Wednesday 08/ 10/ 2025 

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Shekhar Gupta’s column: Anti-India is Pakistan’s ideology | शेखर गुप्ता का कॉलम: भारत-विरोध ही पाकिस्तान की विचारधारा

1 घंटे पहले

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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’ - Dainik Bhaskar

शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’

हाल ही में अपने एक कॉलम में मैंने पूर्वानुमान लगाया था कि पाकिस्तान अब ‘अब्राहम समझौते’ जैसे किसी समझौते पर दस्तखत करेगा, और भारत के साथ जब कभी अमन कायम करेगा, उससे पहले इजराइल को मान्यता दे देगा। कुछ ही दिनों में खबरों का चक्र कुछ ऐसे नाटकीय ढंग से घूमा है कि पाकिस्तान उस मुकाम के नजदीक पहुंचता दिख रहा है, जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की होगी।

ठीक पटकथा के अनुसार चलते हुए ट्रम्प ने नेतन्याहू की मौजूदगी में गाजा मसले का 20-सूत्री समाधान पेश किया और संकेत किया कि फिलिस्तीन के व्यापक मसले को भी इसमें शामिल किया जा सकता है। और कुछ ही घंटों के अंदर पाकिस्तान पहला ऐसा इस्लामिक मुल्क था, जिसने इस पेशकश को पूरा समर्थन देने की घोषणा कर दी। शहबाज शरीफ के ट्वीट को पढ़ लीजिए। लगता है तारीफ करते हुए उनकी सांस फूली जा रही हो, जैसे किसी छोटी-मोटी रियासत का राजा बड़े बादशाह की चापलूसी कर रहा हो।

वहीं भारत ने ट्रम्प के फॉर्मूले को समर्थन देने के लिए पूरे एक दिन का इंतजार किया, शायद यह समझने के लिए कि उसके दोस्त नेतन्याहू पूरी तरह उस फॉर्मूले के साथ हैं या नहीं। इस बीच पाकिस्तानियों ने बेशक मामले पर गहराई से गौर किया, उन्हें शायद थोड़ा पछतावा हुआ और उन्होंने दबी आवाज में कहा कि उनके बयान के शब्दों में हेरफेर हुई है। लेकिन वे पीछे नहीं हटे हैं और यह उलझन वैसे भी यह संकेत नहीं देती कि हमारी समझ के मुताबिक पाकिस्तान किस तरह से सोचता है।

यह समझ उस तत्व तक पहुंचने की कोशिश करती है कि पाकिस्तान कैसा देश है। क्या वह वास्तव में उतना इस्लामिक है, जितना उसका संविधान बताता है? अगर ऐसा है, तो पाकिस्तान कभी किसी इस्लामिक मसले के लिए आगे क्यों नहीं आया?

उसकी पश्चिमी सीमा के पार ऐसे कई इस्लामिक मुल्क हैं, जिन्हें खतरों का सामना करना पड़ा है। कुछ के तो नष्ट होने तक की नौबत आई। पाकिस्तान उम्मा की बात करते थकता नहीं, लेकिन उसके लिए शायद ही कुछ करने को राजी दिखता है।

ऐसा नहीं है कि उसकी फौज कभी अपने दोस्त इस्लामिक मुल्कों में लड़ने नहीं गई। बात इतनी है कि इनमें से किसी पेशकश को इस्लामिक लक्ष्य के लिए किया गया योगदान या बलिदान मानना गलत होगा। जॉर्डन (1970 की फिलिस्तीनी बगावत) और सऊदी अरब (1979 की मक्का की घेराबंदी) में कार्रवाई शासक शाही परिवारों की रक्षा के लिए की गई।

आज भी, सऊदी को ईरान या इजराइल से नहीं बल्कि ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ से बचाने के लिए पाकिस्तान की मदद चाहिए। हां, योम किप्पुर युद्ध के दौरान पाकिस्तान ने अपनी फौज जॉर्डन भेजी थी, लेकिन इन दोनों देशों के बीच सैन्य साझेदारी एक गहरा और पुराना समझौता है, जिसकी जड़ें पश्चिमी गठजोड़ों में हैं। यह आपसी लेन-देन का भी मामला है।

प्रथम खाड़ी युद्ध में पाकिस्तान ने अपनी फौज मुस्लिम इराक की रक्षा के लिए नहीं बल्कि सऊदियों को सद्दाम हुसैन की फौज से बचाने के लिए भेजी थी, जिसने कुवैत पर कब्जा कर लिया था। पाकिस्तानियों ने कभी किसी वैचारिक मकसद के लिए लड़ाई नहीं लड़ी, वे केवल अपने चहेतों की रक्षा के लिए लड़े।

अफगानिस्तान में जब पहला जिहाद हुआ, तब पाकिस्तान सोवियत संघ विरोधी गठजोड़ में शामिल था और वह कह सकता था कि मुजाहिदीनों का पर्याप्त इस्लामिक लक्ष्य है। लेकिन 9/11 के बाद अमेरिका ने जब वापसी की तब क्या हुआ? पाकिस्तान फिर से अमेरिका के साथ हो गया, और इस बार वह तालिबान के खिलाफ हो गया।

इसका कुल मतलब यह है कि पाकिस्तानी सैन्य तथा रणनीतिक पूंजी हमेशा किराए पर उपलब्ध रही है, चाहे वह नकदी के रूप में हो या सामान (मध्य-पूर्व के अरबों की ओर से मिले) के रूप में या रणनीतिक तथा आर्थिक लाभ (अमेरिका से मिले) के रूप में।

पाकिस्तान ने न केवल अफगानिस्तान में दो अमेरिकी जंग के दौरान इस्लामिक मुजाहिदीन/तालिबान के खिलाफ लड़ते हुए सैन्य एवं असैन्य सहायता के एवज में अरबों डॉलर कमाए, बल्कि अमीर अरब मुल्कों से भी इसी तरह कमाई की। पाकिस्तान की फौज ऊंची बोली लगाने वाले के लिए किराए पर उपलब्ध रही है।

आपने उसे कभी ईरान या उसके हूती जैसे प्रतिनिधियों की मदद के लिए आगे आते नहीं देखा होगा। पाकिस्तान कभी किसी मुसलमान की मदद के लिए आगे नहीं आया, चाहे वे फिलिस्तीनी हों या गाजा वाले। हां, वह शोर जरूर मचाता है। और अब उसने उस योजना को समर्थन दिया है, जो नेतन्याहू को खुश करती है, गाजा को पश्चिमी देशों की रखवाली में एक फाटकबंद कॉलोनी में तब्दील करना चाहती है, और द्विराष्ट्र वाले समाधान को दफन कर देना चाहती है।

वास्तव में, जिन्ना ने पाकिस्तान को उसकी फिलिस्तीन नीति दे दी थी। वे द्विराष्ट्र वाले समाधान में भी अड़ंगा लगाते। वे चाहते थे कि फिलिस्तीन को उसकी मूल जमीन वापस दी जाए और इजराइल को बसाना ही है तो यूरोप में कहीं जगह दी जाए।

पाकिस्तानी पासपोर्ट अपने नागरिकों को जिस एकमात्र देश जाने से रोकता है वह इजराइल ही है। लेकिन फिलिस्तीन और यरूशलम के प्रति मुसलमानों की व्यापक भावना के लिए पाकिस्तान का जो समर्थन है वह महज एक तमाशा रहा है, फर्जी रणनीतिक तेवर का नौटंकीनुमा दिखावा।

निष्कर्ष यह है कि पाकिस्तानी फौज कोई इस्लामिक फौज नहीं है, और चूंकि सत्ता पर उसी का वर्चस्व रहा है इसलिए यही कहा जा सकता है कि पाकिस्तान भी कोई इस्लामिक मुल्क नहीं है। तब यह क्या है? भारत-विरोध या कहें कि हिंदू-विरोध ही उसका वैचारिक आधार है।

वह कोई भी समझौता कर सकता है, किसी को अपनी सेवाएं भाड़े पर दे सकता है, ईरान को कल-आज-कल खारिज कर सकता है, फिलिस्तीन से हमेशा के लिए पल्ला झाड़ सकता है, जब तक कि इस सबसे उसे भारत को कमजोर करने और उसे चुनौती देने की ताकत हासिल होती हो।

पाकिस्तान के नेता भी अब यह समझ चुके हैं… पाकिस्तान में कभी-कभार चुनाव जीतकर सत्ता में आने वाले नेताओं को यह समझ आ गया है। जब तक भारत-विरोध उनके राष्ट्रवाद को परिभाषित करेगा, तब तक उसकी फौज निर्वाचित नेताओं को सत्ता नहीं सौंपेगी, चाहे कितना भी बड़ा बहुमत क्यों न मिला हो। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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