Thursday 09/ 10/ 2025 

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महाभारत कथाः हस्तिनापुर की वंशावली, कुलवधु कैसे बनीं देवनदी गंगा? जानिए शांतनु के साथ विवाह की पूरी कहानी


महाभारत की कथा सिर्फ एक राज्य की चाहत के लिए हुए युद्ध की कथा नहीं है. यह कहानी सिर्फ एक परिवार के सदस्यों के बीच पड़ी फूट का परिणाम भी नहीं है. इस कहानी को शासन और शक्ति-सामर्थ्य के प्रदर्शन की महत्वकांक्षा भी नहीं समझना चाहिए. यह कथा इसलिए भी महान और पवित्र है, क्योंकि इसका उद्देश्य पवित्र है. वह उद्देश्य जो बताता है कि शासन किसी की निजी संपत्ति नहीं है. यह किसी परिवार का इकलौता हक भी नहीं है और सिर्फ वंश के आधार पर इसपर अधिकार नहीं जताया जा सकता है. सत्ता और सिंहासन हमेशा से योग्यता मांगते हैं और योग्य व्यक्ति ही इसका अधिकारी होता है. ‘वीर भोग्या वसुंधरा’ का सिद्धांत यहीं से आया है.

वैशंपायन जी ने राजा दुष्यंत और शकुंतला की कथा सुनाकर राजा जनमेजय से कहा- हे कुरुकुल भूषण जनमेजय! अभी तक मैं तुम्हारे पूर्वजों की कथा कह रहा था और तुम्हारे इस कुरुकुल की महानता का वर्णन कर रहा था. अब यहां से यह ‘कथा सरिता’ अपने असल कथानक में प्रवेश कर रही है, जहां तुम्हारे पूर्वज कौरवों और पांडवों की कथा कही जाएगी, क्योंकि इनका जीवन चरित्र ही कथा का वास्तविक आधार है.


वैशंपायन जी बोले- राजा दु्ष्यंत के पुत्र भरत जब चक्रवर्ती सम्राट बने और उन्होंने सारी पृथ्वी को जीत लिया, तब वह पृथ्वीपति कहलाने लगे. चारों ओर चक्रवर्ती सम्राट भरत की जय! का उद्घोष गूंजने लगा. इस महान उपलब्धि के बाद भी चक्रवर्ती भरत के मन में शांति नहीं थी. इसलिए वह देर रात तक अपने महल के बाहर चहलकदमी करते रहा करते थे. एक दिन उन्हें इसी परेशानी भरी अवस्था में माता शकुंतला ने देखा तो उनके पास आईं. उन्होंने भरत से इतनी रात गए, इस तरह परेशान होने का कारण पूछा.

तब भरत ने कहा- माता आपके आशीष और पिताश्री के प्रताप से मैं पृथ्वीपति तो बन गया, लेकिन ये निराशा दूसरी है. निराशा इस बात की है, मैं अपने नौ पुत्रों में से किसी को राज्य के उत्तराधिकारी के रूप में योग्य नहीं पाता हूं. यही मेरी परेशानी का कारण है.

महाभारत में इस प्रसंग का उल्लेख इस तरह से आया है कि सम्राट भरत ने अपने नौ पुत्रों में से किसी को राज्य के योग्य नहीं पाया तो उनकी पत्नियों ने उन शिशुओं का क्रोध में वध कर दिया. इसके बाद उन्होंने महर्षि भारद्वाज की सहायता से कई बड़े यज्ञ किए और उनकी कृपा से भूमन्यु को प्राप्त किया और उसे ही अपना युवराज घोषित किया.

हालांकि महाभारत से प्रेरित हुई अन्य रचनाओं में शिशुओं के वध का उल्लेख नहीं है. उनमें यह बताया जाता है कि भूमन्यु भारद्वाज ऋषि के पुत्र थे और उनकी योग्यता को देखते हुए सम्राट भरत ने उन्हें अपना दत्तक पुत्र घोषित किया था. उन्होंने अपने वास्तविक नौ पुत्रों को राज्य के लिए अयोग्य करार दिया था. इस तरह भरत ने शासन-सत्ता और सिंहासन पर वंश और जन्म के बजाय कर्म की महत्ता को स्थापित किया. यह कदम स्वस्थ लोकतंत्र का आधार है. इसलिए भी आपका वंश और आपके वंश में चक्रवर्ती सम्राट भरत पूजनीय कहे जाते हैं.

हे जनमेजय! अब मैं कथा को आगे बढ़ाते हुए, आपके पूर्वजों की वंश बेल का परिचय देता हूं. महाराज- पूर्वकाल में प्रजापति दक्ष ने अपनी पुत्री अदिति का विवाह कश्यप महर्षि से किया. इनके ज्येष्ठ पुत्र हुए, जिन्हें विवस्वान कहा गया है. यही सूर्यदेव हैं. विवस्वान से मनु का जन्म हुआ. मनु से इला का जन्म हुआ. इला का विवाह चंद्र पुत्र बुध से हुआ और इससे पुरुरवा का जन्म हुआ. इस तरह चंद्रवंश की स्थापना हुई. पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष, नहुष से ययाति का जन्म हुआ. ययाति की दो पत्नियां थीं. शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और असुर वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा. देवयानी के दो पुत्र हुए यदु और तुर्वसु. शर्मिष्ठा के तीन पुत्र हुए. द्रुह्ननु, अनु और पुरु.

अब यहां से दो वंश चले. यदु से यदुवंश, जिन्हें यादव कहा गया और पुरु से पौरव. पौरव की पत्नी महारानी कौसल्या से जनमेजय नाम का प्रतापी पुत्र हुआ. जिसने सारी पृथ्वी को जीत लिया और कई अश्वमेध यज्ञ किए. आपका नाम उन्हीं प्रतापी नरेश जनमेजय के सम्मान में ही रखा गया था जो आपके पूर्वज थे. इस तरह पौरव वंश आगे बढ़ता रहा. आगे चलकर इसी वंश में राजा तंसु का जन्म हुआ. तंसु के पुत्र हुए महाराज ईलिन और ईलिन के ही पुत्र थे महाराज दुष्यंत.


महाराज दुष्यंत और चक्रवर्ती भरत का चरित्र मैं आपको सुना चुका हूं. भरत ने भूमन्यु को राजा बनाया. महाभारत के अनुसार भूमन्यु भरत की ही पत्नी सुनंदा से उत्पन्न हुए थे. आगे भूमन्यु के पुत्र सुहोत्र, सुहोत्र से हस्ती का जन्म हुआ. हस्ती का नामकरण हस्तिनापुर से ही किया गया था और उन्होंने हस्तिनापुर नगर का विस्तार किया. इसलिए हस्तिनापुर भी उनके ही नाम से पहचाना जाता है.

हस्ती के पुत्र हुए विकुंठन और विकुंठन के पुत्र हुए अजमीढ़. अजमीढ़ की अलग-अलग पत्नियों से 124 पुत्र हुए, जिन्होंने आगे चलकर अलग-अलग वंशों की नींव रखी और वंश प्रवर्तक हुए. उनमें से भरतवंश (पूर्व में पुरुवंश) का प्रवर्तक हुआ संवरण. संवरण के पुत्र हुए कुरु. जिस तरह महाराज रघु के कारण सूर्यवंश रघुवंश कहलाया और श्रीराम रघुवंशी, उसी प्रकार महाराज कुरु के कारण ही पुरुवंश, भरतवंश आगे चलकर कुरुवंश कहलाया. उन्हीं के प्रताप से आप सभी कौरव कहलाते हैं.

वंशबेल बढ़ती-चलती रही और आगे इसी वंश में हुए थे महाराज प्रतीप. महाराज प्रतीप हस्तिनापुर के यशस्वी राजा हुए. एक बार की बात है. महाराज प्रतीप हरिद्वार के गंगातीर्थ क्षेत्र में साधना रत थे. इसी समय सौंदर्य में लक्ष्मी के ही समान और सुशील गुणवंती कन्या उनके समीप आई और उनकी दायीं जांघ पर बैठ गई. महाराज उसे देखते ही रह गए, फिर उन्होंने कहा- देवी आपकी क्या इच्छा है? मैं आपकी कैसे सहायता कर सकता हूं. यह सुनकर उस सुंदरी ने कहा- महाराज! मैं आपसे अनुराग का अनुभव कर रही हूं और इसलिए ही आई हूं. आप मुझे स्वीकार करें. मैं काम के अधीन हूं और ऐसी स्त्री की कामना को पूरा न करना साधु पुरुषों ने निंदनीय कहा है. यह सुनकर महाराज प्रतीप ने कहा- देवी मैं धर्म के विरुद्ध जाकर परायी स्त्री से समागम नहीं कर सकता हूं. जो मेरे वर्ण की न हो, उससे भी मैं संबंध नहीं रख सकता, ऐसा मेरा व्रत है.

सुंदर स्त्री ने कहा- महाराज! मैं अशुभ-अमंगली या कलंक लगाने वाली नहीं हूं. मैं देवलोक की दिव्य कन्या हूं. इसलिए मेरे साथ जुड़ने से आपका यश ही बढ़ेगा, ऐसा मैं आश्वासन देती हूं. यह सुनकर महाराज प्रतीप हंसे और बोले- फिर भी देवी! यह अधर्म ही होगा. इसके पीछे जो कारण मैं आपको बताने जा रहा हूं, इससे आप भी मना नहीं कर सकती हैं.

आप मेरी दायीं जांघ पर बैठी हैं. यह स्थान पुत्री का होता है. पत्नी या समागम करने वाली स्त्री वामांगी होती है. दायीं जांघ पर बैठने से आपके प्रति मेरा पितृत्व भाव ही आया है. मैं आपको पुत्री के समान देख रहा हूं. महाराज प्रतीप को इस तरह दृढ़संकल्प, कामविजयी और धर्म में दृढ़ देखकर देवी गंगा बहुत प्रसन्न हुईं. उन्होंने उनको प्रणाम किया और उनके सामने आ खड़ी हुईं.


तब महाराज प्रतीप ने कहा- आप मुझे अपना परिचय दीजिए और आपने मेरे द्वारा काम भावना प्रकट की थी, इसलिए मैं आपसे अनुरोध करता हूं कि मेरा पुत्र आपका वरण करेगा. आप मेरी पुत्रवधु हो जाइए और जिस तरह अभी आपने मेरा यश बढ़ने की बात कही थी, तो इसी तरह मेरे पुत्र और कुरुकुल का यश बढ़ाइए. पुत्रवधु भी पुत्री ही होती है, इस तरह हमारा यह पिता-पुत्री का संबंध भी बना रहेगा. पुत्र के रूप में पिता ही जन्म लेता है तो आपकी भी कामना पूर्ण हो सकेगी.

देवी गंगा ने धर्म और आचरण दोनों की ऐसी सुंदर व्याख्या और लोक व्यवहार का सुंदर समाधान सुनकर कहा- हे महाराज! मैं गंगा हूं. देवलोक में ब्रह्मदेव के कमंडल से बहने वाली देवनदी गंगा. एक श्राप के कारण मुझे कुछ समय तक मृत्युलोक में मानवी रूप में रहना होगा, इसीलिए मैं आपके पास आई थी. मैं आपके पुत्र से विवाह के लिए तभी तैयार हो पाऊंगी जब आप मुझे वचन दें कि वह मेरे किसी कार्य में बाधक नहीं होंगे, मुझसे कोई प्रश्न नहीं करेंगे. महाराज प्रतीप ने कहा- ऐसा ही होगा देवी. तब देवी गंगा ने महाराज प्रतीप की पुत्रवधु बनना स्वीकार कर लिया और उन्हें धर्म में उनकी बुद्धि स्थिर रहे, ऐसा वरदान देकर वहां से अन्तरध्यान हो गईं.

जनमेजय! (वैशंपायन जी बोले)- इसके बाद महाराज प्रतीप के घर एक दिव्यपुत्र का जन्म हुआ. तब प्रतीप के राज्य में सर्वत्र शांति थी. इसलिए पुत्र का नाम शांतनु रखा गया. इसके अलावा उनके दो पुत्र और थे, देवापि और बाह्लीक. देवापि बचपन में ही तपस्या करने चले गए. शांतनु जिस किसी वृद्ध को शुद्ध भाव से छू देते थे तो वह फिर से जवान और सुखी हो जाता था.

जब शांतनु किशोरावस्था से युवावस्था की ओर बढ़े तब महाराज प्रतीप ने उन्हें हरिद्वार में देवी गंगा के साथ हुई वह बातचीत बता दी. उन्होंने कहा- पुत्र शांतनु! कभी एकांत में तुमसे कोई नारी आकर मिले और विवाह की इच्छा करे, तो तुम उनसे कोई प्रश्न न करना. वह तुम्हारे ही कल्याण के लिए आएगी. इसलिए उनसे विवाह कर लेना. इसके कुछ दिन बाद राजा प्रतीप ने शांतनु का अभिषेक कर दिया और खुद वनवास की राह ली.

महाराज शांतनु ने हस्तिनापुर का साम्राज्य विस्तार किया और उसे एक अभेद किले में बदल दिया. प्रजा के सुख के लिए कार्य कराए. यज्ञों का अनुष्ठान किया और शत्रुओं का मान भंग किया. प्रजा चारों ओर प्रसन्न थी. शांतिकाल के ऐसे ही समय में एक दिन महाराज शांतनु गंगातट पर विहार करने गए थे. वह तट पर लहरों को देख रहे थे कि इसी दौरान संध्याकाल से कुछ पहले लहरें छलकने लगीं.

उन्होंने सामने नजर उठाकर देखा तो श्वेत वस्त्र धारण किए और लक्ष्मी जैसी शोभा वाली सुंदरी उनकी ही ओर आ रही थी. वह देवी उनके सामने आकर खड़ी हो गईं. महाराज शांतनु बिना पलक झपकाए लगातार उन्हें देखते रहे. वह देवी भी शांतनु को देखकर लाजभरी मुस्कान से मुस्कुराती रहीं. इतने में ही सूर्यास्त होने लगा तो देवी ने कहा- प्रणाम महाराज! आज्ञा दीजिए, अब मैं चलती हूं.


शांतनु ने यह सुना तो उनका ध्यान भंग हुआ, तब उन्होंने जाती हुई देवी को आवाज देकर कहा- मगर आप हैं कौन? वह सुंदरी मुड़ी और कहा- यह मैं आपको कल बताऊंगी. शांतनु ने पूछा- अगर कल मैं यहां नहीं आया तो? इस प्रश्न पर वह देवी रहस्यभरी मुस्कान देकर आगे बढ़ गई और गंगा की लहरों में ही कहीं खो गई.

शांतनु महल लौटे. रात आई, गहराई और बीती पर उनकी आंखों में नींद नहीं आई. सुबह होते ही वह गंगातट की ओर रथ लेकर चल पड़े. थोड़ी देर में वही सुंदरी लहरों के बीच से निकलकर फिर उनके पास आई. शांतनु फिर उन्हें देखते रह गए. तब देवी ने कहा- ऐसे क्या देख रहे हैं? और इतनी सुबह हस्तिनापुर का महाराज यूं गंगातट पर क्यों? शांतनु ने बहुत ठंडी आह भरकर कहा- शिकार के लिए निकला था देवी, लेकिन…खुद शिकार हो गए? सुंदरी ने बात पूरी की. फिर कहा- सम्राटों को अपने लक्ष्य से यूं भटकना शोभा नहीं देता. इस तरह उनके रथ और मनोरथ दोनों की दिशा बदल सकती है. ऐसा कहकर सुंदरी खिलखिलाने लगी. यह सुनकर शांतनु ने कहा- देवी तुम संभाल लो न. मेरे रथ और मनोरथ दोनों की डोर तुम थाम लो. हां यही सही रहेगा. तुम मेरे जीवन की डोर थामकर मुझे सही दिशा में ले चलो सुंदरी.

शांतनु की ऐसी उतावली देखकर सुंदरी फिर हंस पड़ी और विनोद करते हुए बोली- सम्राटों को अपने चौकन्नेपन से इतना भी लापरवाह नहीं होना चाहिए कि यूं ही किसी अजनबी को अपने रथ की बागडोर थमा दी जाए.

शांतनु- पर तुम अजनबी कहां हो? मैंने तो तुम्हें अपना लिया है. अब तुम कहो, क्या तुम्हारी ऐसी इच्छा नहीं है.

सुंदरी- महाराज की कृपा बनी रहे! लेकिन मैं आपको अपनाऊं इससे पहले मेरी एक शर्त है.

शांतनु ने बात पूरी हुए बिना ही कहा- स्वीकार है देवी.

सुंदरी ने कहा- नहीं महाराज, पहले आपको यह प्रण सुन और जान लेना चाहिए. मैं गंगा हूं. मैं आपसे तभी विवाह करूंगी, जब आप ये स्वीकार करें कि आप मुझे कभी किसी कार्य से रोकेंगे नहीं, कोई प्रश्न नहीं करेंगे और अगर आप कभी ऐसा करेंगे तो मुझे यह संबंध भूलकर जाना होगा. महाराज शांतनु ने बिना एक पल गंवाए देवी गंगा की इस बात को मान लिया और उनके साथ विवाह करके उन्हें राजधानी ले आए.

हस्तिनापुर आकर गंगा और शांतनु सुखपूर्वक दिन बिताने लगे. महाराज शांतनु उन्हें बहुत प्रेम करते थे और अपना अधिकांश समय रनिवास (महल रानी के रहने का स्थान या कमरा) में ही बिताते थे. देवी गंगा भी उन्हें बहुत प्रेम करती थीं. एक रात देवी गंगा उन्हें वीणा बजाते हुए राग रागेश्वरी सुना रही थीं. महाराज शांतनु ने उन्हें सुनते हुए आंखों ही आंखों में पूरी रात बिता दी. राग समाप्त हुआ, देवी गंगा वीणा वादन भी बंद कर चुकी थीं, लेकिन शांतनु अपलक उन्हें देखते ही रहे. देवी गंगा ने कहा- महाराज भोर होने को आई है, आप ऐसे क्या देख रहे हैं?

शांतनु ने कहा- कल्याणी! क्या इस कक्ष के बाहर भी संसार है? भोर है? चंद्रमा है? सूर्य हैं? देवी गंगा ने कहा- अगर यह बाहर नही हैं तो कहां हैं? शांतनु बोले- प्रिये! इन सभी को तुम ही अपनी आंखों में बंद कर लाई हो. तुम्हीं मेरा संसार हो. तब गंगा ने कहा- पर इस संसार से इतर कक्ष के बाहर भी एक संसार है, जिसे प्रजा कहते हैं. सम्राटों का जीवन प्रजा के लिए होता है.

शांतनु बोले- तो क्या कल्याणी, सम्राटों का अपना कोई जीवन नहीं होता, क्या उन्हें प्रेम नहीं होता, क्या उन्हें प्रेम पाने का अधिकार नहीं है?


गंगा बोलीं- ऐसा नहीं है महाराज, प्रेम तो हर व्यक्ति को ईश्वर से मिला वरदान है. सम्राट में प्रेम न हो तो वह प्रजा से कैसे प्रेम करेगा, उनका कैसे ध्यान रखेगा? प्रेम तो आवश्यक है. परन्तु मैं कह रही थी कि….

शांतनु ने गंगा के अधरों (होंठ) पर अपनी उंगली रख दी और बोले- मुझे मेरे भाग के प्रेम का वही ईश्वरीय वरदान भोग लेने दो प्रिये. मुझे मत रोको. ऐसा कहकर उन्होंने गंगा को अपने गले से लगा लिया. इस तरह महाराज शांतनु विवाह करके जो रनिवास में गए तो छह महीने तक बाहर नहीं निकले. राजसभा में नहीं पधारे. वैसे उनके मंत्री- सेनापति, कोषाध्यक्ष व अन्य अधिकारी सभासद योग्य, स्वामीभक्त और न्यायप्रिय थे. इस दौरान वे ही शासन को संभालते रहे. राज्य में अव्यवस्था का खतरा नहीं था.

एक आधीरात को महामंत्री ने देखा कि सेनापति राजमहल के बाहर अपने अस्त्र-शस्त्रों के साथ चहलकदमी कर रहे हैं. महामंत्री तुरंत वहां पहुंचे. सेनापति ने उन्हें देखा तो प्रणाम किया. महामंत्री ने कहा- सेनापति! आप आधी रात को यहां चहलकदमी क्यों कर रहे हैं? क्या कोई संकट है? सेनापति ने कहा- संकट, अभी तो नहीं है लेकिन आप से कैसे कहूं? 

महामंत्री- आप बेहिचक कहिए. वैद्य, ज्योतिषी, गुरु, मंत्री और सेनापति को सत्य कहने से कभी हिचकिचाना नहीं चाहिए. 

सेनापति ने कहा- आप सिर्फ महामंत्री नहीं हैं, वृद्ध हैं और मेरे पिता के समान हैं. मैं राज्य के लिए अपने महाराज की ओर से चिंतित हूं. छह महीने हो गए महाराज के विवाह को लेकिन राजसभा में उनके दर्शन नहीं हुए. प्रजा ने भी उनकी कृपा प्राप्त नहीं की. ईश्वर उनकी आयु बढ़ाए रखे, लेकिन डर है कि कहीं कोई खटका न हो.

महामंत्री- तो क्या गुप्तचरों से कोई अशुभ संदेश मिला है? कहीं शत्रु…

सेनापति- नहीं मान्य! अभी इतना साहस किसी का नहीं बढ़ा कि कोई हस्तिनापुर की ओर शत्रुभाव से भी देखे, लेकिन यह स्थिति कबतक बनी रहेगी? समय एक सा तो नहीं रहता?

महामंत्री ने कहा- तुम ठीक कहते हो पुत्र. मेरा आशीष तुम्हारे साथ है. सेनापति पद पर राज्य के प्रति तुम्हारी निष्ठा गौरवपूर्ण है. महाराज की स्थिति चिंताजनक तो है, लेकिन अभी स्थिति को यथावत (जैसा है वैसा ही) चलने देते हैं. प्रजा को संतुष्ट रखने वाले राजा को भी विषयों (भोग-विलास, प्रेम) से संतुष्ट होना चाहिए. प्रतीक्षा करो और कर्तव्य पर डटे रहो. 

ईश्वर ने चाहा तो ‘जिस नींद में राजा सोये हैं’ आने वाले भविष्य में संतान के रूदन (रोने की आवाज) से उनकी वह नींद भंग हो जाए और वह जाग जाएं. तबतक हमें और आपको हस्तिनापुर की सेवा ऐसे ही करनी चाहिए, जैसे पुत्र माता की सेवा करते हैं. भूलो मत! यह मातृभूमि है और इसकी सेवा सिर्फ राजा के हिस्से की बात नहीं, नागरिक का भी कर्तव्य है.

महाभारत में हस्तिनापुर के महामंत्री और सेनापति के बीच की यह बातचीत एक आदर्श शासन व्यवस्था की नींव है. यह लोकतंत्र के मूल अधिकार के साथ मूल कर्तव्य को जानने और उन्हें अपनाने की बात है. यह राजा, राज्य के पदाधिकारी और राज्य की प्रजा तीनों के कर्तव्य की बात को सामने रखता है. महामंत्री की बात सुन और समझकर सेनापति संतुष्ट होकर गए और अपने कर्तव्य में जुट गए. कुछ दिन और बीते. एक दिन महारानी के कक्ष से समाचार आया कि हस्तिनापुर को कुलदीपक मिलने वाला है. महारानी गंगा गर्भवती हैं. महाराज शांतनु एक बार फिर राजकाज में ध्यान देने लगे. प्रजा सुखी थी और हस्तिनापुर अपने भविष्य के प्रकाश की प्रतीक्षा करने लगा. कौन जाने यह प्रकाश ही है, या उसकी शक्ल में हस्तिनापुर के सूर्य को लीलने चला आ रहा राहु…

जनमेजय यह सुनकर आश्चर्य करने लगा और वैशंपायन जी से आगे की कथा सुनने की प्रतीक्षा करने लगा.

पहला भाग : कैसे लिखी गई महाभारत की महागाथा? महर्षि व्यास ने मानी शर्त, तब लिखने को तैयार हुए थे श्रीगणेश 
दूसरा भाग :
राजा जनमेजय और उनके भाइयों को क्यों मिला कुतिया से श्राप, कैसे सामने आई महाभारत की गाथा?
तीसरा भाग : राजा जनमेजय ने क्यों लिया नाग यज्ञ का फैसला, कैसे हुआ सर्पों का जन्म?
चौथा भाग : महाभारत कथाः नागों को क्यों उनकी मां ने ही दिया अग्नि में भस्म होने का श्राप, गरुड़ कैसे बन गए भगवान विष्णु के वाहन?
पांचवा 
भाग : कैसे हुई थी राजा परीक्षित की मृत्यु? क्या मिला था श्राप जिसके कारण हुआ भयानक नाग यज्ञ
छठा भाग : महाभारत कथाः  नागों के रक्षक, सर्पों को यज्ञ से बचाने वाले बाल मुनि… कौन हैं ‘आस्तीक महाराज’, जिन्होंने रुकवाया था जनमेजय का नागयज्ञ
सातवाँ भाग : महाभारत कथाः तक्षक नाग की प्राण रक्षा, सर्पों का बचाव… बाल मुनि आस्तीक ने राजा जनमेजय से कैसे रुकवाया नागयज
आठवाँ भाग : महाभारत कथा- मछली के पेट से हुआ सत्यवती का जन्म, कौन थीं महर्षि वेद व्यास की माता?
नौवां
भाग : महाभारत कथा- किस श्राप का परिणाम था विदुर और भीष्म का जन्म, किन-किन देवताओं और असुरों के अंश से जन्मे थे कौरव, पांडव
दसवाँ भाग : महाभारत कथाः न दुर्वासा ने दिया श्राप, न मछली ने निगली थी अंगूठी… क्या है दुष्यंत-शकुंतला के विवाह की सच्ची कहानी


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