Monday 01/ 12/ 2025 

MP में भरभराकर गिरा 50 साल पुराना पुललोकसभा में इस हफ्ते वंदे मातरम् पर होगी चर्चा, पीएम मोदी भी हिस्सा लेंगे-सूत्रबिजनौर: जामा मस्जिद के पास दो बाइक सवारों पर लाठी-डंडों से हमला, CCTV वीडियो वायरल – bijnor bike riders attacked near jama masjid cctv viral lclarआसाराम की जमानत के खिलाफ नाबालिग रेप पीड़िता पहुंची सुप्रीम कोर्ट, गुजरात हाईकोर्ट ने दी है 6 महीने की बेलबवाली गाने, रैलियों में हुड़दंग, SIR पर अलर्ट… बिहार के नतीजों से क्या-क्या सबक ले रहे हैं अखिलेश? – bihar election impact up politics akhilesh yadav style songs sir process ntcpkbPM मोदी के बयान पर अखिलेश ने पूछा-'क्या BLO की मौतें भी ड्रामा', चिराग बोले- 'सदन चलाना सभी की जिम्मेदारी'संघ के 100 साल: विभाजन के बलिदानी स्वयंसेवकों की ये कहानियां आंखों में आंसू ला देंगी – Sangh 100 years 1947 partition pakistan and lahore ntcpplBSF का स्थापना दिवस आज, जानें कितनी ताकतवर है सीमा सुरक्षा बलBLO ने फांसी पर झूलकर दी जानसंसद का शीतकालीन सत्र आज, SIR को लेकर विपक्ष की ओर से हंगामे के आसार
देश

Rajdeep Sardesai’s column – Why is Nitish Kumar still ‘important’ for the BJP? | राजदीप सरदेसाई का कॉलम: भाजपा के लिए नीतीश कुमार आज भी ‘जरूरी’ क्यों हैं?

  • Hindi News
  • Opinion
  • Rajdeep Sardesai’s Column Why Is Nitish Kumar Still ‘important’ For The BJP?

3 घंटे पहले

  • कॉपी लिंक
राजदीप सरदेसाई वरिष्ठ पत्रकार - Dainik Bhaskar

राजदीप सरदेसाई वरिष्ठ पत्रकार

बिहार की मजबूरी है, नीतीश कुमार जरूरी है’- यह नारा मैंने सबसे पहले 2017 में भाजपा कार्यालय के बाहर सुना था, जब नीतीश ने ‘अनगिनतवीं’ बार पाला बदलने का फैसला किया था। वे लालू को छोड़ फिर से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा में शामिल होकर बिहार के मुख्यमंत्री बने रहे थे।

यह वापसी किसी पुरानी दोस्ती के अचानक जाग उठने से नहीं, बल्कि राजनीतिक सुविधा से प्रेरित थी। आठ साल बाद भी ज्यादा कुछ नहीं बदला है। 2013 में मोदी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को चुनौती देने वाले नीतीश से भाजपा को कोई विशेष प्रेम नहीं है। लेकिन एनडीए के चेहरे के रूप में उसके पास कोई विकल्प भी नहीं है।

वहीं अपनी सियासी पारी के अंतिम पड़ाव पर मौजूद, उम्रदराज और अस्वस्थ नीतीश के पास भी अब कोई विकल्प नहीं, सिवाय इसके कि दिल्ली दरबार में अधीनस्थ की भूमिका स्वीकार लें। बिहार अभी भी पिछड़ी जाति के वोटबैंक वाली राजनीति की विरासत से मुक्त नहीं हो पाया है।

एक जमाने में करिश्माई नेता रहे लालू अब शारीरिक रूप से इतने कमजोर हैं कि चुनाव प्रचार भी नहीं कर पाते। उन्होंने बेटे तेजस्वी को पार्टी की कमान सौंप दी है, जो ऊर्जावान तो हैं, लेकिन उनमें पिता जैसे ठेठ गंवई अंदाज की कमी है।

जेपी आंदोलन के शायद सबसे परिष्कृत उत्पाद नीतीश भी बीमार हैं और ऐसी बीमारी से जूझ रहे हैं, जो शरीर से ज्यादा दिमाग को कमजोर करती है। भाजपा के पास केंद्र में मोदी जैसे कप्तान हैं, लेकिन राज्य में उसके पास ऐसा कोई नेता नहीं, जो पूरे सूबे में अपना प्रभाव रखता हो।

कांग्रेस संगठनात्मक रूप से कमजोर है और रातोंरात मजबूत नहीं हो सकती। फिर प्रशांत किशोर हैं, जो एक व्यवस्था-विरोधी चैलेंजर तो हैं, लेकिन अभी भी बिहार के जटिल जाति-मैट्रिक्स में अपनी जगह तलाश रहे हैं। ऐसे में हम फिर उसी प्रश्न पर लौटते हैं कि आखिर क्यों नीतीश कुमार- जो रिकॉर्ड नौ बार शपथ ले चुके हैं- आज भी जरूरी माने जा रहे हैं?

पांच साल पहले भाजपा ने चिराग पासवान को आगे कर नीतीश का कद घटाने और जेडीयू वोट बैंक को निशाना बनाने की कोशिश की थी। यह रणनीति कारगर भी रही। जेडीयू को 43 तो भाजपा को 74 सीटें मिलीं। लेकिन इसके बावजूद भाजपा ने नीतीश की जगह अपना मुख्यमंत्री बनाने में हिचकिचाहट दिखाई।

नीतीश भाजपा के इस पावर गेम को भांप गए। उन्हें अंदेशा था कि महाराष्ट्र में शिवसेना की तरह कमजोर होती उनकी पार्टी को भी भाजपा तोड़ देगी, इसलिए उन्होंने पाला बदला और इंडिया गठबंधन में शामिल हो गए। जब उन्हें लगा कि इंडिया उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा को मजबूती नहीं दे पाएगा तो 2024 के आम चुनाव से पहले वे फिर से एनडीए में आ गए।

भाजपा कई अन्य राज्यों में सहयोगियों पर अपनी शर्तें थोपने में सफल रही है, लेकिन नीतीश पर वह ऐसा नहीं कर पाती है। इसका पहला कारण तो यह है कि हिंदी पट्‌टी के अन्य राज्यों के विपरीत भाजपा बिहार में पिछड़ी जाति का खुद का कोई भरोसेमंद नेतृत्व नहीं गढ़ पाई है।

अगड़ी जातियों के प्रभुत्व का अतीत आज भी पार्टी पर मंडरा रहा है। 2015 में मोदी लहर के बावजूद भाजपा बिहार में लालू-नीतीश के साझा जातिगत समीकरण के सामने टिक नहीं पाई थी। दूसरे, आम चुनावों में भाजपा के कमजोर प्रदर्शन का मतलब है कि पार्टी को अपने हर सहयोगी को समायोजित करना पड़ेगा।

ऐसे में भाजपा नीतीश को अपने से अलग करने का जोखिम नहीं उठा सकती। अंतत:, भाजपा को पता है कि नीतीश के पास अब भी दो अंकों का मजबूत वोट-शेयर है। बिहार की प्रतिस्पर्धी गठबंधन-राजनीति में छोटा-सा वोट शेयर भी बड़ा अंतर पैदा कर सकता है।

2020 के चुनावों में जेडीयू को निर्णायक 15 प्रतिशत वोट मिले थे। 2005 से लगभग हर चुनाव में दो प्रमुख समूह- महिलाएं और अति पिछड़ी जातियां आम तौर पर नीतीश के समर्थन में रही हैं। 2005 में पहली बार सत्ता संभालने वाले नीतीश के हाथों जिस स्कूली छात्रा ने साइकिल पाई होगी, वह आज एक वयस्क मतदाता है।

आज भी वह सरकार की कल्याणकारी योजनाओं की प्रमुख लाभार्थी है। यही वह चीज है, जो नीतीश को बिहार की किसी भी सत्ता-व्यवस्था में अनिवार्य बना देती है। हो सकता है निकट भविष्य में भाजपा बिहार में भी एकनाथ शिंदे शैली का तख्तापलट करे, लेकिन अभी तो नीतीश भाजपा के लिए एक ‘जरूरी मजबूरी’ बने हुए हैं।

भाजपा को पता है नीतीश के पास अब भी दो अंकों का मजबूत वोट-शेयर है। बिहार की प्रतिस्पर्धी गठबंधन राजनीति में छोटा-सा वोट शेयर भी बड़ा अंतर पैदा कर सकता है। 2020 में जेडीयू को निर्णायक 15% वोट मिले थे।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

खबरें और भी हैं…

Source link

Check Also
Close



DEWATOGEL


DEWATOGEL