N. Raghuraman’s column – Why should people in ideal professions be treated fairly? | एन. रघुरामन का कॉलम: आदर्श पेशे के लोगों से उचित बर्ताव क्यों करना चाहिए?

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7 घंटे पहले
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
जब फ्रिज नहीं होते थे तो हमारा पीने का पानी ‘सुराही’ में रखा जाता था। जो लोग नहीं जानते कि यह क्या होती है, उन्हें मैं समझाता हूं : सुराही भारत का मिट्टी से बना एक पारंपरिक पात्र है, जो वाष्पीकरण के जरिए पानी को ठंडा करने के सिद्धांत पर काम करता है। इसकी मिट्टी की दीवारों में छोटे-छोटे छिद्र होते हैं, जिनके जरिए पानी रिसकर बाहर आता है और वाष्पित हो जाता है।
वाष्पीकरण प्रक्रिया के लिए ताप चाहिए, जो घड़े के अंदर भरे पानी से आता है। इस प्रकार भीतर तापमान कम होने से घड़े का पानी ठंडा बना रहता है। सुराही में शेर के मुंह जैसा आउटलेट होता है, जैसे ठंडा पानी किसी खतरनाक जानवर के मुंह से बाहर आ रहा हो।
मुख्य रूप से यह आगरा जैसे शहरों में मिलती थी। नागपुर जैसे शहरों में ये नहीं मिलती थी, जहां मैंने अपना बचपन बिताया था। नागपुर में ‘सुराही’ नहीं, बल्कि ‘घड़ा’ मिलते थे। इसमें आपको अपना गिलास डालकर पानी निकालना पड़ता था। उन दिनों में सुराही रखने से एक उच्चवर्गीय समुदाय जैसी भावना आती थी।
चूंकि मेरे पिता रेलवे में काम करते थे और नागपुर से आगरा जाने वाले गार्ड्स को जानते थे, इसलिए वे हमारे लिए सुराही लाया करते थे। लेकिन मेरे पिता ने कभी सिर्फ एक ही सुराही नहीं मंगाई। वे यह सुनिश्चित करते थे कि स्कूल के कुछ शिक्षकों को भी यह मिले। जरूरी नहीं कि वो शिक्षक, जो मुझे पढ़ाते थे।
शिक्षकों की पारिवारिक आय और सुराही खरीदने में उनकी असमर्थता के आधार पर आकलन कर वे उनका चयन करते थे। चूंकि वे नागपुर के मेरे स्कूल सरस्वती विद्यालय की प्रबंध समिति में थे, इसलिए उन्हें शिक्षकों की तनख्वाह के बारे में अच्छे से पता था। सुराही देते समय वे कहते थे कि ‘अगर उपयोग के दौरान यह टूट जाए तो कृपया मुझे बताना, मैं फिर से लाऊंगा।’ और हर साल वे यह कार्य दोहराते थे।
पिताजी अकेले नहीं थे, जो शिक्षकों के लिए अक्सर ऐसा करते थे। प्रबंध समिति में ऐसे कई लोग थे, जिनको शिक्षकों के वेतन के बारे में पता था और वो अपने तरीके से उनका जीवन आरामदायक बनाने में मदद करते थे।
मैंने कभी नहीं देखा कि पिता ने मेरे प्राइमरी स्कूल शिक्षक से कुर्सी पर बैठकर बात की हो, जब तक कि शिक्षक ने खुद ही उन्हें बैठने के लिए न बोला हो। वे अधिकारी संवर्ग में थे और ताकत भी रखते थे। फिर भी वे किसी आठवीं कक्षा के छात्र की तरह उन शिक्षकों के सामने खड़े रहते थे, जो उम्र में उनसे छोटे थे।
वे हमेशा मुझसे कहते थे कि शिक्षक भगवान जैसा होता है। हमें अपनी संपत्ति और सरकारी दफ्तरों के ओहदे को देखे बिना उनका सम्मान करना चाहिए। और विश्वास करें कि उस समय के शिक्षक बहुत खुश थे। सिर्फ इसलिए नहीं कि समाज उन्हें सम्मान देता था, बल्कि उनकी वित्तीय मदद भी करता था ताकि वे आर्थिक रूप से कमजोर न दिखें।
सोमवार सुबह ऐसे कई वाकये मुझे तब याद आए, जब मैंने पढ़ा कि हमारे सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर चिंता जताई है कि हमारे वर्तमान शिक्षकों के साथ कैसा व्यवहार हो रहा है। देश में शिक्षकों के प्रति व्यवहार से दुखी सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि भावी पीढ़ियों का भविष्य संवारने वालों को तुच्छ वेतन दिया जाता है तो महज ‘गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वर:’ का सार्वजनिक पाठ करना बेमानी है।
जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा और जॉयमाल्या बागची की पीठ ने कहा कि ‘शिक्षाविद्, व्याख्याता और प्रोफेसर किसी भी राष्ट्र का बौद्धिक आधार होते हैं, क्योंकि वे भावी पीढ़ियों की बुद्धि और चरित्र के निर्माण में जीवन समर्पित कर देते हैं।
उनका काम व्याख्यान देने से कहीं अधिक है- इसमें परामर्श देना, मार्गदर्शन, शोध, समालोचनात्मक सोच को बढ़ावा देना और समाज की प्रगति में योगदान देने वाले मूल्यों की भावना डालना शामिल है।’ मेरा भरोसा करें, मेरी आंखें नम हो जाती हैं जब मैं कुछ शिक्षण संस्थान मालिकों को यह कहते सुनता हूं कि ‘जिन्हें कहीं और नौकरी नहीं मिलती, वो शिक्षण के पेशे में आ जाते हैं।’ क्योंकि एक तरह से मैं भी एक शिक्षक ही हूं।
फंडा यह है कि शिक्षण पेशे का खोया हुआ गौरव वापस लाना समाज की नई जिम्मेदारी है। उन्हें अच्छा वेतन दें और सबसे बढ़कर, उनका सम्मान करें।
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