Wednesday 08/ 10/ 2025 

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N. Raghuraman’s column – What kind of employee are you: attached or ‘attached-detached’? | एन. रघुरामन का कॉलम: आप कैसे कर्मचारी हैं : लगाव रखने वाले या ‘अटैच्ड-डिटैच्ड’?

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7 घंटे पहले

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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु - Dainik Bhaskar

एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

पिछले सप्ताह रायपुर रेलवे स्टेशन की कार पार्किंग में मैने एक रोचक इंसानी बर्ताव देखा। एक पढ़े-लिखे ड्राइवर ने अपनी हाई-एंड एसयूवी पार्किंग में खड़ी की और एक यात्री को रिसीव करने के लिए जल्दबाजी में प्लेटफॉर्म की ओर भागा। पार्किंग में लगे एक विशाल संकेतक पर लिखा था कि “कार पार्क करते वक्त अपनी पार्किंग स्लिप लें।’

चूंकि ड्राइवर ने उस ट्रेन के आगमन की घोषणा सुन ली थी, जिससे उसका मेहमान आ रहा था, इसलिए उसने स्लिप लेने का इंतजार नहीं किया और स्टेशन की ओर बढ़ गया। कुछ ही मिनटों में वह अपने मेहमान के साथ उसका छोटा सूटकेस लेकर वापस पार्किंग में लौटा। दोनों कार में बैठे और ड्राइवर ने कार निकास द्वार की ओर बढ़ा दी। यहीं से एक लंबा ड्रामा शुरू हो गया।

कार पार्किंग अवधि के शुल्क के तौर पर ड्राइवर ने चुपचाप 20 रु. दिए और पार्किंग के कर्मचारी ने उसे जाने के लिए कहा। लेकिन ड्राइवर भुगतान की रसीद लेने पर अड़ गया। कर्मचारी ने उससे वह कूपन मांगा, जिस पर उसके आगमन का समय दर्ज है। ड्राइवर ने तर्क दिया कि पार्किंग कर्मचारी ने उसे महज दस मिनट पहले ही आते देखा था।

जबकि कर्मचारी का कहना था कि वह तो हर मिनट सैकड़ों लोगों को देखता है। यह बहस लंबी चली। आखिर ड्राइवर ने पूछा “रसीद लेने के लिए कितने पैसे देने होंगे?’ कर्मचारी ने जवाब दिया, “70 रुपए’। 70 रुपए देकर ड्राइवर को रसीद मिल गई।

रसीद पर 20 रुपए के प्रिंटेड रेट के ऊपर पेन से 70 रुपए लिख दिया गया था। ड्राइवर यह सोचते हुए चल दिया कि उसे भुगतान की रसीद मिल गई। जबकि मैं यह सोच रहा था कि उसकी कंपनी का कैशियर इस रसीद को यह कहते हुए खारिज कर देगा कि ओवर-राइट किए गए बिल स्वीकार नहीं किए जाते हैं।

उसकी सोच यह थी कि भले कंपनी को पैसे का घाटा हो, लेकिन मुझे 20 रुपए का नुकसान भी नहीं होना चाहिए। लेकिन इस सोच ने ड्राइवर को 50 रुपए या पूरे 70 रुपए गंवाने के जोखिम में डाल दिया था। अब यह इस पर निर्भर करता है कि कार्यालय का अकाउंटेंट उस ओवर-राइट रसीद को कैसे देखता है, जो अकाउंटिंग के कायदों में स्वीकार्य नहीं है।

इस गुरुवार को भोपाल से इंदौर की यात्रा में मुझे यह वाकया तब याद आया, जब मैं “डोडी’ नाम के एक रेस्तरां पर रुका। जाहिर तौर पर इस मार्ग के इस सबसे व्यस्त रेस्तरां में कूपन देने के​ लिए रात के वक्त एक, जबकि दिन में तीन काउंटर खुले रहते हैं, क्योंकि अधिकतर चार्टर्ड बसें यहां चाय-नाश्ते के लिए ठहरती हैं।

सुबह 7:10 बजे, जब मैं वहां पहुंचा तो वहां लंबी कतार लगी थी और यात्रियों को वापस बुलाने के​ लिए चार्टर्ड बसों के हॉर्न लगातार बज रहे थे। करीब दस मिनट रुकने के बाद भी उस एकमात्र काउंटर से सभी को कूपन नहीं मिल सका और ज्यादातर लोगों को अपना पोहा और चाय लिए बिना ही वापस लौटना पड़ा।

तो आखिर मुद्दा क्या था? तीन कर्मचारियों में से केवल दो ही समय पर आए और जाहिर तौर पर वे उस तीसरे काउंटर के रिलीवर नहीं थे, जो पूरी रात खुला रहा था। इन दोनों लोगों के कम्प्यूटरों को आॅन करने के बाद भी पूरी तरह सक्रिय होने में समय लगता है और इसीलिए सिस्टम के पूरी तरह तैयार होने तक वह कूपन जारी नहीं कर सकते।

इसका मतलब है कि रेस्तरां का प्रबंधन कर्मचारियों के समय से आने पर नजर नहीं रखता और कर्मचारियों में भी संगठन के प्रति ऐसा लगाव नहीं है कि वे दस मिनट पहले आएं ताकि बसों की भीड़भाड़ को संभाला जा सके। उन्होंने अपनी नौकरी को महज ऐसा काम समझा, जिसमें 8 घंटे का समय पूरा करना है। और इस प्रक्रिया में रेस्तरां मालिक के व्यवसाय को नुकसान हुआ, क्योंकि यात्रियों ने उनके वॉशरूम का इस्तेमाल तो किया, लेकिन कुछ खरीदा नहीं।

फंडा यह है कि सोचें क्या आप 9 से 5 बजे तक के कर्मचारी हैं या आपमें संगठन के प्रति लगाव है? याद रखें कि लगाव रखने वाले को हमेशा “स्टेबल-अटैच्ड’ व्यक्ति के तौर पर माना जाता है। जबकि 9 से 5 वाले को “अटैच्ड-डिटैच्ड’ माना जाता है, जो 5 बजे के बाद खुद को अलग कर लेता है और इसीलिए आपको उस तरीके का लगाव नहीं होता!

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