Aarti Jerath’s column – The most interesting Vice Presidential election till date | आरती जेरथ का कॉलम: अब तक का सबसे रोचक उपराष्ट्रपति चुनाव

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5 घंटे पहले
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आरती जेरथ राजनीतिक टिप्पणीकार
उपराष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए इससे पहले शायद ही कभी लोगों में इतनी दिलचस्पी पैदा हुई होगी, जितनी कि आगामी चुनाव को लेकर होने जा रही है। जगदीप धनखड़ के यह पद छोड़ने के बाद नए उपराष्ट्रपति का चुनाव जरूरी हो गया है। चर्चाओं के दायरे में धनखड़ के तीन साल के तूफानी कार्यकाल के साथ-साथ इस चुनाव की टाइमिंग और उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि भी है।
हालांकि संसद के दोनों सदनों में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए के पर्याप्त संख्या-बल को देखते हुए उपराष्ट्रपति चुनाव के परिणाम पहले से तय हैं, फिर भी इस चुनाव का इस्तेमाल सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन और विपक्षी इंडिया ब्लॉक द्वारा कई राजनीतिक संदेश देने के लिए किया जा रहा है।
इसमें सबसे महत्वपूर्ण संदेश राजनीतिक एकता के प्रदर्शन का है। जहां विपक्ष ने इस मुकाबले को एक वैचारिक लड़ाई बताया है, वहीं यह इस साल के अंत में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव और अगले साल होने वाले तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल के महत्वपूर्ण विधानसभा चुनावों से पहले अपने-अपने गुटों को एकजुट रखने के बारे में भी है।
परिणाम घोषित होने के बाद सामने आने वाले अंतिम आंकड़े बहुत महत्वपूर्ण होंगे, क्योंकि उससे न केवल दोनों पक्षों के सांसदों की संख्या का आकलन होगा, बल्कि यह भी पता चलेगा कि अगर कोई क्रॉस वोटिंग होती है तो कितनी। और यहीं पर दोनों उम्मीदवारों की क्षेत्रीय पहचान मायने रखती है।
एनडीए के उम्मीदवार सीपी राधाकृष्णन तमिलनाडु से हैं। उनके नाम की घोषणा के बाद भाजपा ने द्रमुक से तमिल गौरव के प्रति अपनी निष्ठा साबित करने के लिए कहा। वहीं इंडिया गठबंधन के उम्मीदवार सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बी. सुदर्शन रेड्डी हैं, जो हैदराबाद से हैं और तेलुगुभाषी हैं। उनका नामांकन इंडिया ब्लॉक द्वारा एनडीए के तमिल फैक्टर का जवाब है और इसका स्पष्ट उद्देश्य क्षेत्रीय भावनाओं को उभारकर टीडीपी के कार्यकर्ताओं में भ्रम पैदा करना है।
अभी तक तो दोनों ही गठजोड़ मजबूत बने हुए हैं और दोनों का कोई सांसद टूटता नहीं दिख रहा है। चुनावों से पहले एकता का यह प्रदर्शन एक महत्वपूर्ण संदेश है। इसके बावजूद, आगामी चुनावों को इस विवाद के साये से बचाना कठिन होगा।
पूर्व उपराष्ट्रपति हमेशा विवादों में रहे थे। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के रूप में यह भले ही उनके लिए फायदेमंद रहा- जब मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ उनके लगातार टकरावों ने उन्हें भाजपा का अधिक समर्थन दिलाया- वहीं यह रवैया उपराष्ट्रपति के रूप में उनके लिए एक बाधा साबित हुआ।
धनखड़ के पास राज्यसभा के सभापति के रूप में एक अतिरिक्त महत्वपूर्ण दायित्व था। लेकिन उनके कार्यकाल के तीन वर्षों में हंगामा, कोलाहल और सबसे ज्यादा निलंबन हुए, क्योंकि वे नियमित रूप से विपक्ष से संघर्षरत रहे थे।
अब भाजपा ने राधाकृष्णन के रूप में धनखड़ से बिल्कुल विपरीत व्यक्तित्व को चुना है। यह बात गौर करने लायक है कि राधाकृष्णन की प्रशंसा करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके “राजनीतिक खेल न खेलने’ के गुण की सराहना की।
इस टिप्पणी को धनखड़ पर कटाक्ष के रूप में देखा जा रहा है और ये यह दर्शाता है कि राधाकृष्णन के व्यक्तित्व में निहित संयम और अनुशासन के गुणों ने उनके इस पद के लिए नामांकन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश होने के नाते रेड्डी एक गैर-राजनीतिक व्यक्ति हैं और अपने प्रगतिशील, उदारवादी विचारों के लिए जाने जाते हैं। यद्यपि वे उच्च जाति से हैं- जो कि इंडिया ब्लॉक और विशेषकर राहुल गांधी के सामाजिक न्याय के दावों के विपरीत प्रतीत होता है। लेकिन यहां यह याद रखा जाना चाहिए कि यह सामाजिक न्याय के मुद्दों के प्रति रेड्डी की प्रतिबद्धता ही थी, जिसके चलते तेलंगाना की कांग्रेस सरकार ने उन्हें अपनी जाति जनगणना समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया था।
लेकिन इन सबके अलावा, राधाकृष्णन को नामांकित करके भाजपा ने संघ को एक स्पष्ट संकेत भी दिया है और देश के दूसरे सबसे बड़े संवैधानिक पद पर संघ की मजबूत पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति को चुनकर उससे अपने बिगड़ते रिश्तों को सुधारने की कोशिश की है।
राधाकृष्णन का नामांकन प्रधानमंत्री द्वारा स्वतंत्रता दिवस पर अपने संबोधन में संघ की प्रशंसा करने के तुरंत बाद हुआ। माना जा रहा है कि उनका नामांकन भाजपा द्वारा संघ के समक्ष एक शांति प्रस्ताव प्रस्तुत करने की तरह है, ताकि अगले भाजपा अध्यक्ष की नियुक्ति का पेचीदा मुद्दा जल्द ही सुलझाया जा सके।
ध्यान रहे कि राधाकृष्णन 16 वर्ष की उम्र से ही संघ से जुड़े हैं और उसके समर्पित, निष्ठावान स्वयंसेवक रहे हैं। उन्हें वाजपेयी की तरह उदारवादी माना जाता है। वे वाजपेयी-आडवाणी युग में भी राजनीतिक रूप से सक्रिय थे और 1980 में भाजपा के गठन के बाद उन्होंने वाजपेयी के राजनीतिक सहयोगी के रूप में कार्य किया था। तमिलनाडु के राजनीतिक हलकों में उन्हें भाजपा का तमिल वाजपेयी भी कहा जाता है।
पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में राधाकृष्णन ने द्रमुक और अन्नाद्रमुक के साथ भाजपा के गठबंधन को मैनेज करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिससे उन्हें आम सहमति बनाने वाले व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठा मिली। उनका यह कौशल राज्यसभा के प्रबंधन में भी मददगार साबित होगा। उनके नामांकन का एक और कारण तमिलनाडु की राजनीति से उनका लंबा जुड़ाव और अन्नाद्रमुक के साथ उनका तालमेल भी था।
स्मरण रहे कि भाजपा दक्षिण के इस महत्वपूर्ण राज्य में बड़ी सफलता पाने के लिए कमर कसे हुए है और उसने अगले साल वहां होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए अन्नाद्रमुक के साथ गठबंधन किया है।
पूर्व उपराष्ट्रपति से बहुत भिन्न समझे जाते हैं राधाकृष्णन… भाजपा ने राधाकृष्णन के रूप में धनखड़ से बिल्कुल विपरीत व्यक्तित्व को चुना है। राधाकृष्णन की प्रशंसा करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके “राजनीतिक खेल न खेलने’ के गुण की सराहना की। इस टिप्पणी को धनखड़ पर कटाक्ष के रूप में देखा जा रहा है। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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