Pawan K. Verma’s column – Will Bihar choose real change this time? | पवन के. वर्मा का कॉलम: बिहार इस बार वास्तविक बदलाव को चुनेगा या नहीं?

6 घंटे पहले
- कॉपी लिंक

पवन के. वर्मा पूर्व राज्यसभा सांसद व राजनयिक
मैं अकसर सोचता हूं कि 2020 के बिहार चुनावों में भाजपा ने अपने गठबंधन सहयोगी नीतीश कुमार और जद(यू) का कद छोटा करने के लिए चिराग पासवान का इस्तेमाल क्यों किया था। उस चुनाव में, चिराग ने अपनी पार्टी लोजपा (आरवी) को पूरी तरह से जद(यू) के उम्मीदवारों के निशाना बनाते हुए खड़ा किया था। इससे जद(यू) को अनुमानित तौर पर 38 सीटों का नुकसान हुआ और वह 43 सीटों पर सिमटकर रह गई। यह भाजपा की 74 सीटों से काफी कम थी। इसके बाद भाजपा सीनियर पार्टनर बन गई।
मुझे इसके बाद नीतीश से हुई अपनी एक मुलाकात याद है। तब मैं जद(यू) का हिस्सा नहीं था। उसके एक साल पहले, प्रशांत किशोर और मुझे एक ही दिन, एक ही पत्र लिखकर सीएए-एनआरसी का विरोध करने के कारण पार्टी से निकाल दिया गया था। लेकिन वैचारिक मतभेदों के बावजूद नीतीश और मैं दोस्त बने रहे थे। जब हम मिले, तो उन्होंने मुझसे इस बारे में बात की थी।
मेरे विचार से, वह एक अनैतिक, अनावश्यक और खतरनाक नीति थी। इसका एक परिणाम यह हुआ कि राजद की सीटें बढ़ गईं, क्योंकि जद(यू) को जिन 38 सीटों का नुकसान हुआ था, उनसे सीधे-सीधे राजद को ही फायदा मिला।
अगर ये सीटें तेजस्वी यादव को नहीं मिलतीं, तो राजद की सीटें लगभग आधी होतीं। लेकिन उसे 75 सीटें मिलीं, जो कि भाजपा से एक ज्यादा थी और वह विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बन गई। एनडीए बड़ी ही मुश्किल से सरकार बनाने में कामयाब रहा। एक दर्जन से ज्यादा सीटों पर एनडीए की जीत का अंतर बेहद कम रहा था- महज कुछ वोटों से लेकर 2000 वोटों से भी कम तक।
संक्षेप में, भाजपा द्वारा नीतीश कुमार को एनडीए में जूनियर पार्टनर बनाने के फेर में राजद लगभग चुनाव ही जीत गया था! इस बार भी, चिराग की पार्टी को 29 सीटें मिली हैं, जबकि 2020 में उसे सिर्फ एक सीट पर जीत मिली थी। यह नीतीश के लिए चिंता का विषय हो सकता है।
2020 में, जद(यू) 115 और भाजपा 110 सीटों पर लड़ी थी। इस बार दोनों ही 101 सीटों पर लड़ रहे हैं। हालांकि, जद(यू) की सीटें कम होने के अलावा भी तीन और महत्वपूर्ण अंतर हैं। पहला, 2020 की तुलना में नीतीश इस बार शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर हैं और उनकी पार्टी पहले से ज्यादा जर्जर है।
दूसरा, एक नए फैक्टर के रूप में जन सुराज पार्टी और प्रशांत किशोर का उदय हुआ है। अगर बिना किसी तैयारी के भी चिराग पासवान आखिरी समय में नीतीश के खिलाफ उम्मीदवार उतारकर उन्हें इतना नुकसान पहुंचा सके थे, तो देखना होगा कि अच्छी तरह से तैयार और संगठनात्मक रूप से मजबूत जन सुराज पार्टी जद(यू) की सीटों की संख्या को कितना और नुकसान पहुंचाएगी। तीसरा, 2020 के विपरीत, भाजपा ने इस बार यह घोषणा नहीं की है कि एनडीए की जीत होने पर नीतीश ही मुख्यमंत्री होंगे।
इसके विपरीत, महागठबंधन ने आखिरकार तेजस्वी को अपना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया है। लेकिन ऊपरी तौर पर दिखाई जा रही एकता के पीछे अंदरूनी तनाव अभी भी बरकरार है। सीटों के लिए पार्टी के भीतर खींचतान जारी है। नामांकन वापसी की आखिरी तारीख तक ‘दोस्ताना लड़ाई’ की बातें चल रही थीं। सच कहूं तो प्रतिस्पर्धी चुनावी राजनीति में ‘दोस्ताना लड़ाई’ जैसी कोई चीज नहीं होती।
इसके अलावा, राजद अभी भी लालू के ‘जंगल राज’ की यादें ताजा कराता है। तेजस्वी न तो जेन-जी के समझदार प्रतिनिधि माने जा सकते हैं, और न ही अपने पिता के सामाजिक न्याय के सिद्धांत का विश्वसनीयता से प्रतिनिधित्व कर सकते हैं।
महागठबंधन में सबसे कमजोर पक्ष तो कांग्रेस का है। 2020 में कांग्रेस ने जिद करके 70 सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन सिर्फ 19 ही जीत पाई थी। इस बार भी वह सहयोगियों की कीमत पर 60 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जो उसकी चुनावी क्षमता और सांगठनिक क्षमता से कहीं ज्यादा हैं।
ज्यादातर लोग सोचते हैं कि बिहार के लोग जातिगत निष्ठाओं से आगे नहीं सोच पाते। पहली बात तो यह कि ऐसा नहीं है कि दूसरे राज्यों में जातिगत समीकरणों का कोई अस्तित्व ही नहीं है। दूसरी बात यह कि लोग भूल जाते हैं बिहार ही वह राज्य है, जहां जेपी की सम्पूर्ण क्रांति जैसी जाति-भेद से परे, युगांतरकारी घटनाएं घटी थीं। आज बिहार का खजाना खाली है, लेकिन रेवड़ियां और जुमले बरस रहे हैं। 14 नवम्बर को पता चल जाएगा कि बिहार के लोग अतीत की नीरस यथास्थिति के बजाय वास्तविक बदलाव को चुनते हैं या नहीं।
लोग भूल जाते हैं कि बिहार ही वह राज्य है, जहां जेपी की सम्पूर्ण क्रांति जैसी घटनाएं घटी थीं। आज बिहार का खजाना खाली है, लेकिन रेवड़ियां और जुमले बरस रहे हैं। 14 नवम्बर को हमें बिहार का फैसला पता चल जाएगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)
Source link
