Saturday 18/ 10/ 2025 

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Minhaj Merchant’s column: Pakistan’s plans are failing one by one. | मिन्हाज मर्चेंट का कॉलम: पाकिस्तान के तमाम मंसूबे एक-एक कर नाकाम हो रहे

3 घंटे पहले

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मिन्हाज मर्चेंट, लेखक, प्रकाशक और सम्पादक - Dainik Bhaskar

मिन्हाज मर्चेंट, लेखक, प्रकाशक और सम्पादक

अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी की भारत-यात्रा से पाकिस्तान में अफरातफरी मची हुई है। तालिबानी नेता की आठ दिवसीय भारत-यात्रा का एक-एक दिन पाकिस्तान ने बामुश्किल काटा, क्योंकि इसी दौरान अफगानिस्तान से उसकी जंग भी चलती रही।

उसने तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) प्रमुख नूर वली मेहसूद को मारने के लिए काबुल पर हवाई हमला भी किया, लेकिन इसमें मेहसूद के बजाय उसका बेटा मारा गया। पहले से ही तनावपूर्ण चले आ रहे अफगानिस्तान-पाकिस्तान संबंधों में आंशिक युद्धविराम के बावजूद अनेक चुनौतियां कायम हैं।

पाकिस्तान का सबसे बड़ा डर भारत और अफगानिस्तान के बढ़ते हुए रिश्ते थे और मुत्ताकी की भारत यात्रा ने इसे सही साबित कर दिया। जम्मू-कश्मीर पर भारत की सम्प्रभुता को स्वीकार करके मुत्ताकी ने पाकिस्तान को और आक्रोशित कर दिया है।

अगस्त 2021 में जब अमेरिका के नेतृत्व वाली नाटो सेनाएं अफगानिस्तान को तालिबान के हवाले कर वापस लौटी थीं तो पाकिस्तानी नेताओं ने यह सोचकर जश्न मनाया था कि अब अफगानिस्तान पश्चिमी मोर्चे पर उसका रणनीतिक-बेस होगा। लेकिन चार साल बाद तालिबान शासित अफगानिस्तान सामरिक तौर पर उसका शत्रु बन बैठा है।

अफगानी जमीन से आतंकवादी पाकिस्तान को निशाना बना रहे हैं। वास्तव में, पाकिस्तान अब कई मोर्चों पर हमले झेल रहा है। टीटीपी पाकिस्तानी सैन्य ठिकानों पर आत्मघाती हमले कर ही रहा है। इधर, बलूचिस्तान में द बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी (बीएलए) और बलूचिस्तान लिबरेशन फ्रंट (बीएलएफ) ने चीन द्वारा बनाए बुनियादी ढांचों पर हमले तेज कर दिए हैं। खैबर-पख्तूनख्वा के पहाड़ी इलाकों में भी स्वायत्तता की मांग को लेकर स्थानीय उग्रवादी समूहों का विद्रोह बढ़ रहा है।

साद हुसैन रिजवी के नेतृत्व वाला तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (टीएलपी) घरेलू मोर्चे पर पाकिस्तान के लिए एक राजनीतिक खतरा है। इस कट्टरपंथी समूह को पाकिस्तानी सेना अपने प्रॉक्सी के तौर पर इस्तेमाल करती है। इसकी चरमपंथी विचारधारा असीम मुनीर के कट्टर इस्लामवाद से मेल खाती है।

लेकिन पाकिस्तानी सेना द्वारा पाले जा रहे लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और हिजबुल मुजाहिदीन जैसे समूहों के उलट, टीएलपी अकसर पाकिस्तान के हाइब्रिड सिविल-मिलिट्री नेतृत्व के खिलाफ काम करता है। जब मुनीर और शाहबाज शरीफ क्रिप्टो, तेल और रेयर अर्थ सौदों से ट्रम्प को लुभा रहे थे तो टीएलपी ने ट्रम्प की मध्यस्थता वाले इजराइल-हमास शांति समझौते के विरोध में लाहौर से इस्लामाबाद में अमेरिकी दूतावास तक मार्च शुरू कर दिया था।

यह पाकिस्तान की जांची-परखी रणनीति है कि एक तरफ तो उसका नेतृत्व अमेरिका को खुश करता है, जबकि इससे अनजान होने का दिखावा करते हुए टीएलपी जैसे भाड़े के प्रॉक्सी पाकिस्तान में अमेरिका को धमकाते हैं। उद्देश्य यही है कि अमेरिका भी प्रसन्न रहे और पाकिस्तानी अवाम की हमास समर्थक और इोजराइल विरोधी भावनाओं को भी संतुष्ट रखा जाए।

ऑपरेशन सिंदूर में भारत से मिली शर्मनाक हार के बाद पाकिस्तान फिर से अवसर तलाश रहा है। उसने ट्रम्प की खुशामद की। सऊदी अरब से रक्षा संधि की और ट्रम्प के गाजा शांति समझौते का समर्थन किया। पाकिस्तान-सऊदी सैन्य संबंध दशकों पुराने हैं।

2015 में जब सऊदी-यूएई संयुक्त सेना ने यमन में हूती विद्रोहियों पर हमला किया तो सऊदी ने ऑपरेशन का नेतृत्व करने के लिए पाकिस्तान के पूर्व सेना प्रमुख रहील शरीफ को नियुक्त किया था। दस साल बाद भी यह ऑपरेशन हूती विद्रोहियों को हराने में विफल रहा है।

पाकिस्तान के कश्मीर मुद्दे के अंतरराष्ट्रीयकरण के मंसूबे विफल हो गए हैं। उलटे, पीओके में बढ़ी हिंसा ने बता दिया है कि वहां के लोगों के मन में गुस्सा भरा है। मुनीर की रणनीति भारत को विरोधी ताकतों से घेरने की थी- पश्चिम में अफगानिस्तान, पूर्व में बांग्लादेश, दक्षिण में श्रीलंका और उत्तर में नेपाल। लेकिन बांग्लादेश को छोड़कर सभी तिकड़में विफल हो गईं।

सम्भवत: बांग्लादेश भी अगले साल वहां होने वाले चुनाव के बाद भारत से रिश्तों के आर्थिक लाभ को समझ जाए। अफगानिस्तान ताजा उदाहरण है। यह बताता है कि पाकिस्तान के क्षेत्रीय दांव भी नहीं चल रहे हैं। इमरान को कैद में रखना मुनीर के लिए राजनीतिक संकट भी बन सकता है, क्योंकि मुनीर ने ही इमरान का जेल जाना सुनिश्चित किया था। मुनीर को डर है कि इमरान की लोकप्रियता पाकिस्तान पर फौज के दबदबे को कमजोर कर सकती है।

मुनीर की रणनीति भारत को घेरने की थी- पश्चिम में अफगानिस्तान, पूर्व में बांग्लादेश, दक्षिण में श्रीलंका और उत्तर में नेपाल। लेकिन बांग्लादेश को छोड़कर सभी तिकड़में विफल हो गईं। उलटे अफगानों से हमारे ताल्लुक बेहतर हुए हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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