Rajdeep Sardesai’s column – Another minority community in the country deserves justice | राजदीप सरदेसाई का कॉलम: देश में एक और अल्पसंख्यक समुदाय न्याय का हकदार है

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1 घंटे पहले
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राजदीप सरदेसाई वरिष्ठ पत्रकार
देश में मुसलमानों के साथ हो रहे सलूक को लेकर अकसर सवाल उठते हैं। जहां भारतीय मुस्लिमों के खिलाफ नफरती भाषा का इस्तेमाल निरंतर बढ़ता जा रहा है, वहीं एक और मुद्दा है, जिस पर कम बात की जाती है। ये है अल्पसंख्यकों में भी अल्पसंख्यक यानी देश के ईसाई समुदाय के साथ सत्ता के पेचीदा होते जा रहे समीकरण। पिछले महीने भाजपा शासित छत्तीसगढ़ के दुर्ग पुलिस थाने में केरल मूल की दो ननों को हिरासत में ले लिया गया था। उन पर मानव तस्करी और जबरन धर्मांतरण का आरोप लगाया गया।
वह आदिवासी बहुल क्षेत्र है और प्रथम दृष्टया आरोप बजरंग दल की ओर से लगाए गए थे। जिन लड़कियों की कथित तौर पर तस्करी की गई थी, उन्होंने ऑन रिकॉर्ड कहा कि वे स्वेच्छा से ननों के साथ गई थीं, क्योंकि वे पेशेवर नर्स के तौर पर प्रशिक्षण लेना चाहती थीं। उनके माता-पिता ने भी कहा कि उन्होंने बेटियों को रोजगार के बेहतर अवसर तलाशने के लिए जाने की अनुमति दी थी।
इसके बावजूद पुलिस ने ननों को हिरासत में ले लिया। उन लोगों से मारपीट की भी खबरें आईं, जो ननों के समर्थन में आए थे। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने भी ननों का समर्थन करने के बजाय पुलिस का ही बचाव किया। इस पर ताज्जुब होना भी नहीं चाहिए। 2023 के छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के दौरान मैं नारायणपुर गांव में आदिवासियों के एक समूह से मिला था। उन्होंने बताया था कि कैसे वे डर के साये में जीते हैं। उन्हें बहिष्कृत कर दिया गया था।
वर्षों से आदिवासी ईसाइयों की ‘घर वापसी’ वनवासी कल्याण केंद्रों का कार्यक्रम रहा है, ताकि मिशनरियों द्वारा आदिवासियों के ईसाई धर्मांतरण का जवाब दिया जा सके। लेकिन जिस तरह से धार्मिक स्वतंत्रता संवैधानिक अधिकार है, उसी तरह से किसी व्यक्ति द्वारा अपनी पसंद के धर्म को चुनना भी उसका हक है। बाबासाहेब आम्बेडकर और उनके समर्थकों द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने की घटना को भूलना नहीं चाहिए। लेकिन संवैधानिक अधिकारों की भी सिलेक्टिव व्याख्या की जा सकती है।
यही कारण है कि जहां ईसाई धर्मांतरण को जबरन और आपराधिक माना जाता है, वहीं फिर से हिंदू धर्म में वापसी को स्वैच्छिक और भला समझा जाता है। विडम्बना यह रही कि विभिन्न दलों से जुड़े केरल के सांसदों की गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात और दखल की मांग के बाद ही ननों को जमानत मिल पाई। शाह ने तत्काल कार्रवाई की, क्योंकि ननों की गिरफ्तारी केरल में बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन गई थी।
ईसाइयों की बड़ी आबादी वाले केरल में अगले साल चुनाव होने हैं। केरल में पैठ बनाने के लिए तत्पर भाजपा वहां ईसाइयों को लुभाकर एक व्यापक हिंदू-ईसाई गठजोड़ बनाना चाहती है।ऐसे में आश्चर्य नहीं कि ननों की केरल वापसी पर उनके स्वागत के लिए पहुंचे लोगों में केरल के भाजपाध्यक्ष राजीव चंद्रशेखर भी थे। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ईसाइयों की बड़ी आबादी वाले अन्य राज्यों- जैसे गोवा में भाजपा शासन में है, वहीं मेघालय और नगालैंड में वह गठबंधन सहयोगी है।
रोचक यह है कि प्रधानमंत्री मोदी कैथोलिक बिशप्स कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया द्वारा पिछले साल दिसंबर में आयोजित क्रिसमस समारोह में शामिल हुए थे। वहां उन्होंने प्रभु यीशु की शिक्षाओं पर जोर दिया। प्रेम, सौहार्द और भाईचारे की हिमायत की। पिछले साल क्रिसमस पर भी उन्होंने ईसाई समुदाय के प्रमुख नेताओं को अपने घर चाय पर बुलाकर ईसा मसीह के मूल्यों पर बातचीत की। लेकिन इस सबके बावजूद धरातल पर ननों और मिशनरियों पर जबरन धर्मांतरण का आरोप लगाकर उनका उत्पीड़न किया जाता है।
याद कीजिए, ओडिशा में 1999 में बजरंग दल नेता दारा सिंह द्वारा मिशनरी ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों की निर्मम हत्या। यह भी याद करें कि कैसे पुलिस ने हाल ही 80 वर्ष के फादर स्टैन स्वामी को नक्सलियों का हिमायती बताते हुए यूएपीए के तहत गिरफ्तार कर लिया था।
अंतत: अस्पताल में उनकी मौत तक हो गई। इस साल जून में सांगली से भाजपा विधायक गोपीचंद पडालकर ने भी कथित ‘बलात् धर्मांतरण’ में शामिल मिशनरियों पर हमला करने वालों के लिए 3 से 11 लाख रुपए तक के इनाम की पेशकश की थी। ‘ओपन डोर्स’ के अनुसार 2024 में भारत ईसाई उत्पीड़न के मामले में विशेष चिंता वाले देशों की सूची में 11वें स्थान पर था।
पुनश्च : एक तरफ जहां ईसाई मिशनरियों पर धर्मांतरण के लिए शिक्षा को एक ‘हथियार’ के रूप में इस्तेमाल करने का आरोप लगाया जाता है, वहीं आपको यह नहीं बताया जाता कि भारत के कुछ बेहतरीन लोगों- जिनमें केंद्रीय मंत्री भी शामिल हैं- की पढ़ाई मिशनरी स्कूलों से ही हुई है।
- सच तो यह है कि बड़े पैमाने पर धर्मांतरण के प्रोपगंडा के बावजूद देश में ईसाई आबादी आज केवल 2.3% ही है। जबकि 1971 की जनगणना में ईसाई 2.6% थे। यानी आधिकारिक तौर पर उनकी आबादी कम ही हुई है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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