Navneet Gurjar’s column – The story of becoming a slave by one’s own hands… | नवनीत गुर्जर का कॉलम: अपने ही हाथों खुद गुलाम होने की कहानी…

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53 मिनट पहले
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नवनीत गुर्जर
मैं देश हूं! भारत हूं! चूंकि पिछले बारह वर्षों से चुनावी मोड में रहने वाले देश में फिलहाल फिर चुनाव हैं, इसलिए समझ लीजिए मैं बिहार हूं! बहुत गुजरा है वक्त ऐसे ही और बह चुका है गंगा में बहुत पानी। इतने समय में। इतनी राह तकते।
वो जिसका बीज नहीं था, पेड़ वो भी पल गया आखिर! मुझे तो अजनबी समझा था मिट्टी ने। हवा ने पीठ कर ली थी। फकत एक आसमां था बेकरार, सारे बिहार पर बरसता रहा और लोग तरसते रहे, तड़पते रहे, किसी सड़क के किनारे अस्थाई घर बांधकर या झोपड़ी बनाकर।
हर तरफ छेद थे छत में! उन्हीं छेदों में से घुसकर वो जालिम हवा, कभी उनकी खिचड़ी को ठंडा कर जाती थी!
आसमां से गिरते आंसू, इन छेदों से इतने टपकते थे कि कभी उनके आलुओं की तरी बन जाती थी, तो कभी उनकी रोटियां लुग्दीनुमा हो जाती थीं। भीगे हुए बिस्तर पर जबरन सुला दिए गए नंगे बच्चे अब भी पूरे शरीर में चुभन महसूस करते हैं!
पर किसे फिक्र है? कौन सुध लेता है? सबके सब वोटों की दुहाई देते फिरते हैं। सबको कुर्सी चाहिए। सबको अपनी किस्मत चमकानी है, हमारी किस्मत फोड़कर। हमारे करम की चौरासी करके…। उन टपकती छतों वाली झोपड़ियों में बैठे लोगों को तो यह भी पता नहीं चल पाता कि कब रात हुई और कब सुबह? आखिर, जब तक सियासतदानों का, नेताओं का हुक्म न आए, कोई कैसे मान सकता है कि सुबह हो गई। पौ फट गई।
लोगों के लिए ये सफर छोटा नहीं, वर्षों का है। सदियों का है। वे हर घंटे, हर बरस से गुजरे हैं, एक पूरी उम्र देकर। बहुत से नर्म चेहरे जो जवां थे, उनपर झुर्रियां पड़ गई हैं। जो खाली पेट थे, वे पीठ के बल रेंग रहे हैं। रेंगते रहेंगे यूं ही, जब तक चुनाव हैं। झूठे वादे हैं और मक्कार नेता।
उन आम लोगों की चमड़ी मोटी और सख्त हो चुकी है। इसलिए नहीं कि वे पहाड़ चढ़ते हैं, बल्कि इसलिए कि वे मजबूर हैं। मजदूर हैं। वक्त का बोझ उठाकर चलते हैं। औजारों से भी ज्यादा खर्च हो चुके हैं। …ऊपर से चुनाव आ गया और साथ लाया एक चुनाव आयोग, जिसने न किसी का आधार माना और न ही किसी की बात। पूरे वक्त अपनी ही चलाता रहा।
जीत आखिर उसी की होनी थी। हुई भी।
सड़क किनारे डेरा डाले उन लोगों को किसी ने बांग्लादेशी बताया, किसी ने घुसपैठिया कहा। लेकिन लोगों ने बुरा नहीं माना। मान भी लेते तो क्या कर लेते? बहरहाल, आज दूसरे और आखिरी चरण की नाम वापसी होनी है। बिहार विधानसभा की तमाम सीटों पर स्थिति स्पष्ट हो जाएगी।
चुनाव बाद परिणाम क्या होंगे, यह कहना तो अभी ठीक नहीं होगा लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि जिस खेमे में ज्यादा बिखराव दिखाई दे रहा है, वो शायद नुकसान में रहेगा।
बस, इतने संकेत भर से समझने वाले समझ जाएंगे कि राज्य में किसकी जीत की संभावना ज्यादा है और कौन पराजय के गर्त में जाने वाला है। वैसे भी फौलाद के बूट होते हैं सियासतदानों के, चींटियों का रोना आखिर किसने सुना है!
हाथ हमेशा साफ होते हैं नेताओं के। खून के धब्बे धुल जाते हैं साबुन से या वाशिंग मशीन में। आम आदमी तो जमीन पर रहता है गेहूं की तरह और दफ्न किया जाता है पेड़ों की तरह। फूंक दिया जाता है तनों को। अश्वमेध की कुर्बानी हर दौर में होती है। हर चुनाव में होती है। शायद होती ही रहेगी।
खैर, बिहार में टिकटों का दौर गुजर चुका है। किसी पर टिकट बेचने का दाग लगा। किसी पर अपनों को ही टिकट देने का आरोप लगा। कोई टिकट न मिलने पर बागी हो गया तो किसी ने पत्नी, बेटे या बेटी को चुनाव मैदान में उतारकर ताल ठोक दी। अपनी ही पार्टी के आगे। अपने ही नेता के सामने!
कई पर कई तरह के आरोप लगे। उनके उसी तरह के जवाब भी सामने आए। इन आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर अब बीत चुका है। अब वक्त है प्रचार का। ऐसे वादे करने का जो वर्षों से पूरे नहीं हो सके। सालों से पूरे नहीं किए जा सके।
सिवाय हर पांच साल में उन्हीं वादों को अलग- अलग तरीकों से दोहराने के। वही दोहराए जाएंगे। बड़ी शान से।
टिकट बेचने के दाग से अपनों को टिकट देने के आरोप तक टिकटों का दौर गुजर चुका है। किसी पर टिकट बेचने का दाग लगा। किसी पर अपनों को ही टिकट देने का आरोप लगा। कोई टिकट न मिलने पर बागी हो गया तो किसी ने पत्नी, बेटे या बेटी को चुनाव मैदान में उतारकर ताल ठोक दी।
बड़े ऐतबार के साथ! नेताओं की चलती तेज हवा में हमें झुकानी पड़ेगी अपनी राय। वे हमारी भावनाओं पर कोड़े बरसाते रहेंगे और हम चुपचाप सहन करते रहेंगे।
सहते रहेंगे, उनकी मार। चीखती रहेंगी अंधेरे की गरारियां। और हम फिर हो जाएंगे पांच साल के गुलाम।
अपने ही हाथों। अपने ही कर्मों से!
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