रिपोर्ट्स और भारत जोड़ो अभियान का एक सर्वेक्षण।

जिन लोगों ने फॉर्म भर दिया, वे सभी 1 अगस्त को जारी की गई मसौदा मतदाता-सूची में शामिल हैं। इस सूची में केवल 7.24 करोड़ मतदाता हैं, जबकि आधार-सूची में यह संख्या 7.89 करोड़ थी। जैसा कि राहुल शास्त्री और योगेंद्र यादव ने दर्शाया, इसका मतलब यह है कि मसौदा मतदाता-सूची बिहार की अनुमानित वयस्क आबादी के केवल 88% को ही कवर करती है, जबकि आधार-सूची में यह संख्या 97% थी। दूसरे शब्दों में, लाखों लोग बिहार की मसौदा मतदाता-सूची से वंचित हैं। (अखिल भारतीय स्तर पर, मतदाता-सूचियां अनुमानित वयस्क आबादी के 99% को कवर करती हैं।)

लेकिन यह तो ट्रेलर है। अगले चरण में, लोगों से 11 पहचान-पत्रों में से कम से कम एक जमा करने की अपेक्षा की जा रही है। इन दस्तावेजों में दसवीं कक्षा का प्रमाण-पत्र, स्थायी निवास प्रमाण-पत्र, जाति प्रमाण-पत्र, पासपोर्ट आदि शामिल हैं। कई लोगों के पास इनमें से कोई भी दस्तावेज नहीं हैं। उनका क्या होगा, यह स्पष्ट नहीं है।

इन दस्तावेजों को इकट्ठा करने का उद्देश्य क्या है? चुनाव आयोग का 24 जून का आदेश इस बारे में बहुत स्पष्ट नहीं है। लेकिन 21 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में आयोग द्वारा पेश किए गए हलफनामे से यह बात स्पष्ट हो जाती है। हलफनामे में दो महत्वपूर्ण बातें कही गई हैं।

पहली, चुनाव के संदर्भ में लोगों की नागरिकता सत्यापित करना आयोग का अधिकार और कर्तव्य है। दूसरी, नागरिकता का प्रमाण नागरिकों को ही प्रस्तुत करना है। लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे ऐसे दस्तावेज प्रस्तुत करें, जिनसे तय हो सके कि वे नागरिक हैं या नहीं। दोनों ही दावे खतरनाक हैं।

अब तक मतदाताओं से उनकी नागरिकता साबित करने के लिए कभी नहीं कहा गया था। मतदाता-सूचियों को यथासंभव समावेशी होना चाहिए। केवल तभी जांच की आवश्यकता हो सकती है जब किसी की नागरिकता के बारे में गहरा संदेह हो। चुनाव आयोग इस सिद्धांत को उलटने की कोशिश कर रहा है।

आम लोग अपनी नागरिकता कैसे साबित करेंगे? एक-दो छोड़कर, चुनाव आयोग द्वारा सूचीबद्ध 11 दस्तावेजों में से कोई भी नागरिकता को साबित नहीं करता। इसके अलावा बहुत लोगों के पास इनमें से कोई भी दस्तावेज नहीं है। अंततः, प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के निर्वाचन पंजीकरण अधिकारी (ईआरओ) को पूरा अधिकार दिया गया है यह तय करने का कि वे किसी व्यक्ति के नागरिक होने से संतुष्ट हैं या नहीं। यहीं पर मनमानी का बड़ा खतरा पैदा हो जाएगा।

ये खतरे बिहार चुनाव के बाद भी कायम रहेंगे। याद रहे, यह विशेष गहन पुनरीक्षण पूरे देश में होना है। साथ ही, यह प्रक्रिया अन्य संदर्भों में भी लोगों की नागरिकता पर सवाल उठाने का रास्ता खोल रही है। यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि इस उत्पीड़न के मुख्य शिकार कौन होंगे!

लोगों से अपेक्षा की जा रही है कि वे ऐसे दस्तावेज प्रस्तुत करें, जिनसे तय हो सके कि वे नागरिक हैं या नहीं। वोटरों से उनकी नागरिकता साबित करने के लिए पहले कभी नहीं कहा गया था। मतदाता-सूचियों को तो समावेशी होना चाहिए। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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