Thursday 17/ 04/ 2025 

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जमीअत उलमा-ए-हिंद की बुलाई गई सभा, मुसलमानों से जुड़े अहम मुद्दों पर रखे प्रस्ताव

जमीअत उलमा-ए-हिंद की बैठक में रखे गए प्रस्ताव।
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जमीअत उलमा-ए-हिंद की बैठक में रखे गए प्रस्ताव।

जमीअत उलमा-ए-हिंद की कार्यकारी समिति की एक सभा 13 अप्रैल को दिल्ली में आयोजित की गई। इस दौरान जमीअत उलमा-ए-हिंद की कार्यकारी समिति की सभा ने वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 पर गंभीर चिंता व्यक्त करती है। समिति के अनुसार यह न केवल भारतीय संविधान के कई प्रावधानों (अनुच्छेद 14, 15, 21, 25, 26, 29 और 300-ए) के विरुद्ध है, बल्कि वक्फ के मूल ढांचे को क्षति पहुंचाने का भी प्रयास है। इस कानून का सबसे नुकसानदायक पहलू ‘वक्फ बाई-यूजर’ को निरस्त करना है, जिसके कारण ऐतिहासिक रूप से वक्फ के रूप में उपयोग किए जाने वाले धार्मिक स्थलों के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है। सरकारी रिपोर्टों के अनुसार, ऐसी संपत्तियों की संख्या चार लाख से अधिक हैं।

वक्फ कानून पर प्रस्ताव

समिति का आगे कहना है कि, “इसी प्रकार, केन्द्रीय वक्फ परिषद और राज्य वक्फ बोर्ड में गैर-मुस्लिम व्यक्तियों बल्कि बहुसंख्यकों को शामिल करना धार्मिक मामलों में खुला हस्तक्षेप है, जो कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 26 का खुला उल्लंघन है। इस तरह का कानून बहुसंख्यक वर्ग के वर्चस्व का प्रतीक है, जिसका हम पूरी तरह विरोध करते हैं। यह हमें किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं है। इसके अलावा यह कार्यकारी समिति इस तथ्य को व्यक्त करती है कि वर्तमान सरकार भारत के संविधान की भावना और उसकी मूल अवधारणा का उल्लंघन कर रही है। हम इसे पूरी तरह से समझते हैं कि एक पूरे समुदाय को हाशिए पर डालने, उनकी धार्मिक पहचान को मिटाने और उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने का संगठित और कुत्सित प्रयास किया जा रहा है।”

कार्यकारी समिति ने इस बात पर संतोष व्यक्त किया है कि जमीअत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष हजरत मौलाना महमूद असद मदनी ने इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है और आग्रह किया है कि न्यायालय में इसकी प्रभावी पैरवी के लिए वरिष्ठ वकीलों की सेवाएं ली जाएं। इस सभा ने भारत सरकार से मांग की है कि वक्फ कानून 2025 को तुरंत वापस लिया जाए। सरकार को यह समझना चाहिए कि वक्फ इस्लामी कानून का एक मौलिक हिस्सा है, जो कुरान और हदीस से लिया गया है। यह अन्य दूसरी इबादत की तरह एक धार्मिक कार्य है। इसमें ऐसा कोई संशोधन स्वीकार्य नहीं हो सकता जो वक्फ के धार्मिक चरित्र और उसके शरई आधार को प्रभावित करे। संशोधन की भावना हमेशा प्रशासनिक सुधार पर आधारित होनी चाहिए, जैसा कि गत कुछ संशोधनों के माध्यम से हुआ है।

इसके अलावा सभा ने सरकार से मांग की है कि वह शरई मामलों में किसी भी तरह के हस्तक्षेप से बचे और ऐसा कानून बनाए जो वक्फ की सुरक्षा और उसकी संपत्तियों की बहाली सुनिश्चित करे। इसके साथ-साथ, कार्यकारी समिति ने सरकार और विपक्षी दलों द्वारा वक्फ संपत्तियों और प्रस्तावित संशोधनों के संबंध में दिए गए भ्रामक बयानों की कठोर शब्दों में निंदा की है। समिति ने कहा कि मीडिया में फैलाए जाने वाले ऐसे भ्रामक प्रचार के जवाब में सही स्थिति देश के सामने प्रस्तुत करने के लिए हर संभव कदम उठाए जाएंगे। इसके साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शन एक संवैधानिक और मौलिक अधिकार है। किसी भी सरकार को इसे रोकने का अधिकार नहीं है। वक्फ अधिनियम के विरुद्ध प्रदर्शन करने वालों को रोकना, उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाईयां करना और प्रशासन द्वारा हिंसा का सहारा लेना अत्यंत निंदनीय है। इसी प्रकार, विरोध-प्रदर्शन के दौरान हिंसा करना भी निराशाजनक है, जो तत्व विरोध-प्रदर्शन के दौरान हिंसा में लिप्त हो रहे हैं, वह वास्तव में वक्फ की रक्षा के इस आंदोलन को कमजोर कर रहे हैं। सभी ने सभी ईमानवाले भाईयों से अपील की है कि हर प्रकार के पापों और बुराइयों से बच कर अल्लाह से ज्यादा से ज्यादा दुआ करें।

समान नागरिक संहिता पर प्रस्ताव

जमीअत उलमा-ए-हिंद की कार्यकारी समिति की सभा ने उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता के क्रियान्वयन और मुस्लिम पर्सनल लॉ को समाप्त करने को धार्मिक अधिकारों का खुला उल्लंघन माना है। उत्तराखंड के बाद अब अन्य राज्यों से भी ऐसी खबर प्राप्त हो रही हैं कि वहां भी समान नागरिक संहिता के संबंध में सरकारी स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं, जो कि राष्ट्रीय स्तर पर लोगों के लिए चिंता का विषय है। समान नागरिक संहिता केवल मुसलमानों की समस्या नहीं है, बल्कि इसका संबंध देश के विभिन्न सामाजिक समूहों, समुदायों, जातियों और सभी वर्गों से है। समिति ने कहा, “हमारा देश अनेकता में एकता का सर्वोच्च उदाहरण है, हमारे बहुलतावाद की अनदेखी करके जो भी कानून बनाया जाएगा, उसका सीधा असर देश की एकता और अखंडता पर पड़ेगा। यह अपने आप में समान नागरिक संहिता का विरोध करने का सबसे बड़ा कारण है।”

मुस्लिम पर्सनल लॉ के प्रति मुसलमानों की अत्याधिक संवेदनशीलता का कारण यह है कि इस्लामी शरीयत का जीवन के सभी क्षेत्रों तथा सामाजिक और नैतिक पहलुओं पर प्रभाव है। पवित्र कुरान के दिशा-निर्देश ब्रह्मांड के रचयिता द्वारा निर्धारित किए गए हैं और उनमें किसी भी प्रकार का बदलाव नहीं जा सकता। मुस्लिम पर्सनल लॉ या मुस्लिम पारिवारिक कानूनों को समाप्त करने का प्रयास लोकतंत्र की भावना और भारत के संविधान में प्रदत्त गारंटी के खिलाफ है। जब इस देश का संविधान बनाया जा रहा था, तो संविधान सभा ने यह गारंटी दी थी कि मुसलमानों के धार्मिक मामलों, विशेषकर उनके व्यक्तिगत कानूनों के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जाएगी। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 29 का उद्देश्य और लक्ष्य यही है।

समिति का कहना है, “इस अवसर पर समान नागरिक संहिता के संबंध में उपरोक्त आपत्तियों के साथ जमीअत उलमा-ए-हिंद की यह सभा इस बात को व्यक्त करना आवश्यक समझती है कि शरीयत में हस्तक्षेप का मार्ग तभी प्रशस्त होता है जब मुसलमान स्वयं शरीयत का पालन करने के लिए तत्पर न हो। अगर मुसलमान अपनी शरीयत के सभी आदेशों को व्यावहारिक जीवन में लागू करने के लिए दृढ़ संकल्पित रहें, तो कोई कानून उनको इससे रोकने की ताकत नहीं रखता। इसलिए सभी मुसलमानों इस्लामी शरीयत पर पूरी तरह से डटे रहें। इसके साथ ही महिलाओं के लिए इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार समाज में पूर्ण न्याय को सुनिश्चित करें।”

सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के उल्लंघन पर प्रस्ताव

जमीअत उलमा-ए-हिंद की कार्यकारी समिति की सभा ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की खुलेआम अवहेलना करते हुए देश की विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा किए जा रहे बुलडोजर एक्शन पर गहरी चिंता व्यक्त की है। समिति का कहना है, “हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से निर्देश दिया है कि किसी भी प्रकार के विध्वंस से पूर्व पूरी कानूनी प्रक्रिया, नोटिस और प्रभावित पक्ष को सुनवाई का अवसर प्रदान करना अनिवार्य है, इसके बावजूद हाल के दिनों में यह निराशाजनक प्रवृत्ति देखने में आई है कि बिना किसी पूर्व सूचना या कानूनी कार्रवाई के लोगों, विशेष रूप से कमजोर, वंचित और विशेष वर्ग से संबंध रखने वाले लोगों के घरों और संपत्तियों को निशाना बनाया जा रहा है।”

सभा ने आगे कहा, “यह सभा समझती है कि इस तरह की कार्रवाइयां न केवल कानून के शासन का उल्लंघन करती हैं, बल्कि न्याय, समानता और लोकतंत्र के उन मौलिक सिद्धांतों को भी कमजोर करती हैं जिन पर हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली आधारित है। बुलडोजर का प्रयोग सजा और भय के रूप में राज्य संस्थाओं में जनता के विश्वास को कमजोर करता है तथा मनमानी और प्रतिशोधात्मक कार्रवाइयों को बढ़ावा देता है। यह सभा उन सभी विध्वंस कार्यों की कड़ी निंदा करती है जो निर्धारित कानूनी नियमों की उपेक्षा करके किए गए। सभा मांग करती है कि सभी संवैधानिक संस्थाएं, विशेषकर न्यायपालिका, इन उल्लंघनों का गंभीरता से नोटिस लें तथा जिम्मेदार लोगों को कानून के अनुसार जवाबदेह ठहराया जाए।”

इसमें कहा गया, “इसके अलावा, केन्द्र और राज्य सरकारों का ध्यान आकर्षित किया जाता है कि वह प्रत्येक प्रशासनिक कार्रवाई में संवैधानिक सिद्धांतों और न्यायिक निर्देशों के पूर्ण रूप से पालन को सुनिश्चित करें, विशेषकर उन कार्यों में जो लोगों के जीवन, आजीविका और आत्म-सम्मान से संबंधित हों। यह सभा सामाजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों और मानवाधिकार संगठनों से भी अपील करती है कि वह इस अवैध तरीके और चलन के खिलाफ अपनी आवाज उठाते रहें और सभी नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए एकजुट होकर खड़े हों, चाहे उनका संबंध किसी जाति, धर्म या समुदाय से हो।”

फिलिस्तीन पर इजरायल की कार्रवाई पर प्रस्ताव

जमीअत उलमा-ए-हिंद की सभा ने गाजा में जारी इजरायल के दमनकारी रवैये, युद्ध अपराध और निर्दोष फिलिस्तीनियों के नरसंहार को मानवता के खिलाफ गंभीर अपराध बताया है। सभा के अनुसार, “हजारों बच्चों, महिलाओं और नागरिकों की निर्मम हत्या प्रभावशाली वैश्विक शक्तियों और अंतररार्ष्ट्रीय संस्थाओं के लिए चिंतजनक पहलू और शर्मनाक उदासीनता का प्रतीक है। सभा ने इस बात पर गहरी चिंता व्यक्त की है कि इजरायल अंतररार्ष्ट्रीय कानूनों और बुनियादी मानवीय सिद्धांतों का उल्लंघन करते हुए न केवल फिलिस्तीनी क्षेत्रों की पूरी नाकेबंदी किए हुए है, बल्कि युद्धग्रस्त क्षेत्रों में भोजन, दवा और जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं की आपूर्ति पर भी पूर्ण प्रतिबंध लगाए हुए है, जो कि अपराध पर अपराध के समान है। इजरायल की आक्रामकता केवल नागरिकों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पत्रकारों, चिकित्सा कर्मियों, एम्बुलेंसों, स्कूलों, मस्जिदों, इबादत की जगहों, विश्वविद्यालयों, आश्रय स्थलों, अस्पतालों तथा बुनियादी ढांचे जैसे पानी, बिजली, दूरसंचार और ऊर्जा प्रणालियों को भी निशाना बनाया जा रहा है।”

जमीअत उलमा-ए-हिंद की सभा ने आगे कहा, “यह सभा मानती है कि इन अत्याचारों में संयुक्त राज्य अमेरिका भी इजरायल का सहयोगी है, जो लगातार आक्रामक इजरायली सरकार को हर स्तर पर समर्थन प्रदान कर रहा है। इसके साथ ही, कई इस्लामी देशों का ठंडा रवैया, निष्क्रियता और अप्रभावी तरीका भी निराशाजनक और निंदनीय है।” 

इस स्थिति में जमीअत उलमा-ए-हिंद ने निम्नलिखित मांगें की हैं-

  1. जमीअत उलमा-ए-हिंद भारत सरकार से जोरदार ढंग से मांग करती है कि वह मानवीय आधार पर तत्काल हस्तक्षेप करते हुए युद्ध विराम को सुनिश्चित करने में सक्रिय भूमिका निभाए, विशेष रूप से घायल फिलिस्तीनियों के उपचार और देखभाल के लिए ठोस और प्रभावी उपाय करे, और गाजा में घिरे हुए फिलिस्तीनी लोगों तक बुनियादी मानवीय जरूरतें प्रदान करने के लिए हर संभव प्रयास किया जाए।
  2. इस सभा की मांग है कि इजरायल पर युद्ध अपराधों और मानवाधिकार के गंभीर उल्लंघनों के लिए भारी जुर्माना लगाया जाए और प्रभावित फिलिस्तीनी लोगों को पूर्ण वित्तीय मुआवजा दिया जाए।
  3. यह सभा भारत सरकार, अरब लीग और सभी इस्लामिक देशों से अपील करती है कि वह इजरायली अत्याचारों को रोकने के लिए स्पष्ट, एकजुट और प्रभावी कूटनीतिक, राजनीतिक और कानूनी दबाव डालें, ताकि दमनकारी और उपनिवेशवादी कब्जाधारी शासन को उसके अपराधों का दंड दिया जा सके।
  4. यह सभा अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अपील करती है कि फिलिस्तीनियों के लिए एक स्वतंत्र, संप्रभु राज्य की स्थापना के लिए गंभीर, प्रभावी और उपयोगी प्रयास शुरू करे, और साथ ही यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि अल-अक्सा मस्जिद पर इजरायल के कब्जे का कोई भी प्रयास किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं किया जा सकता।
  5. जमीअत उलमा-ए-हिंद ने हमेशा फिलिस्तीनी लोगों की आजादी, उनके आत्मनिर्णय के अधिकार और उनके धार्मिक और मानवाधिकारों की सुरक्षा के संघर्ष के लिए अपनी आवाज उठाई है और ईश्वर की इच्छा से करती रहेगी।

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