Abhay Kumar Dubey’s column – Caste census will only fulfill the needs of electoral politics | अभय कुमार दुबे का कॉलम: चुनावी राजनीति की जरूरतें भर पूरी करेगी जाति गणना

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9 घंटे पहले
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अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर
सरकार और हम सबको पहले ही पता है कि देश में दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों की आबादी आरक्षण की 50% सीमा से कहीं अधिक है। हर तीन-चार साल बाद होने वाले नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़े इसका सबूत हैं।
कर्नाटक में जाति सर्वेक्षण की कवायद से जानकारी मिली थी कि इस प्रदेश में दलित-आदिवासी 27.8, ओबीसी 56.7 और सामान्य श्रेणी 16% हैं। लेकिन फैमिली हेल्थ सर्वे पहले ही बता चुका था कि राज्य के वासियों में से 27.8% स्वयं को दलित या आदिवासी बताते हैं, 54.1% ओबीसी और 17.4% खुद को सामान्य श्रेणी के साथ जोड़ते हैं।
फैमिली हेल्थ सर्वे घरों में शिक्षा, रोजगार, स्वस्थ्य, शराब और तम्बाकू के सेवन संबंधी जानकारी भी मुहैया कराता है। अगर इस नियमित होने वाले सर्वे के साथ नेशनल सैम्पल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन और इंडियन ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे के नियमित आंकड़े और जोड़ लें तो सरकार पहले ही इनका इस्तेमाल नीतियां और योजनाएं बनाने के लिए कर रही है। स्पष्ट है कि प्रस्तावित जातिगत जनगणना ज्यादा से ज्यादा चुनावी राजनीति की जरूरतें पूरी कर सकती है।
भाजपा के नजरिए से देखें तो समझा जा रहा है कि जब जनगणना के जरिए देश में 1300 जातियों के रूप में पूरी आबादी का संख्यात्मक नक्शा बन जाएगा, तो वे बड़ी जातिगत पहचानें अपनी जगह से हिल जाएंगी, जो आजादी के बाद चुनावी राजनीति के हाथों तैयार हुई हैं।
यानी जैसे ही छोटी-बड़ी जातियों को अपनी-अपनी संख्याएं पता चलेंगी, वे सत्ता-शिक्षा-नौकरी से संबंधित लाभों के लिए आपस में संख्या-आधारित प्रतियोगिता करने लगेंगी। भाजपा को उम्मीद है कि इस चक्कर में दक्षिण की द्रविड़ पहचान में दरार पड़ सकती है। शक्तिशाली यादव समुदाय द्वारा ओबीसी एकता की दावेदारियां भी सांसत में आएंगी।
जाटव समुदाय द्वारा अपने नेतृत्व में दलित एकता करने के प्रयास कुंठित हो जाएंगे। भाजपा को शायद यह भी लग रहा है जब मुसलमानों में अजलाफ (ओबीसी) और अरजाल (दलित) जातियां गिन ली जाएंगी तो उंगलियों पर गिनने लायक भाजपा विरोधी अशराफ (ऊंची जातियां) नेतृत्व को बेअसर किया जा सकेगा। इस तरह पसमांदा मुसलमानों को भाजपा की तरफ खींचे जाने की संभावना खुल जाएगी।
विपक्ष के दृष्टिकोण से देखें तो जातिगत जनगणना से साबित हो जाएगा कि संख्या में मुट्ठी-भर होने के बावजूद ऊंची जातियां सत्ता और उत्पादन के बड़े हिस्से का उपभोग कर रही हैं। उत्तर, मध्य और पश्चिमी भारत में ऊंची जातियों के मतदाता भाजपा के निष्ठावान वोटर बन चुके हैं, इसलिए जातिगत जनगणना ओबीसी और दलित मतों के सामने एक नया सामाजिक-आर्थिक यथार्थ पेश करेगी।
विपक्ष मुसलमानों में पसमांदा और गैर-पसमांदा के विभाजन से चिंतित नहीं है। वह मानता है कि इस्लाम आधारित मजहबी एकता इस फांक से निबट लेगी। यानी विपक्ष को लगता है कि पिछड़े-दलितों और मुसलमानों की एकता को जातिगत जनगणना और मजबूत करेगी।
इन राजनीतिक प्रत्याशाओं पर गौर करें तो स्पष्ट हो जाता है कि जातिगत जनगणना से जाति के जिस रूप के कमजोर होने की उम्मीद की जा रही है, वह पुराने ढंग की कर्मकांडीय पेशा-आधारित जाति नहीं है। जातियों की जिस भूमिका और संरचना में यह जनगणना उथलपुथल मचाएगी, वह तो अपने किरदार में आधुनिक और राजनीतिक है।
इस बात को शायद सबसे स्पष्ट रूप से कांशीराम समझते थे। इसीलिए आम्बेडकरवादी होते हुए भी वे जाति को कमजोर करने या नष्ट करने के चक्कर में नहीं पड़े। उन्होंने तर्क दिया कि जाति जितनी मजबूत होगी, उनकी राजनीति उतनी ही परवान चढ़ेगी। साठ के दशक के आखिर में की गई प्रो. रजनी कोठारी की यह बात अब रंग ला चुकी है कि जातियां आधुनिक राजनीति में भागीदारी करने के दौरान बदल जाती हैं।
जातिगत जनगणना न तो जातियों को तोड़ेगी, न उनके प्रभाव का क्षय करेगी। वे तो पहले ही राजनीति में जमकर भागीदारी कर रही हैं। जनगणना ज्यादा से ज्यादा जातियों के आधुनिक संस्करण को ही प्रभावित कर सकती है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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