Monday 01/ 12/ 2025 

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Rashmi Bansal’s column – Life is a game, there will be wins and losses… you just play with your heart | रश्मि बंसल का कॉलम: जीवन एक खेल है, हार-जीत लगी रहेगी… आप बस दिल से खेलो

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36 मिनट पहले

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रश्मि बंसल, लेखिका और स्पीकर - Dainik Bhaskar

रश्मि बंसल, लेखिका और स्पीकर

कुछ दिनों से मैं जिम जाने लगी हूं। वैसे जिम मेरी बिल्डिंग में ही है और मैं सालों पहले से जा सकती थी। लेकिन सच कहूं तो मुझे एक्सरसाइज से सख्त नफरत थी। बचपन से मेरा ध्यान दिमाग की एक्सरसाइज पर था- पढ़ना, लिखना, एग्जाम देना। और उसी से मैंने जिंदगी में काफी कुछ प्राप्त किया।

स्कूल में एक पीरियड होता था पीटी का। हमारी पीटी टीचर थीं मिस चावला, जो खुद फिटनेस की मिसाल नहीं थीं। मुझे याद है उनकी सीटी और अटेंशन-स्टैंड एट ईज-अटेंशन चिल्लाती हुई आवाज। भाई, मुझे मिलिट्री में थोड़े ही शामिल होना है।

स्पोर्ट्स डे पर किसी टीचर ने मेरा नाम 100 मीटर की रेस में डलवा दिया। उनका लॉजिक था मैं लंबी हूं, इसलिए तेज दौड़ूंगी। उन्हें क्या पता कि मेरा लास्ट नंबर आएगा। शायद मैं चाहती ही नहीं थी कि स्पोर्ट्स के झंझट में पड़ूं।

स्पोर्ट्स के नाम पर मैंने टेबल टेनिस और कैरम जरूर खेला। वो इसलिए कि बारिश के मौसम में हमारी बिल्डिंग के बेसमेंट में सब बच्चे मिलकर यही टाइमपास करते थे। टीटी में ठीक-ठाक थी, लेकिन कैरम में मैंने 15 अगस्त पर होने वाले टूर्नामेंट में कुछ पुरस्कार भी जीते।

कैरम में न तो दौड़ना पड़ता है, ना कोई धूल-मिट्टी। हां, दिमाग जरूर लगता है। किस एंगल से मारना है, कितने फोर्स से मारना है, इसमें थोड़ा मेंटल मैथ्स तो लगता है। आज भी मैं अच्छे-अच्छों को कैरम में हरा सकती हूं।

खैर, कैरम आज स्पोर्ट्स की गिनती में आता ही नहीं। ओलिंपिक्स छोड़ो, हमारी अपनी नई पीढ़ी इस महान गेम को जानती नहीं। एक तो खाली-बोर दोपहरें उन्हें नसीब नहीं, मां-बाप किसी ना किसी क्लास में डाल देते हैं। और जो वक्त मिलता है, उसमें वो वीडियो गेम या सोशल मीडिया में मगन रहते हैं।

मैंने जिम जाना शुरू किया बेटी की वजह से। वो मेरे पीछे पड़ गई कि मम्मी, अगर आप अपनी सेहत का ध्यान नहीं रखोगी, तो आगे जाकर क्या होगा? मैंने सोचा, मैं किसी पर बोझ नहीं बनना चाहती। मुझे अपनी फिटनेस पर ध्यान देना होगा। अब तकलीफ यह कि दिमाग फिर भी शरीर पर हावी। सुबह दिमाग कहता है थोड़ा और सो लो।

दोपहर को कहता है, शाम को अच्छी एक्सरसाइज होगी। शाम को कोई और बहाना। इसी वजह से मुझे ट्रेनर रखना पड़ा। एक बार फीस दे दी तो लगता है, अब तो जाना पड़ेगा। तो इस चक्कर में पिछले 8 महीनों से मैं जिम में दर्शन दे रही हूं। अपने आलस से जूझ रही हूं और सच कहूं तो कुछ बदलने लगा है। शरीर को थोड़ा कष्ट देने के बाद जो दर्द होता है, वो मीठा लगने लगा है।

सोचती हूं, शुरू से ही शरीर पर ध्यान दिया होता तो अच्छा होता। शायद आज भी बच्चे को दिमाग के सहारे ही जीने की सीख दी जाती है। अब तो स्कूल, ट्यूशन और कॉम्पी​टिशन की तैयारी के बीच में वो पूरी तरह पिस गए हैं। नींद में भी वो पढ़ाई के सपने देखते होंगे।

शहरों में जहां खेल के मैदान होने चाहिए, वहां ऊंची इमारतें खड़ी हैं। फिर भी, सड़कों पर कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं- आस-पास के गरीब बच्चे। उन इमारतों में रहने वाले बच्चे बालकनी से उन्हें देखते हैं, शामिल नहीं होते।

हमारी लड़कियों ने हाल ही में क्रिकेट वर्ल्ड कप जीता, बड़े गर्व की बात है। क्या उनसे प्रेरणा लेकर हर स्कूल में लड़कियों की क्रिकेट टीम बनेगी? जो खेलेंगी दिल खोलकर, दौड़ेंगी हल्ला बोलकर? क्या नजारा होगा, ऐसा देश हमारा होगा।

हर कोई खिलाड़ी नहीं बनेगा पर खेलने के बहुत फायदे हैं। एक टीम में शामिल होना मतलब आपको हार और जीत- दोनों का एहसास होगा। एक मैच हारने से कुछ नहीं होता है, फिर कोशिश करेंगे। एक एग्जाम फेल होने से कुछ नहीं होता, फिर से एग्जाम देंगे।

जीवन एक खेल है, हार-जीत लगी रहेगी। आप बस दिल से खेलो। (ये लेखिका के निजी विचार हैं)

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