Monday 08/ 09/ 2025 

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N. Raghuraman’s column – Is it time to start ‘Mental Floss classes’ at every level? | एन. रघुरामन का कॉलम: क्या यह हर स्तर पर ‘मेंटल फ्लॉस क्लास’ शुरू करने का समय है?

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1 घंटे पहले

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एन. रघुरामन
मैनेजमेंट गुरु - Dainik Bhaskar

एन. रघुरामन मैनेजमेंट गुरु

अमेरिका यात्रा के दौरान मैंने सबसे ज्यादा राह चलते लोगों को ‘कस वर्ड्स’ देते सुना था। भले ही ‘कस’ शब्दों का अर्थ है- ऐसे अपमानजनक शब्दों का समूह, जिनका उपयोग गुस्से में या अपमानित करने के लिए किया जाता है- लेकिन ये शब्द सामान्य बातचीत में भी सुने जा सकते हैं।

भारत में भी मैंने सड़कों पर लोगों को ऐसे अपशब्द कहने सुना है, खासकर युवाओं को, जो अपनी आजादी और वयस्कता का प्रदर्शन करने के लिए शायद ऐसा करते हैं। यदि मेरे पास समय होता है और उस युवा से बात करना बेहतर समझता हूं तो आमतौर पर मैं रुककर उनको समझाने की कोशिश करता हूं कि कैसे चयनित शब्दों की सुंदरता आपकी बातचीत को संगीत जैसा मधुर बना सकती है, जिससे श्रोता आनंद में भर जाए।

प्रशिक्षण की कई कक्षाओं में मैंने बताया है कि कुशल और सुंदर वाक्यांश सेल्स को आकर्षित कर सकते हैं और सुनने वाले से बेहतर संबंध बना सकते हैं। मैं खासतौर पर सेल्स प्रोफेशनल्स के लिए सुसभ्य अभिव्यक्ति पर जोर देता हूं।

मुझे ये बातें इस रविवार को तब याद आईं जब मैंने हरियाणा के एक प्रोफेसर द्वारा किए सर्वे के बारे में पढ़ा, जिसमें देश के 70 हजार पेशेवरों का डेटा जुटाया गया था। इसमें सामने आया कि भारत में पुलिसकर्मी अपशब्द बोलने वाले पेशेवरों की सूची में सबसे ऊपर हैं। ये डेटा राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता सामाजिक कार्यकर्ता और रोहतक के महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय में प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस सुनील जागलान के 11 साल लंबे सर्वे का हिस्सा है।

सर्वे के अनुसार अपमानजनक भाषा का सबसे अधिक इस्तेमाल पुलिसकर्मियों (77%) में देखा गया। इसके बाद वकील (73%), राजनेता (71%), कॉर्पोरेट पेशेवर (70%) हैं। ये दर्शाता है कि अत्यधिक तनाव, झगड़े वाले या प्रतिस्पर्धी कार्य वातावरण और अभद्र भाषा के उपयोग के बीच एक गहरा संबंध है। पत्रकार 68% के साथ सूची में पांचवें स्थान पर हैं। आश्चर्य नहीं कि सफाई कर्मी व कुली (64%) और खिलाड़ी (52%) भी गौर करने लायक हैं, क्योंकि वे हमेशा उच्च दबाव में रहते हैं और उनका शारीरिक रूप से चुनौती भरा काम भी इस व्यवहार से अछूता नहीं है।

लेकिन सर्वे की जिस बात से मुझे हैरानी हुई, वह समाज की देखभाल और शिक्षा की जिम्मेदारी निभाने वाले स्वास्थ्य पेशेवर व शिक्षकों की इसमें मौजूदगी थी। स्वास्थ्य पेशेवरों में ये दर 42%, शिक्षकों में 41% थी। उपचार और सीखने वाली जगहों पर ऐसे आंकड़े चिंता का सबब हैं। इससे मुझे आशुतोष राणा का एक कथन याद आया ​कि रावण विद्वान था, लेकिन राम विद्यावान (सुशिक्षित) थे।

उन्होंने कहा कि शिक्षा का मतलब परम साक्षर होना नहीं है, परम शिक्षित होना है। इसके लिए आवश्यक नहीं कि हम कितने पढ़े-लिखे हैं, कितनी विभिन्न भाषाएं बोल सकते हैं, लेकिन शिक्षित होने का मूल उद्देश्य है कि यह हमें दूर खड़े व्यक्ति को पास लाने का हुनर सिखाती है। यही कारण है कि मैं पूरे दिल से जागलान के अभियान ‘गाली बंद घर’ का समर्थन करता हूं, जो न केवल अपमानजनक भाषा को हतोत्साहित करता है, बल्कि एक ऐसे भारत की कल्पना का आंदोलन है, जहां शब्द घाव देने के बजाय उपचार करें।

वह इस बात पर जोर देते हैं कि ‘हमें अपनी भाषा को समावेशी, सम्मानजनक और उत्साहवर्धक बनाना चाहिए, क्योकि गरिमा की शुरुआत इसी से हो जाती है कि हम आपस में किस प्रकार बात करते हैं।’भोपाल में शनिवार सुबह एक एजुकेशन एडवायजरी बैठक में मैंने एक वाकिया बताया, जिसमें मुझसे पहले एक वक्ता ने हमें ‘गैलेक्सी ऑफ स्टार्स’ यानी तारों की आकाशगंगा कहकर पुकारा।

मैंने सुझाव दिया कि क्या हम ‘गैलेक्सी’ के बजाय ‘कहकशां’ शब्द का प्रयोग कर सकते हैं, क्योंकि ये अधिक काव्यात्मक है। भावपूर्ण शब्द, सुसभ्य अभिव्यक्ति, उत्कृष्ट गद्य, परिष्कृत शब्द और कलात्मकता हमारी बातचीत को मनमोहक बनाते हैं।

फंडा यह है कि यदि आपको लोगों में उपरोक्त परिभाषा के विपरीत गुण मिलते हैं, तो उन्हें ‘मेंटल फ्लॉस क्लास’ यानी मानसिक सफाई की कक्षा में भेजें। क्योंकि जैसे साबुन से शरीर व प्रार्थना से आत्मा को साफ करते हैं, वैसे ही दिमाग की प्रदूषित शब्दावली को भी साफ करने की जरूरत है।

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