Palki Sharma’s column – Relations with China are definitely changing but we have to be careful | पलकी शर्मा का कॉलम: चीन से रिश्ते बदल जरूर रहे हैं पर हमें सावधान रहना होगा

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5 घंटे पहले
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पलकी शर्मा मैनेजिंग एडिटर FirstPost
भारत और चीन के रिश्ते “री-सेट’ हो रहे हैं। बीते दिनों भारत ने फिर से चीन के नागरिकों को टूरिस्ट वीजा देना शुरू कर दिया और एक भारतीय मैन्युफैक्चरर और चीन की एक बड़ी टेक फर्म के बीच संयुक्त उपक्रम को मंजूरी भी दे दी।
2020 के गलवान घाटी संघर्ष के बाद दोनों देशों के लोगों और कारोबारियों के आपसी रिश्ते फिर से सक्रिय होने लगे हैं। सुर बदल रहे हैं। दिखता तो यही है कि चीजें धीरे-धीरे सामान्य हो रही हैं। लेकिन जल्दबाजी में बढ़ रहे इन संबंधों के पीछे एक जटिल सवाल है, जिसे भारत नजरअंदाज नहीं कर सकता। क्या यह रणनीतिक व्यावहारिकता है या जोखिम से भरा आशावाद?
आइए, देखते हैं कि बदला क्या है? सबसे पहले टूरिस्ट वीजा की बात। पांच साल पहले भारत ने चीनी पर्यटकों के लिए दरवाजे बंद कर दिए थे। पहले कोविड के कारण और फिर गलवान घाटी संघर्ष के बाद। यह प्रतिबंध अब समाप्त किया जा रहा है।
2019 में 3.40 लाख से ज्यादा चीनी पर्यटक भारत आए थे। हम दुबारा ऐसी ही उम्मीद कर सकते हैं। सांकेतिक तौर पर यह बड़ा कदम है, लेकिन कूटनीतिक तौर पर उससे भी बड़ा। भारत चीन से कह रहा है कि हम संबंधों को फिर से पहले जैसा बनाने के लिए तैयार हैं।
और फिर भारत की डिक्सन टेक्नोलॉजीज और चीन की लॉन्गचीयर टेक्नोलॉजी के बीच एक नए संयुक्त उद्यम की स्थापना जैसा बड़ा कदम सामने आया। डिक्सन भारत के प्रमुख अनुबंध आधारित मैन्युफैक्चरर्स में से है, जो सैमसंग और शाओमी जैसी वैश्विक कंपनियों को आपूर्ति करता है। लॉन्गचीयर चीन की एक फर्म है, जो स्मार्टफोन, टैबलेट और स्मार्ट डिवाइस को डिजाइन करती है।
दोनों का यह नया उद्यम भारत में फोन से लेकर स्मार्ट कार कंसोल तक सब कुछ बनाएगा। संयुक्त उपक्रम में डिक्सन की हिस्सेदारी 74 प्रतिशत और लॉन्गचीयर की मात्र 26 प्रतिशत होगी। संदेश साफ है कि साझेदारी भारत की शर्तों पर हो रही है। सकारात्मक पहलू यह है कि इससे भारत को तकनीकी, नौकरियों और सम्भावित लाभ की स्थिति में होने का फायदा होगा। लेकिन गौर से देखें तो जोखिम भी उतना ही है।
ऊपर से भले ही सबकुछ सकारात्मक दिखता हो, लेकिन चीन का व्यवहार उन जगहों पर नहीं बदला है, जहां यह मायने रखता है। सीमा विवाद अभी भी अनसुलझा है। भारत की आपत्ति के बावजूद चीन ब्रह्मपुत्र नदी पर बड़ा बांध बना रहा है। ऑपरेशन सिंदूर के वक्त जब भारतीय सेना सीमा पार आतंकवादी ठिकानों पर हमले कर रही थी तो चीन पाकिस्तान को सैटेलाइट सपोर्ट, खुफिया जानकारियां, हथियार और रणनीतिक सहायता दे रहा था।
भारत को आर्थिक नुकसान पहुंचाने का भी चीन का एक रिकॉर्ड रहा है। उसने रेयर अर्थ खनिज तत्वों का निर्यात रोक दिया है, जो भारत के इलेक्ट्रॉनिक्स सेक्टर के लिए महत्वपूर्ण हैं। जब ताइवान की फॉक्सकॉन कंपनी ने भारत में आईफोन मैन्युफैक्चरिंग का विस्तार किया, तब भी चीन ने अनौपचारिक रूप से दखल देकर इंजीनियरों को वापस बुला लिया। उपकरणों और कच्चे माल की सप्लाई भी बाधित की।
तो फिर भारत क्यों संबंध बढ़ा रहा है? इसके तीन संभावित कारण हैं। पहला, ये सरल उपाय हैं। धार्मिक यात्राएं, पर्यटन, व्यापार- इनमें से कुछ भी राजनीतिक तौर पर विवादित नहीं होता। ये प्रतीकात्मक कदम होते हैं। इनमें लागत कम है, और ये समय लेते हैं। दूसरा, ट्रम्प फैक्टर।
चूंकि ट्रम्प पुरानी तमाम समझ को बदल रहे हैं, ऐसे में भारत भू-राजनीतिक तौर किसी एक देश के भरोसे नहीं रह सकता। उसे विभिन्न रास्तों से अपनी ताकत बढ़ानी होगी। इसमें चीन के साथ व्यावहारिक संबंध बनाना भी शामिल है।
तीसरा, ब्रिक्स के समीकरण। भारत 2026 में ब्रिक्स समिट की मेजबानी करेगा। प्रधानमंत्री मोदी के पास इस समूह में सुधार की महत्वाकांक्षी योजनाएं हैं। लेकिन ब्रिक्स में कोई भी रद्दोबदल चीन की मदद के बिना नहीं हो सकता। शी जिनपिंग को साथ में लिए बिना इस प्लेटफॉर्म के अप्रासंगिक हो जाने का खतरा है- जैसा कि हाल में ब्राजील में देखा गया, जहां शी और पुतिन दोनों ने समिट में हिस्सा नहीं लिया।
फिर भी इस री-सेट का ज्यादा महिमा-मंडन नहीं किया जा सकता। भारत को सावधान रहना होगा। व्यापार को भू-राजनीतिक तकाजों से अलग नहीं रखा जा सकता। तब तो बिलकुल नहीं, जब दूसरा पक्ष आमतौर पर दोनों को साथ रखता हो। चीन की कथनी-करनी में भेद का एक लंबा इतिहास रहा है। और भारत ने सैन्य, आर्थिक और कूटनीतिक रूप से इसकी कीमत चुकाई है।
जब तक चीन पाकिस्तान को हथियार देना बंद नहीं करता, जरूरी चीजों के निर्यात से प्रतिबंध नहीं हटाता और सीमा विवाद हल नहीं करता, तब तक उसके साथ कोई भी री-सेट शांति संधि नहीं, शत्रुता में महज एक ठहराव जैसा ही है। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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