Virag Gupta’s column – It is now necessary to compensate the victim in fake cases | विराग गुप्ता का कॉलम: फर्जी मामलों में पीड़ित को मुआवजा देना अब जरूरी है

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6 घंटे पहले
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विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट के वकील
दहेज उत्पीड़न और विवाहिताओं के खिलाफ क्रूरता के मामलों में दो महीने तक गिरफ्तारी पर रोक के लिए सुप्रीम कोर्ट का नया फैसला भी कहीं पुराने फैसलों की तरह कानून की किताबों में गुम न होकर रह जाए? इसके लिए 5 बिंदुओं पर समझ जरूरी है।
1. गिरफ्तारी : जोगिंदर कुमार बनाम यूपी राज्य (1994) के फैसले के अनुसार हिरासत और गिरफ्तारी के लिए पुलिस को अनेक अधिकार मिले हैं। चीफ जस्टिस वेंकटचलैया के अनुसार विवेक का इस्तेमाल किए बगैर मनमाने तरीके से गिरफ्तारी असंवैधानिक और गैर-कानूनी है। 1996 में डीके बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य के फैसले में हिरासत में लिए लोगों के कानूनी अधिकार तय किए गए थे। अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) के फैसले में हिरासत और जेल को अपवाद कहा गया था। इन फैसलों के अनुसार जारी शासनादेशों का अनुपालन नहीं होने से थानों और अदालतों के चक्कर में करोड़ों परिवार तबाह हो रहे हैं।
2. सुप्रीम कोर्ट : नए फैसले के अनुसार धारा 498-ए के दुरुपयोग को रोकने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट के जून 2022 के आदेश के अनुसार जिलों में परिवार कल्याण समितियों का गठन होना चाहिए। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट ने राजेश शर्मा मामले में जून 2017 में एक बड़ा फैसला दिया था। उसके अनुसार धारा 498-ए से जुड़े अधिकांश मामलों में फर्जी तरीके से पति और उसके परिजनों को पुलिस केस में फंसाया जाता है। फैसले में नेशनल लीगल सर्विसेस अथॉरिटी को मार्च 2018 तक रिपोर्ट पेश करने का आदेश था, जिसका 8 साल बाद कोई विवरण नहीं आ रहा। धारा 498-ए के दुरुपयोग को रोकने के लिए 2008 में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले के अनुसार दिल्ली में पुलिस अधिकारियों के लिए सख्त दिशानिर्देश जारी किए गए थे। ऐसे अनेक पुराने फैसलों पर जब अमल नहीं हो रहा तो अब नए फैसले के बाद जमीनी स्तर पर लोगों को इंसाफ कैसे मिलेगा?
3. संसद से कानून : पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने संविधान के अनुच्छेद 142 की विशिष्ट शक्तियों के दुरुपयोग और सुप्रीम कोर्ट के सुपर-संसद बनने पर रोष व्यक्त किया था। अनुच्छेद 141 के तहत सुप्रीम कोर्ट के आदेश अधीनस्थ अदालतों के लिए बाध्यकारी होते हैं। पर उन फैसलों के अनुसार सरकार और संसद ने आईपीसी या बीएनएस और सीआरपीसी या बीएनएसएस की कानून की किताबों में बदलाव नहीं किए। इस संसदीय विफलता की वजह से पुलिस की मनमर्जी के साथ अदालतों में अराजकता बढ़ रही है।
4. जिला अदालतें : अदालतों में चल रहे 5.07 करोड़ मुकदमों में से लगभग 70 फीसदी यानी 3.52 करोड़ आपराधिक हैं। गरीबों को सही मामलों में भी एफआईआर दर्ज कराने के लिए थानों में एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है। दूसरी तरफ नेताओं और रसूखदार लोगों के इशारों पर सिविल मामलों में भी फर्जी एफआईआर दर्ज हो जाती है। सुप्रीम कोर्ट के नए-पुराने फैसलों से साफ है कि पारिवारिक मामलों में फर्जी तरीके से पति और उसके परिजनों को फंसाने का दुश्चक्र चल रहा है। पुलिस की गिरफ्तारी के बाद जिला अदालतों में रूटीन तरीके से आरोपियों को जेल भेज दिया जाता है। जमीन के मामलों में पटवारी की रिपोर्ट और आपराधिक मामलों में पुलिस दरोगा की एफआईआर को अदालतों में अकाट्य मानने के साम्राज्यवादी रिवाज की वजह से आजाद भारत के करोड़ों लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी थाने और अदालतों के धक्के खाने के लिए अभिशप्त हैं।
5. गुजारा भत्ता : सुप्रीम कोर्ट के इस नए फैसले से दो दर्जन से ज्यादा मुकदमे और गुजारा भत्ता की रकम रद्द होने के साथ हाल ही के शिवांगी बंसल वाले मामले में आईपीएस पत्नी को माफीनामा भी देना पड़ा। लेकिन पति और पिता को 100 दिन से ज्यादा जेल में रहना पड़ा, उसकी भरपाई कैसे होगी? कुछ दिनों पहले सुप्रीम कोर्ट में पत्नी ने गुजारा भत्ता के नाम पर 12 करोड़ रुपए, लग्जरी फ्लैट और कार की मांग की थी। लिव-इन रिश्तों को कानूनी मान्यता और स्त्री-पुरुष समानता के दौर में तलाक के कानून को सरल बनाने के साथ गुजारा भत्ता के नियमों को व्यावहारिक बनाने के लिए सात दशक पुराने कानूनों में बदलाव लाने की जरूरत है।
डिजिटल इंडिया का समय है। ऐसे में आम जनता के हितों और अधिकारों से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के निर्विवाद फैसलों के विवरण का एेप जारी हो। फैसलों का पालन नहीं करने वाले पुलिस और न्यायिक अधिकारियों के खिलाफ अवमानना का मामला चलने के साथ प्रशासनिक निलम्बन की कार्रवाई हो।
फर्जी तरीके से दर्ज एफआईआर और गैर-कानूनी हिरासत के मामलों में पीड़ित व्यक्ति को मुआवजा मिले। ऐसा होगा तो ही दहेज उत्पीड़न और एससी/एसटी समेत सभी मामलों में कठोर कानूनों के दुरुपयोग पर प्रभावी रोक लग सकेगी। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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