Monday 27/ 10/ 2025 

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संघ के 100 साल: ऐसे ही नहीं चुन लिया हेडगेवार ने गुरु गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी – Rss 100 years story guru golwalkar new sangh chief dr hedgewar successor ntcppl

राजाओं के लिए इसी में मुश्किल हो जाती थी कि उनका कौन सा बेटा उनका उत्तराधिकारी होगा, किस रानी का बेटा होगा? कैकयी जैसी रानियों ने भगवान राम तक को 14 बरस का बनवास करवा दिया था. महाभारत में गद्दी से दूर करने के लिए पांडवों को भी 13 बरस जंगल में या छुपकर गुजारने पड़े थे. शुरूआत में कांग्रेस जैसे संगठन में भी प्रधानमंत्री चुनने के लिए सिंडिकेट जैसे संगठन किंग मेकर रोल में थे. ऐसे में करोड़ों लोगों की भावनाओं को समझकर जो संगठन को देश भर में विस्तार दे सके, उसको ढूंढ निकालना डॉ हेडगेवार के लिए आसान नहीं था.

गुरु गोलवलकर से पहले कई और लोगों की चर्चाएं थीं

उन्होंने शुरूआत में शायद बालाजी हुद्दार जैसे नौजवान को इस भूमिका में सोचा होगा, तभी सर कार्यवाह जैसा पद इतनी कम उम्र में उन्हें सौंपा था. लेकिन आसानी से मिले पद की भी कोई महत्ता नहीं समझ पाता और बालाजी ने बीच राह में ही संघ और डॉ हेडगेवार का साथ छोड़ दिया था. डॉक्टरजी के कई साथी थे, जो संघ के पहले दिन से ही उनके साथ जुड़े थे, जिनमें से कई तो उससे पहले भी जुड़े थे. इन्हीं में एक थे डॉ परांजपे, लक्ष्मण वासुदेव परांजपे. रहने वाले तो कोंकण के वाडा के थे, लेकिन उनका जन्म नागपुर में हुआ था. डॉ हेडगेवार के साथ नील सिटी हाईस्कूल में पढ़े भी थे, औऱ दोनों ने ही बाद में मेडिकल की ही पढ़ाई की. हेडगेवार कलकत्ता पढ़ने गए तो परांजपे बम्बई गए.

उसके बाद दोनों ने ही कांग्रेस की सदस्यता ले ली और 1920 के नागपुर कांग्रेस अधिवेशन में भारत स्वयंसेवक मंडल की स्थापना ड़ॉ परांजपे और डॉक्टर हेडगेवार ने मिलकर की. डॉ परांजपे उनके इतने विश्वस्त थे कि जब वो गांधीजी के सविनय अवज्ञा आंदोलन में जंगल सत्याग्रह करने गए तो अपने पद से इस्तीफा देकर गए और अपनी जगह डॉ परांजपे को सरसंघचालक बनाकर गए. ये आसान नहीं था, बल्कि एक तरह का संकेत भी था कि वो अपने उत्तराधिकारी के तौर पर उस वक्त केवल डॉ परांजपे के बारे में ही सोच सकते थे.

केवल परांजपे ही नहीं बल्कि अप्पाजी जोशी, भैयाजी दाणी और बाला साहब देवरस जैसे भी नाम थे, जिन्हें डॉ हेडगेवार का करीबी माना जाता था. सबको लगता था कि इन्ही में से कोई हेडगेवार का उत्तराधिकारी बनेगा, लेकिन भैयाजी दाणी द्वारा जोड़े गए माधव कैसे गुरुजी के करीबी बनते चले गए, ये बहुतों के लिए हैरानी भरा है. भैयाजी दाणी सावरकर के प्रशंसक जमींदार बाबूजी दाणी के बेटे थे.

हेडगेवार के सम्पर्क में आकर संघ से जुड़ गए, उनकी सक्रियता देखकर डॉ हेडगेवार ने उन्हें बनारस हिंदू विश्वविद्यालय जाने के लिए राजी किया और इस तरह 1928 में बीएचयू में पहली शाखा शुरू हो गई, जाहिर है बिना मालवीयजी की सहायता के ये सम्भव नहीं था. शाखा पर आने वाले छात्रों की चर्चा में माधव सदाशिव गोलवलकर का नाम आम था, प्राणीशास्त्र के प्रोफेसर माधव सबके चहेते थे, भैयाजी दाणी के प्रयासों से वो अक्सर शाखा आने लगे. उनकी चर्चा सुनकर डॉ हेडगेवार ने उन्हें 1932 के विजयदशमी समारोह में आमंत्रित किया.

माधव और केशव दोनों का अपना था नागपुर

नागपुर माधव और केशव दोनों का अपना शहर था, यहां आकर माधव को संघ के कार्यों को को लेकर गंभीरता आई. उन्हें लगा कि ये संगठन वाकई में कुछ बड़ा और महत्वपूर्ण कर रहा है, वहां से लौटकर वो बीएचयू में संघ के साथ और भी गंभीरता से जुड़े. ये भी संयोग है कि भैयाजी दाणी की बीएचयू में पढ़ाई जब खत्म हुई, उसी साल यानी 1933 में माधव गोलवलकर ने भी बीएचयू में अपना अध्यापन कार्य खत्म किया और दोनों की मंजिल एक ही थी, नागपुर और लक्ष्य भी संघ के लिए काम करना.

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हालांकि भैयाजी दाणी ने शायद परिवार के दवाब में विवाह कर लिया और माधव ने राष्ट्र निर्माण के लिए बिना विवाह के रहने का निश्चय किया. दोनों ही संघ के लिए नागपुर में काम करने लगे. डॉ हेडगेवार उनकी बौद्धिक क्षमता, विषयों के वैविध्य, बोलते समय शब्दों के चुनाव आदि से तो प्रभावित थे ही, ये अनुमान लगाया जाता है कि कहीं ना कहीं उन्हें माधव का कांग्रेस से पूर्व में कोई रिश्ता ना होना भी पसंद आया था. क्योंकि खुद डॉ हेडगेवार और उनके लगभग सभी साथी कांग्रेस से जुड़े रह चुके थे. माधव का विवाह ना कर केवल राष्ट्र सेवा में जुटने का इरादा भी प्रबल था. ऐसे में धीरे धीरे वह डॉ हेडगेवार के प्रिय बनते चले गए. उनको नागपुर के अलावा भी बाकी प्रांतों में कार्य विस्तार के लिए भेजना शुरू कर दिया गया.

संघ की तरफ से उन्हें बड़ी जिम्मेदारी मिली मई 1938 में. ये जिम्मेदारी थी नागपुर में ओटीसी कैम्प संचालित करने की.खुद डॉक्टर हेडगेवार पुणे में आयोजित ऑल इंडिया हिंदू यूथ कॉन्फ्रेंस में भाग लेने चले गए. गुरु गोलवकर ने कमाल ही कर दिया, समय मिला तो हेडगेवार ने पंजाब के लाहौर में भी वर्ग आयोजित कर लिया और फिर 15 अगस्त को गोलवलकर और बाबा साहेब आप्टे को लेकर पंजाब निकल गए, बीच में काशी में रुके.

डॉ हेडगेवार ने गुरु गोलवलकर को काशी की नगर शाखा को सम्बोधित करने के लिए कहा, फिर बीएचयू में आयोजित हिंदी में चर्चा को दक्षिण के छात्र नहीं समझ सके तो उन्होने गुरु गोलवलकर से उन्हें अंग्रेजी में सम्बोधित करने के लिए कहा. बाद में कृष्ण जन्माष्टमी के एक कार्यक्रम में भी गुरुजी को बोलने का मौका दिया. गुरु पूर्णिमां उत्सव में भी गुरु गोलवलकर ने सम्बोधित किया. हेडगेवार उनमें भविष्य का सरसंघचालक देखने लगे थे, सो लगातार आजमा रहे थे. नाना पालकर लिखते हैं, ‘इन भाषणों को सुनकर हेडगेवार गुरु गोलवकर के आत्मविश्वास के प्रशंसक हो चले थे लेकिन उनके तीखे अंदाज को भी नोटिस कर रहे थे.’

रास्ते में दिल्ली में 24 अगस्त को गुरु गोलवलकर का सम्बोधन था और 26 को डॉ हेडगेवार का, लेकिन उनकी बीमारी के चलते गुरु गोलवलकर ने ही दोनों बार सम्बोधन दिया. लाहौर के गणेशोत्सव कार्यक्रम में भी ऐसा ही हुआ, बीमार हेडगेवार नहीं बोल पाए तो गुरु गोलवलकर को बोलना पड़ा, आयोजक महाराष्ट्र मंडल के सचिव ने जमकर गुरु गोलवलकर की तारीफ की, हेडगेवार ने पूछा भी- आखिर ऐसा क्या कहा उन्होंने, तो सचिव का जवाब था- बस पूछिए मत, काफी प्रभावपूर्ण सम्बोधन था.

संघ प्रमुख का पद संभालने से पहले गुरु गोलवलकर ने पूरे देश की यात्राएं की (Photo: ITG)

फरवरी 1939 में गुरुजी की मौजूदगी और सलाह से संघ की मराठी प्रार्थना को संस्कृत में बदलने का निर्णय लिया गया. उसके बाद गुरु गोलवलकर और विट्ठल राव पटकी को बंगाल भेज दिया गया. रामकृष्ण मिशन के केन्द्र बंगाल में अब गुरु गोलवलकर संघ की शाखाएं स्थापित कर रहे थे, माना जाता है कि उन्हें यहां भेजना भी एक तरह उनकी आजमाइश थी. लेकिन वहां से लौटते ही डॉ हेडगेवार ने उन्हें नागपुर संघ शिक्षा वर्ग का सर्वाधिकारी बना दिया और खुद पुणे के वर्ग में चले गए. पहली बार इस वर्ग में उत्तर भारत के कुछ राज्यों के स्वयंसेवक भी भाग ले रहे थे. इस वर्ग की अप्रत्याशित संख्या और उत्तम प्रबंधन से डॉ हेडगेवार काफी खुश थे और कई मौकों पर गुरु गोलवलकर की तारीफ भी की. 

आखिरी वक्त में केशव  की परछाई बन गए माधव

वर्ग के बाद चूंकि हेडगेवार की तबियत ठीक नहीं थी, सो गुरु गोलवलकर उनकी परछाई की तरह हो गए, जहां भी जाते, साथ में रहते. देवलाली के दौरे के दौरान बालाजी हुद्दार नेताजी बोस का संदेश लेकर आए. यहां से ही उन्होंने अप्पाजी जोशी और बाबा साहेब आप्टे को नए प्रचारकों की नियुक्ति को लेकर पत्र लिखे थे, जो उनके कहने पर गुरु गोलवलकर ने लिखे थे.लिखने और बोलने में ही नहीं दौरे करने में भी गुरु गोलवलकर हेडगेवार का पर्याय इन दिनों बनते जा रहे थे.

नासिक के कार्यकर्ताओं के प्रबल आग्रह पर हेडगेवार ने खुद की जगह गोलवलकर को ही भेजा. एक बार तो गुरु गोलवलकर ने हेडगेवार के परिजनों की जगह ही ले ली. नासिक में जब डॉक्टर्स ने कहा कि डॉ हेडगेवार की तबियत गंभीर है, उनके परिजनों को सूचित करना होगा. तो गुरु गोलवकर ने शांति के साथ कहा, ‘वी आर हिज रिलेटिव्स’. वहां तात्या तेलंग के साथ वो उनकी सेवा में जुटे रहे. चाहे उनके कपड़े बदलना हो या फिर गर्म पानी की बोतल से उनकी सिकाई करना, सारे काम गुरु गोलवलकर ही करते थे. 

मेरा तो एक ही वार है- हेडगेवार

नासिक में देश भर से डॉ हेडगेवार के पास जो पत्र आते थे, सभी का जवाब उनसे पूछकर गुरु गोलवलकर ही लिखते थे, यहां तक कि जिस परिवार से उनके लिए खाना आता था, उसको जाकर हेडगेवार की पसंदीदा डिशेज भी बताकर भेजने का आग्रह करते थे. उन्हें ऐसा लग रहा था कि स्वामी अखंडानंद जैसा ही समय खुद को दोहरा रहा है. मिलने आने वालों के बीच एक दिन चर्चा हो रही थी कि व्रत के लिए आपका दिन कौन सा है, किसी ने कहा सोमवार तो किसी ने मंगलवार, गुरु गोलवलकर ने कहा, “मेरा तो एक ही वार है- हेडगेवार”.

हेडगेवार की तबियत थोड़ी सुधरी तो गोलवलकर उन्हें लेकर मुंबई गए, टेस्ट हुए, फिर सभी 7 अगस्त 1939 को नागपुर लौट आए. 6 दिन बाद 13 अगस्त को गुरु पूर्णिमा उत्सव था, डॉ हेडगेवार ने एक बड़ा ऐलान किया कि संघ के सरकार्यवाह माधव सदाशिव गोलवलकर होंगे, एक तरह से उन्हें अपना उत्तराधिकारी ही घोषित कर दिया था. हालांकि आधिकारिक रूप से ऐसा नहीं माना जाता. अब तक प्रचार से दूर रहने वाले हेडगेवार ने पहली बार ये फैसला किया कि गुरु पूर्णिमा उत्सव की ये खबर पूरे देश भर के अखबारों में छपेगी, हुआ भी ऐसा ही, चेन्नई से लेकर बंगाल तक, पंजाब से लेकर यूपी तक के अखबारों में ये खबर छपी.

नागपुर की गर्मी हेडगेवार पर भारी पड़ी

उसके बाद स्वास्थ्य लाभ के लिए हेडगेवार बिहार के राजगीर चले गए और गुरु गोलवलकर संघ के काम में फंस गए, पंजाब भी जाना था. लेकिन वो लगातार आपस में पत्राचार करते रहे. हालांकि बीच में एक बार नागपुर आने के बाद डॉ हेडगेवार फिर वापस राजगीर लौटे और इस बार उनकी तबियत अच्छी हुई तो नागपुर में सक्रिय हो गए, लेकिन गर्मी बढ़ते ही उनकी तबियत फिर से खराब होने लगी, समय नागपुर और पुणे में संघ शिक्षा वर्गों का हो गया था. पहली बार संस्कृत में प्रार्थना गाई जानी थी. 

ओटीसी वर्ग पहली बार इतना विशाल हुआ तो गुरु गोलवलकर की तारीफ में उनको पत्र लिखने से डॉ हेडगेवार खुद को नहीं रोक पाए और स्वीकारा कि उनकी अगुवाई में ये वर्ग पिछले सारे वर्गों से बेहतर हुआ है, पुणे ओटीसी को हेडगेवार ने 2 घंटे तक कुर्सी पर बैठकर सम्बोधित भी किया, लेकिन नागपुर की गर्मी उन पर भारी पड़ गई.

नागपुर के वर्ग में भजनों के एक कार्यक्रम में उन्हें इतना असहज महसूस हुआ कि वो चुपचाप घर चले आए और लेट गए, वो बुखार में तप रहे थे. तबियत कई दिनों तक नहीं सुधरी लेकिन वो वर्ग के आखिरी दिन जाना चाहते थे, अधिकारी उन्हें बौद्धिक में लेकर आए, गुरु गोलवकर ने बौद्धिक दिया, हेडगेवार प्रसन्न तो थे लेकिन देश भर से आए स्वयंसेवकों से ना मिल पाने की टीस भी थी. कुछ दिन पहले बीमारी के दौरान ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी उनसे मिलकर गए. बाद में अगले दिन आंतरिक समापन कार्यक्रम में हेडगेवार ने सम्बोधन दिया, ये ऐतिहासिक था.

उत्तराधिकारी का ऐलान

कुछ दिनों बाद डॉ हेडगेवार को मेयो हॉस्पिटल ले जाया गया, फिर उन्हें नागपुर संघचालक बाबा साहब घटाटे के बंगले में ले जाया गया. गुरु गोलवलकर हर वक्त उनके साथ थे. 20 जून को नेताजी सुभाष चंद्र बोस भी उनसे मिलने आए और उनके पास बैठकर चले गए, क्योंकि हेडगेवार अर्धबेहोशी की हालत में थे, जब चेतन हुए तब दुखी थे कि नेताजी से नहीं मिल पाया.

जब हालत नहीं सुधरी तो डॉक्टर्स ने लंबर पंक्चर का निर्णय लिया, ऐसे में हेडगेवार को भी लगा कि उनका समय अब आ गया है, तो सभी उपस्थित अधिकारियों और स्वयंसेवकों की उपस्थिति में माधव गोलवलकर से कहा कि, “समय मेरे लंबर पंक्चर का आ गया है, अगर मैं बचता हूं तो मैं रहूंगा ही, अन्यथा आपको संघ की जिम्मेदारी मेरे बाद संभालनी है”. बहुत दुखी मन से गुरु गोलवलकर ने कहा, “आप ये क्या कह रहे हो ड़ॉक्टरजी? आप जल्द ठीक हो जाओगे”. मुस्कराते हुए डॉ हेडगेवार ने बस इतना कहा कि, “ये सही है, लेकिन ध्यान रखना मैंने क्या कहा है”.  

अगले दिन सुबह 9.27 बजे ड़ॉक्टर हेडगेवार की आत्मा परमात्मा में विलीन हो गई, और देश दुख के साए में चला गया. जिसने भी सुना हैरान था. ये देश भर के स्वयंसेवकों के लिए ये अनाथ होने जैसा था, लेकिन जितने भी लोग गुरु गोलवलकर से मिले थे, उन्हें पूरा भरोसा था कि डॉ हेडगेवार के छोड़े हुए काम को पूरा करने के लिए उनसे बेहतर और कोई उत्तराधिकारी है ही नहीं. 
 

पिछली कहानी: जब RSS का साथ छोड़कर चुपचाप चले गए थे गुरु गोलवलकर

 

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