Shashi Tharoor’s column: The challenge is to strike a balance between the US and China | शशि थरूर का कॉलम: चुनौती तो अमेरिका और चीन के बीच संतुलन बनाने की है

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4 घंटे पहले
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शशि थरूर पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद
जब प्रधानमंत्री मोदी एससीओ समिट के लिए तियानजिन गए तो बीते सात सालों में यह उनकी पहली चीन यात्रा थी। शी और पुतिन के साथ उनकी मौजूदगी ने एक बहुध्रुवीय एकजुटता की छवि पेश की, जो शायद ट्रम्प प्रशासन को बेचैन करने के लिए थी। लेकिन इसके पीछे एक जटिल रणनीतिक सच्चाई भी छिपी है, जिससे भारत को सावधानी और स्पष्टता के साथ निपटना होगा।
मोदी की चीन यात्रा में दोनों देशों के बीच कूटनीतिक री-सेट का संकेत था। मोदी और शी ने दोनों देशों के बीच सीधी उड़ानें बहाल करने और तिब्बत में कैलास-मानसरोवर यात्रा मार्ग फिर से चालू करने पर सहमति जताई। हाथ मिलाए गए, फोटो खींची गईं और लगा कि एशिया की इन दोनों ताकतों के बीच शांतिपूर्ण सहयोग का एक नया दौर शुरू हो रहा है।
लेकिन, इस पर संदेह जताने के भी बहुत कारण हैं। 1950 के दशक से अब तक भारत ने कई बार चीन से संबंध सुधारने की कोशिश की, लेकिन हर बार दगा ही मिला। 1962 के युद्ध ने तो अच्छे रिश्तों की उम्मीदों को चकनाचूर ही कर दिया। 1980 के दशक के अंत में प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पहल से दोनों देशों के बीच अपेक्षाकृत शांति का दौर आया था। लेकिन पिछले एक दशक में द्विपक्षीय संबंधों में तनाव लगातार बढ़ा है।
इसमें 2013 में देपसांग, 2014 में चुमार, 2017 में डोकलाम और 2020 में गलवान में सीमा पर हुईं हिंसक झड़पें शामिल हैं। आज भारत-चीन सीमा पर वास्तविक नियंत्रण रेखा का विवाद अनसुलझा है। सीमा पर चीन तेजी से बुनियादी ढांचे का निर्माण कर रहा है। चीन और पाकिस्तान के बीच गहरे होते रिश्ते भी भारत के लिए रणनीतिक संकट है।
भारत-चीन के रिश्तों में बड़े आर्थिक असंतुलन भी हैं। चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा लगभग 100 अरब डॉलर है, जिससे पता चलता है कि इलेक्ट्रॉनिक्स, फार्मास्यूटिकल से लेकर रेयर-अर्थ तक हम चीन पर निर्भर हैं। भारतीय सप्लाई चेन में चीनी कंपनियों का दबदबा है, जबकि भारतीय आईटी कंपनियां और सेवा प्रदाता चीनी बाजारों में पहुंच बनाने के लिए अभी संघर्ष ही कर रहे हैं।
आर्थिक पारस्परिकता के लिए भारत की कोशिशें बहुत अधिक सफल नहीं हो पाई हैं। ऐसे में, कोई भी समिट भारत-चीन संबंधों में मौजूद बुनियादी खामियों को छुपा नहीं सकती। एससीओ समिट में मोदी ने चीन के ट्रांसनेशनल बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के प्रति विरोध को भी दोहराया। इसके सबसे बड़े प्रोजेक्ट के तौर पर एक हाईवे पाकिस्तान के उस क्षेत्र से होकर गुजरता है, जिस पर भारत दावा करता है।
रूस के लिए एससीओ का मंच भू-राजनीतिक जीवन-रेखा जैसा है, लेकिन भारत इसे महज क्षेत्रीय सहभागिता के लिए उपयोगी मंच के तौर पर देखता है। अमेरिका के साथ अपने रिश्तों को ताक पर रखने में भारत की रुचि नहीं। जैसे भारतीय विदेश नीति प्रतिष्ठान कभी-कभार चीन के साथ कूटनीतिक री-सेट की संभावनाओं का बढ़ा-चढ़ाकर आकलन करते हैं, उसी प्रकार अमेरिका से संबंधों के लचीलेपन को भी कमतर आंकते हैं।
चीन की तरह अमेरिका कभी भारतीय जमीन पर कब्जा नहीं करता, युद्ध में पाकिस्तान को इंटेलिजेंस और ऑपरेशनल सहयोग नहीं देता और ना कभी एशिया में सीमाओं को फिर से तय करने की मांग करता है। इसके विपरीत, दो दशकों में भारत और अमेरिका ने कड़ी मेहनत के साथ सामरिक साझेदारी विकसित की है।
रणनीतिक स्वायत्तता दो ध्रुवों के बीच झूलने में नहीं, बल्कि ऐसा स्थान बनाने में है, जहां भारत किसी दूसरी ताकत के एजेंडे में शामिल हुए बिना अपने हितों को आगे रख सके। चीन के साथ तनाव को बढ़ने से रोकना जरूरी है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हम उसके साथ अपनी साझेदारी का भ्रम पाल लें। वहीं अमेरिका के साथ कड़े रवैए में बातचीत का अर्थ भी यह नहीं कि उससे हमारी सहभागिता में बाधा पड़ जाए।
भारत और अमेरिका के रिश्ते लेनदेन पर आधारित नहीं, बल्कि संरचनात्मक हैं। वहीं मोदी की हाल की चीन यात्रा द्विपक्षीय संबंधों में गिरावट को रोकने के लिए जरूरी थी, लेकिन वास्तविक सुधार की राह में बड़ी रुकावटें बरकरार हैं। (© प्रोजेक्ट सिंडिकेट)
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