Kaushik Basu’s column – We have to learn something from our non-aligned past today | कौशिक बसु का कॉलम: हमें अपने गुटनिरपेक्ष अतीत से आज कुछ सीखना होगा

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7 घंटे पहले
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कौशिक बसु विश्व बैंक के पूर्व चीफ इकोनॉमिस्ट
भारत से आयातित लगभग सभी चीजों पर 50% टैरिफ लगाने के ट्रम्प के ऐलान के बाद से ही भारत-अमेरिका के आर्थिक संबंधों में उथल-पुथल है। इस घोषणा से भारत, ब्राजील (50%), सीरिया (41%), लाओस (40%) और म्यांमार (40%) के साथ ही सर्वाधिक टैरिफ थोपे जाने वाले पांच देशों में शामिल हो गया है।
ट्रम्प से भारत के मैत्रीपूर्ण सम्बंधों के चलते उनका यह ऐलान हमारे नीति-निर्माताओं के लिए चौंकाने वाला रहा। असमंजस तब और बढ़ गया, जब ये कहा गया कि रूस से तेल खरीदने के कारण भारत को दंडित किया जा रहा है। जबकि रूस से तेल के सबसे बड़े खरीदार चीन को तो ऐसी सजा नहीं दी गई।
विडम्बना यह है कि भारत ने ट्रम्प की नीतियों का कभी विरोध नहीं किया था, सम्भवत: इसके चलते वे भारत को हलके में लेने लगे हैं। यह चेखव की कहानी “द निनी’ की याद दिलाती है, जिसमें एक व्यक्ति अपने बच्चों की गवर्नेस (घर में पढ़ाने वाली शिक्षिका) का एक माह का वेतन मनमाने तरीके से रोक लेता है और जब गवर्नेस बिना किसी विरोध के इसे स्वीकार कर लेती है तो वह इसे उसकी कमजोरी समझ लेता है।
अर्थशास्त्री एरियल रूबिन्स्टीन ने बाद में इस कहानी के आधार पर यह इकोनॉमिक-मॉडल विकसित किया था कि विनम्रता कैसे शोषण को न्योता देती है? ट्रम्प के प्रति भारत का अति-आज्ञाकारी रवैया एक लंबे समय से मजबूत और स्वतंत्र देश की उसकी भूमिका से विचलन को दर्शाता है। जबकि एक समय भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सह-संस्थापक के तौर पर रणनीतिक स्वायत्तता का प्रबल समर्थक हुआ करता था।
वह सभी देशों से संतुलित रिश्ते रखता था, लेकिन किसी की अधीनता नहीं स्वीकार करता था- चाहे वह अमेरिका हो या सोवियत संघ। समय आ गया है कि भारत फिर से उसी विरासत का लाभ उठाए और मैक्सिको, कनाडा, चीन जैसे देशों के साथ आर्थिक और कूटनीतिक सम्बंध बनाए। साथ ही वह टैरिफ से चिंतित अन्य सरकारों- खासतौर से यूरोपीय और लैटिन अमेरिकी देशों से व्यापार और सहयोग मजबूत करे।
अमेरिका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है, जबकि अमेरिका के लिए भारत उसके सबसे बड़े साझेदारों में से दसवें नंबर पर है- मैक्सिको, कनाडा, चीन और जर्मनी से भी पीछे। अमेरिकी अर्थव्यवस्था भी हमसे कहीं अधिक बड़ी है, इसलिए वह बड़े झटके झेल सकती है।
ऐसे में साहस का मतलब यह नहीं कि अमेरिका को बराबरी से जवाब दिया जाए। ये जरूर सच है कि भारत जैसे अपने दीर्घकालीन व्यापारिक सहयोगी पर भारी टैरिफ लगाकर अमेरिका बड़ी गलती कर रहा है। वो खुद को अलग-थलग कर रहा है और अपनी अर्थव्यवस्था को ही नुकसान पहुंचा रहा है।
नि:संदेह टैरिफ आर्थिक नीतियों में महत्वपूर्ण हैं। “इन्फैंट इंडस्ट्री तर्क’ इसका जाना-माना उदाहरण है, जो कहता है कि किसी आशान्वित क्षेत्र के आरम्भिक काल में अस्थायी टैरिफ लगाना निवेशकों में भरोसा जगाता है।
इससे संबंधित सेक्टर को फलने-फूलने और प्रतिस्पर्धी बनने का अवसर मिलता है। लेकिन उद्योग के अपने पैरों पर खड़ा होने के बाद टैरिफ कम कर देने चाहिए, ताकि खुली प्रतियोगिता का अनुशासन उन्हें और बेहतर होने में मदद कर सके।
1977 में, एक राजनीतिक विवाद के कारण भारत सरकार ने आईबीएम को निष्कासित कर दिया था। इससे भारत को खुद के मिनी और माइक्रो-कंप्यूटर विकसित करने की प्रेरणा मिली। विभिन्न व्यापारिक प्रतिबंधों के संरक्षण में घरेलू कंप्यूटिंग क्षेत्र तेजी से बढ़ा।
1991-93 के आर्थिक सुधारों के दौर में भारतीय बाजार अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के लिए खुल गए। देश का आईटी सेक्टर फला-फूला। इन्फोसिस, विप्रो एवं टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज जैसी भारतीय कंपनियों को वैश्विक तौर पर अग्रणी बनने का अवसर मिला। भारत ने अभूतपूर्व आर्थिक विकास किया।
एक समय भारत सभी देशों से संतुलित रिश्ते रखता था, लेकिन किसी की भी अधीनता को स्वीकार नहीं करता था- चाहे वह अमेरिका हो या सोवियत संघ। समय आ गया है कि भारत फिर से अपनी उसी विरासत का लाभ उठाए। (© प्रोजेक्ट सिंडिकेट)
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