Sunday 26/ 10/ 2025 

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N. Raghuraman’s column – There’s something special in everyone’s life | एन. रघुरामन का कॉलम: कुछ खास है हरेक की जिंदगी में

2 घंटे पहले

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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु - Dainik Bhaskar

एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

जब उन्होंने किसी मेहमान से कहा कि “हमने अभी-अभी कॉफी पी है’, तो मैं उनसे असहमत नहीं हो सकता था, क्योंकि यह झूठ बोलते हुए भी उनकी नजरें मेरी आंखों पर ही थीं! मैं बस यही सोच पाता था कि जब दूध ही नहीं है तो हम कॉफी कैसे पी सकते हैं? लेकिन मैं यह पूछ नहीं सकता था। उनकी आंखें मुझे उस झूठ से बांधे रखतीं।

फिर वे रसोई में चली जातीं। बैठकखाने में बैठे-बैठे मुझे स्टेनलेस स्टील के कुछ बर्तनों के इधर-उधर हिलने की आवाज आती और यह मेरे लिए एक संकेत होता कि मुझे तुरंत रसोई पहुंच जाना चाहिए। वे मुझे एक बर्तन और पच्चीस पैसे देतीं। मेरा काम यह था कि चूंकि आगे के कमरे में मेहमान बैठे हैं, इसलिए पीछे के रास्ते से निकलकर बाहर जाऊं और दूध खरीदकर लाऊं।

बिना किसी शब्द के केवल आंखों और कानों से ही किसी बात को समझ लेने की कला के यह मेरे जीवन के कुछ शुरुआती पाठों में से एक था। एक रुपए में चीनी और घी खरीदना और बाकी के पैसों से इलायची और लौंग लाना- यह घर में किसी मेहमान के आने पर मेरे कई कामों में से एक था।

लौटने के बाद मैं मजाक में कहता कि मुझे नहीं पता था हम इतने अमीर हैं। इस पर वे प्यार से मेरे सिर पर एक टपली मारतीं और मुस्कराकर कहतीं, तो फिर खूब पढ़ाई करो और खूब कमाओ ताकि हम अमीर बन सकें।

तब मैं बाहर चला जाता, अपनी किताबें निकालता और उसी हॉल के एक कोने में ऐसे बैठ जाता, मानो तमाम पढ़ाई अभी ही कर लूंगा और रात तक इतना बड़ा हो जाऊंगा कि अगली सुबह से पैसे कमाने लगूंगा। घी, इलायची और शीरा बनाने की सामग्री की महक मुझे किताबों पर ध्यान नहीं केंद्रित करने देती, लेकिन मेहमान को मुझे दिखाना होता था कि मैं एक अच्छा लड़का हूं।

मां खुद ही एक छोटी-सी प्लेट में शीरा लेकर आतीं, क्योंकि उन्हें मुझ पर भरोसा नहीं ​होता था कि मैं रसोई से हॉल तक जाते हुए उसे चख नहीं लूंगा। और जब मेहमान मां से पूछते, “इसके बारे में क्या?’ तो मां ने मुझे इतना सिखाया था कि उनके कुछ कहने से पहले ही मैं झट से “शुक्रिया, अभी नहीं’ कह देता।

वे फिर मेरी आंखों में देखतीं, जिन्हें सिर्फ मैं ही पढ़ सकता था। उनकी आंखें या तो “शुक्रिया’ कहतीं, या कहतीं कि “चिंता मत करो, मैंने तुम्हारे लिए बचाकर रखा है’। फिर वे अपनी आंखों से ही बतातीं कि “मैंने तुम्हें अभी इसलिए नहीं दिया है कि कहीं मेहमान दूसरी बार न मांग लें’। और कभी-कभी उनकी आंखें मुझसे सवाल करतीं ​कि “मेरे प्यारे बच्चे, तुम्हें दिए बिना मैं दूसरों को कैसे दे सकती हूं?’

मुझे अपने बचपन की ये तमाम बातें तब याद हो आईं, जब मैंने इस शुक्रवार को विज्ञापन जगत की चर्चित शख्सियत पीयूष पांडे के निधन के बारे में सुना। जब मुझे पहली बार अपनी लूना मिली थी, तब मैं उनका जिंगल “चल मेरी लूना’ सैकड़ों बार गुनगुनाया करता था। “हर घर कुछ कहता है’, “हमारा बजाज’ और “फेविकोल का मजबूत जोड़’ उनके द्वारा बनाए कई विज्ञापनों में शामिल थे।

उनके साथ अपनी पेशेवर मुलाकातों के दौरान मैंने हमेशा पाया कि वे अपने विचार व्यक्त करते हुए सुनने वाले की आंखों में सीधे देखते थे। उनके ज्यादातर एड-स्लोगन और कभी-कभी बिना शब्दों वाले दृश्य- जैसे कि फेविकोल का विज्ञापन- दर्शकों की आंखों और दिमाग से सीधे और सरल तरीके से बात करते थे।

और जब उन्होंने “ट्रस्ट मी’ कहा, तो कैडबरी जैसे बड़े कॉर्पोरेट क्लाइंट्स ने भी उन पर भरोसा जताया, क्योंकि उन्हें पता था कि एक लड़की को खुशी से क्रिकेट के मैदान में दौड़ते हुए दिखाकर इस विदेशी ब्रांड को देसी कैसे बनाया जाए।

फंडा यह है कि अगर आप अपने शब्दों को कुछ खास बनाना चाहते हैं, तो सीधे उन शब्दों को सुनने वालों की आंखों में देखकर उनके दिल में उतरें। जो भी कहें, दिल से कहें और फिर देखें कि आपके शब्द उन्हें कैसे यह महसूस कराते हैं कि “कुछ तो खास बात है इनमें…’

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