Prof. Manoj Kumar Jha’s column – Unity comes from connecting people, not from suppressing voices | प्रो. मनोज कुमार झा का कॉलम: एकजुटता आवाजों को दबाने नहीं लोगों को जोड़ने से आती है

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2 घंटे पहले
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प्रो. मनोज कुमार झा राजद से राज्यसभा सांसद
किसी त्रासदी का एकजुट होकर जवाब देना और निष्पक्ष आवाज में बोलना न केवल राष्ट्रीय पहचान बल्कि करुणा, सहानुभूति और न्याय जैसे साझा मूल्यों को भी मजबूत करता है। यह हम नागरिकों को याद दिलाता है कि राजनीतिक या सांस्कृतिक मतभेदों से परे, उन्हें क्या कुछ एक साथ जोड़ता है।
एकजुट रहने से हम उन लोगों से अपने समाज को बचा सकते हैं, जो त्रासदी का फायदा उठाकर भेदभाव फैलाते हैं या गलत जानकारी देते हैं, जैसा कि पहलगाम में आतंकवादियों का साफ मकसद था। जब लोग शोक मनाने और याद करने के लिए साथ आते हैं तो यह साझा दुःख हमारी इंसानियत और देश की ताकत का आधार बन जाता है।
राष्ट्र के साथ एकजुटता का मतलब है अपने साथी नागरिकों के संघर्षों, उनके अधिकारों और उनकी गरिमा की सुरक्षा करते हुए उनके साथ खड़ा होना। मुझे अपने उन सभी साथी नागरिकों पर गर्व है, जिन्होंने इस परंपरा को कायम किया और इसका पालन किया। इस मौके का इस्तेमाल घरेलू राजनीति के फायदे के रूप में देखना एक ऐसे नेतृत्व को दिखाता है, जिसने राष्ट्रीय शक्ति की प्रकृति को बुनियादी तौर पर गलत समझा है।
हमारा दुःख और गुस्सा सस्ता नहीं है, और इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। हालांकि ऐसे मौकों को राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल होते देखना अब आम है। नेतागण नागरिकों से राष्ट्र के साथ खड़े होने का आग्रह करते हैं। लेकिन अक्सर इस नारे का इस्तेमाल सरकार के कामों के लिए बिना सवाल के समर्थन मांगने के लिए किया जाता है।
देशभक्ति या एकजुटता को सत्ता में बैठे लोगों के समर्थन के साथ जोड़ना उस लोकतांत्रिक भावना के साथ धोखा है, जो देश को असली ताकत देती है। सच्ची एकजुटता आवाजों को दबाने से नहीं, राजनीति से ऊपर उठकर मेलजोल और एकता बढ़ाने से आती है।
हमें सचेत रहना होगा। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है, जहां सरकारों ने एक तरफ राष्ट्र के लिए बोलने का दावा किया, और दूसरी तरफ व्यवस्थित तरीके से अपनी ही जनता के बड़े हिस्से को चुप करा दिया। शांति और अहिंसक विरोध की बात करने के लिए दंडित दिए जाने नागरिकों की एक लंबी सूची है। कितने ही छात्र, शोधकर्ता प्रोफेसर, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, विपक्षी नेता आज बिना जमानत जेल में हैं। क्यों?
मुख्यतः नागरिक समाज को डराने के लिए। दूसरी ओर, सत्ता से जुड़े लोग लगभग कुछ भी कर सकते हैं, चाहे वह ऑनलाइन गुंडागर्दी हो, गंदी भाषा हो, हिंसा भड़काना हो, और यहां तक कि हमारे सुरक्षा बलों के वीरों का अपमान करना भी हो।
जब सरकारें गलत काम करती हैं, असहमति को दबाती हैं, या नागरिक अधिकारों को कुचलती हैं, तो सच्ची एकजुटता चुप्पी या सत्तापक्ष के साथ साझेदारी में नहीं, बल्कि जवाबदेही तय करने में है। आमतौर पर, लोकतांत्रिक बातचीत सार्वजनिक जगहों और मीडिया में होती है। अफसोस कि इन जगहों पर निगरानी और नियंत्रण का चरित्र आज ऐसा हो गया है।
भारत एक विविधतापूर्ण लोकतंत्र है, जहां 1.4 अरब से ज्यादा लोग रहते हैं, सैकड़ों भाषाएं बोलते हैं, अनेक धर्मों को मानते हैं और अलग-अलग राजनीतिक सोच रखते हैं। सरकार कई राष्ट्रीय संस्थाओं में से एक संस्था मात्र है और यह अपने आप में राष्ट्र की सामूहिक इच्छा और आकांक्षा का प्रतीक नहीं है।
इसलिए असहमति को गद्दारी बताना भारतीय गणतंत्र की नींव को ही गलत समझना है। आजादी का संघर्ष औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ असहमति पर आधारित था। भारत शीत युद्ध का भी मोहरा नहीं बना- उसने अपना रास्ता खुद बनाया।
महिला आंदोलन, पर्यावरण आंदोलन, जाति-विरोधी आंदोलन, सांप्रदायिक सद्भावना के लिए आंदोलन- इन सभी ने व्यवस्था को चुनौती दी और देश को सहानुभूतिशील और मजबूत बनाया। आलोचकों को चुप कराकर या पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और विपक्ष के सदस्यों को राष्ट्र-विरोधी करार देना इस विरासत पर चोट है। इसने सार्वजनिक बातचीत को दूषित किया है और उन संस्थाओं को भी संक्रमित किया है, जिनका मकसद तानाशाही के खिलाफ सुरक्षा कवच के रूप में काम करना था।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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