Wednesday 27/ 08/ 2025 

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Column by Lieutenant General Syed Ata Hasnain – Strategic partnerships are not formed or broken overnight | लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन का कॉलम: रातोंरात बनती या बिगड़ती नहीं हैं रणनीतिक साझेदारियां

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5 घंटे पहले

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लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन कश्मीर कोर के पूर्व कमांडर - Dainik Bhaskar

लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन कश्मीर कोर के पूर्व कमांडर

हाल ही में अपने एक लेख में निक्की हेली ने रिपब्लिकन खेमे के भीतर भारत-अमेरिका संबंधों को लेकर स्पष्ट आकलन पेश किया। भारत को एक “मूल्यवान साझेदार’ बताते हुए उन्होंने चेताया कि उसे अपने से दूर करना अमेरिका के लिए “रणनीतिक हादसा’ होगा।

चीन के प्रति अमेरिका के नरम रवैए से तुलना करते हुए हेली ने भारत पर लगाए टैरिफ की आलोचना की है। उनका दखल महज इसीलिए मायने नहीं रखता कि वे भारतवंशी हैं, बल्कि यह संकेत देता है कि अमेरिका के नीति निर्माता प्रतिष्ठानों में अब भी भारतीय मूल्यों के प्रति यथार्थवादी समझ बची है।

हाल के महीनों में जिस तेजी से भारत-अमेरिका संबंध बिगड़े हैं, वह चिंताजनक है। अमेरिकी नीति में एकाएक बदलाव, विरोधाभासी संकेतों और नौकरशाही की अधीरता के कारण दशकों से बना भरोसा टूटता दिख रहा है। लेकिन हमें इस पर भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए। क्योंकि रणनीतिक साझेदारियां रातोंरात नहीं बनतीं, और न ही रातोंरात इन्हें तोड़ा जाना चाहिए।

1998 के भारतीय परमाणु परीक्षणों के बावजूद 2000 के दशक की शुरुआत में भारत-अमेरिका संबंधों में बदलाव शुरू हुआ था। तत्कालीन राष्ट्रपति बुश ने पुरानी शंकाओं को दरकिनार कर भारत के साथ नए सिरे से काम करने का फैसला किया था।

चीन की महत्वाकांक्षाएं तब दिखने लग गई थीं। एशिया में दबदबा बनाने की उसकी कोशिशों ने अमेरिका को परेशान करना शुरू कर दिया था। 9/11 के बाद आतंकवाद के खिलाफ भारत की लंबी लड़ाई को अमेरिकी सहानुभूति मिली। दोनों देशों में नया भावनात्मक जुड़ाव हुआ।

2005 में, भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री प्रणब मुखर्जी ने रैंड कॉर्पोरेशन में एक भाषण के दौरान कहा था कि भारत अमेरिका के साथ गहरी साझेदारी के लिए तैयार है। लगभग इसी वक्त, अमेरिकी विद्वान स्टीफन ब्लैंक ने लिखा कि भारत अब “स्वाभाविक रूप से एक अपेक्षित साझेदार’ बना गया है। तब बनी साझेदारी आपसी हितों पर आधारित थी।

यही अगले दो दशक तक मार्गदर्शक-सिद्धांत बना रहा। परमाणु समझौता हुआ। रक्षा समझौते हुए। संयुक्त सैन्य अभ्यासों में तेजी आई। क्वाड बना। रक्षा जरूरतों पर समान दृष्टिकोण से यह सब संभव हुआ। जब तक चीन प्राथमिक प्रतिद्वंद्वी बना रहा, भारत अमेरिका का अपरिहार्य साझेदार था।

लेकिन बाइडेन काल में शंकाएं पैदा हुईं। सितंबर, 2022 में अमेरिका ने पाकिस्तान के एफ-16 बेड़े के लिए 450 मिलियन डॉलर के रखरखाव पैकेज को मंजूरी देकर नए सुरक्षा गठजोड़ के संकेत दिए। बांग्लादेश के सत्ता परिवर्तन में भी अमेरिकी भूमिका सभी ने देखी।

यूक्रेन युद्ध के दौरान रूस से तेल खरीद एक और विवादित मसला बन गई है, भले ही भारत महज अपनी रणनीतिक स्वायत्तता के तहत ऐसा कर रहा था। अमेरिका ने शुरू में इसे सहन किया। भारत की एस-400 मिसाइलों की खरीद पर प्रतिबंध नहीं लगाए, लेकिन अमेरिकी नौकरशाही चिढ़ने लगी थी। हालिया टैरिफ और प्रतिबंध भारत को यही याद दिलाने के​ लिए हैं कि उसकी स्वायत्तता सीमित है।

चीन के प्रति अमेरिकी नीति उसकी बढ़ती ताकत और रूस से उसके तालमेल को रोकने की रही है। तो भारत को क्यों ऐसे हाशिए पर धकेला जा रहा है, जिससे यह तालमेल मजबूत हो? क्यों पाकिस्तान को खुश किया जा रहा है? ये विरोधाभास खतरनाक हैं। इससे आपसी भरोसा कमजोर हो रहा है।

ऐसे में भारत को धैर्यपूर्वक पर मजबूती से जवाब देना चाहिए। तीखी प्रतिक्रिया के बजाय अमेरिका से स्थायी जुड़ाव पर जोर देना चाहिए। उसे साफ करना चाहिए कि रूस से उसका व्यापार चीन की व्यापक चुनौतियों पर अमेरिका से उसके तालमेल को कमजोर नहीं करता। साथ ही भारत को चीन से भी अपने रिश्तों को स्थिर करना चाहिए। विकल्प के रूप में नहीं, बल्कि ऐसे समांतर ट्रैक के तौर पर, जहां जरूरत पड़ने पर राह बदलने की गुंजाइश हो।

चीन के प्रति अमेरिकी नीति उसकी बढ़ती ताकत और रूस से उसके तालमेल को रोकने की रही है। तो भारत को क्यों ऐसे हाशिए पर धकेला जा रहा है, जिससे यह तालमेल मजबूत हो? क्यों फिर से पाकिस्तान को खुश किया जा रहा है?

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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